अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी मोदी-मंत्र
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अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी मोदी-मंत्र

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May 10, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 May 2014 14:55:59

प्रो़ एस़ पी़ सिंह

अमरीका के कुछ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों, जैसे हार्वर्ड तथा पिंसटन एवं ब्रूकिंंन्स इंस्टीट्यूशन और कार्नेगी एंडोमेंट फॉर पीस में संचालित भारत विषयक कई सर्वेक्षणों एवं परिचर्चाओं में राजनीतिक पंडितों ने मोदी की जीत की संभावनाएं जाहिर की हैं।

युगांतकारी परिवर्तन के लिए बेचैन राष्ट्र इन दिनों लगातार विचारोत्तेजक बहसों का मूक श्रोता, परन्तु सक्रिय मतदाता के रूप में एक भावी प्रधानमंत्री की प्रतीक्षा कर रहा है। यह लोकमंच विश्व के विशालतम प्रजातंत्र के राष्ट्रव्यापी महापर्व में हिस्सा लेकर आनंदित हो रहा है और फलश्रुति के रूप में नई सुबह के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है।
2014 के आम निर्वाचनों में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी एक सक्षम प्रशासक के रूप में न केवल देशव्यापी फलक पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी स्थापित हो चुके हैं। दुनियाभर के मीडिया ने जहां पूर्व में सेकुलर दबाव समूह के आगे झुकते हुए मोदी पर भारत के दब्बू किस्म के भाषणवीर सेकुलरों के बयानों को तरजीह देकर छापा था वही आज अपने सुर बदल कर मोदी-मंत्र से प्रभावित दिखते हैं। कुछ समय पहले ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट में छपे एक खुले पत्र के मार्फत ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में पचहत्तर भारतवंशी विद्वानों ने प्रधानमंत्री पद हेतु मोदी की उम्मीदवारी का विरोध किया था। पूर्व में गर्जियन ने मोदी को हिन्दू राष्ट्रीयतावादी कहते हुए उन्हें 2002 में हुए गोधरा के दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया था। डेली टेलीग्राफ ने भी उन्हें इसी कारणवश बहुविवादित नेता बताया। अगस्त 2003 में मोदी की ब्रिटेन-यात्रा के दौरान उनके विरोधियों ने उन्हें काले झंडे दिखाए थे। रायटर्स के मुताबिक 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान लंदन विश्वविद्यालय के प्रो. जेम्स मैनोर ने गोधरा दंगों के परिप्रेक्ष्य में मोदी का नकारात्मक उल्लेख किया था। संडे रिव्यू ने गत वर्ष अक्तूबर के अंत में लिखा कि मोदी का नेतृत्व अमरीका और उसके सहयोगी देश पाकिस्तान के हितों के अनुरूप नहीं रहेगा। वाशिंगटन पोस्ट ने भी उन्हें हिन्दू विचारक बताते हुए लिखा कि मतों का धु्रवीकरण हो जाएगा और भारत की पंथ-निरपेक्ष छवि परिवर्तित हो जाएगी। उधर अमरीका ने मोदी- विरोध का नेतृत्व किया। वर्ष 2005 के प्रारंभ में अमरीकी कांग्रेस के 21 सदस्यों ने वहां की तत्कालीन उप विदेश मंत्री कोंडालीजा राइस को लिखा कि गोधरा दंगों की वजह से मोदी को दिया जाने वाला राजनैतिक वीसा नामंजूर कर दिया जाए़। उसी वर्ष 18 मार्च को मोदी को राजनैतिक वीसा की नामंजूरी के साथ-साथ 1998 में उन्हें जारी किया गया यात्री व व्यावसायिक वीसा भी पांथिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के आरोप में निरस्त कर दिया गया। दिसंबर 2012 में भी दो दर्जन अमरीकी सांसदों ने पुन: राइस पर मोदी विरोधी वीसा नीति पर कायम रहने के लिए दबाव डाला। एक निहायत विवादित पत्र के द्वारा पांच दर्जन से भी अधिक भारतीय सांसदों ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को पूर्व की वीसा नीति को ही अमल में लाने का आग्रह किया।
मगर देखिए माहौल कैसे बदलता गया। गुजरात विधानसभा निर्वाचन के परिणाम दिसंबर 2012 में आये, देखते ही देखते मोदी के प्रति पश्चिमी देशों के रुख में परिवर्तन की बयार बहने लगी। हालांकि उसके पूर्व ही राष्ट्रीय फलक और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मोदी के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रभावों के मद्देनजर 11 अमरीका के कुछ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों, जैसे हार्वर्ड तथा प्रिंसटन एवं ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन और कार्नेगी एंडोमेंट फॉर पीस में संचालित भारत विषयक कई सर्वेक्षणों एवं परिचर्चाओं में राजनीतिक पंडितों ने मोदी की जीत की संभावनाएं जाहिर की हैं। फाईनेंशियल टाइम्स ने भी अपने एक अग्रलेख में लिखा कि बहुप्रशंसित मोदी में चीन से प्रतिस्पर्धा करने की अद्भुत क्षमता है। ब्रिटेन के व्यापारिक समुदाय ने भी मोदी की बढ़ती हुई लोकप्रियता को बखूबी परख लिया। दिसम्बर 2012 में गुजरात विधानसभा में मोदी की शानदार विजय के पश्चात यूरोपीय संघ ने भी मोदी-बहिष्कार खत्म कर दिया। भारत की अर्थ-व्यवस्था में गुजरात के योगदान को देखते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने प्रधानमंत्री पद हेतु घोषणा के तीन दिनों के भीतर कहा कि वहां निकट सहयोग के अपार अवसर मौजूद हैं। हाल ही में राष्ट्रमण्डल पत्रकार संघ द्वारा भारतीय चुनावों पर आधारित परिचर्चा में भारतीय मूल के प्रख्यात अर्थशास्त्री लॉर्ड मेघनाद देसाई ने नरेंद्र मोदी के एक सफल प्रधानमंत्री होने की उम्मीद जताई है और यह भी कहा है कि देश को मोदी के रूप में एक निर्णायक नेतृत्व प्राप्त होगा।
नरेन्द्र मोदी की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनजर अब उनके बारे में अमरीकी नजरिये में भी बदलाव आ रहा है। अपने पद से त्याग-पत्र देने के पूर्व अमरीकी राजदूत नैंसी पावेल ने मोदी से भेंट की। इधर उन्होंने भारत-अमरीकी रिश्तों में उठे विवादों को न केवल सिरे से खारिज कर दिया है बल्कि भविष्य में भी इन दोनों मुल्कों के आपसी सुरक्षा और समृद्घि के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग की अपार संभावनाओं को भी बखूबी रेखांकित किया है। गोधरा दंगों के बाद भारत-यात्रा पर आए अमरीकी कांग्रेस के सबसे बड़े शिष्टमंडल ने मोदी को अमरीका यात्रा के लिए निमंत्रण भी दिया।
कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस ने मोदी की उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता को काफी उत्साहजनक बताया है। अमरीकी दृष्टिकोण में धीमी गति से परिलक्षित परिवर्तन इस देश के भारतवंशी सक्रियतावादियों, ईसाई व यहूदी संगठनों, रिपब्लिकन सांसदों और कई प्रख्यात शोध संस्थानों के दबाव का भी परिणाम है। मोदी बहिष्कार का माहौल बदलने में गुजरात के विकास क्रम, गोधरा पर में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल की अनुकूल रिपोर्ट, द अमेरिकन हिन्दू फाउंडेशन, जनरल मोटर्स एवं फोर्ड जैसे व्यापारिक घरानों ने भी योगदान दिया है। भारत-अमरीकी व्यापार काउंसिल के अध्यक्ष के अनुसार मोदी में निवेश आमंत्रित करने हेतु चुंबकीय आकर्षण है। कुछ ही दिनों पूर्व इंटरनेशल न्यूयार्क टाइम्स में छपे एक लेख में एलेन बारी ने लिखा है कि मोदी भ्रष्ट हो ही नहीं सकते। अमरीकी प्रतिनिधि सभा के पूर्व अध्यक्ष ने कहा है कि विश्व को मोदी को एक विभाजनकारी नेता के रूप में नहीं बल्कि आधुनिकीकरण के प्रवक्ता के तौर पर देखना चाहिए।
गुजरात में प्राय:बारह वषोंर् से निरंतर चले आ रहे मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल से लेकर हाल के कुछ महीनों में भाजपा के द्वारा प्रधानमंत्री पद हेतु कीगई उनके नाम की घोषणा और उनके राष्ट्रव्यापी तूफानी चुनाव अभियान केचुस्त इंतजामों के साथ-साथ उनकी अत्यंत प्रभावशाली प्रस्तुति के फलस्वरूप धीरे-धीरे भारत-भविष्य पर लगा कुहासा अब छंटने सा लगा है। उनके बारे में पाश्चात्य जगत के परिवर्तित दृष्टिकोण को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए़ निसंदेह भारत की रक्षा और विदेश नीति के बारे में मोदी का विशुद्घ दृष्टिकोण भारतीय हितों के सर्वोत्तम संरक्षण पर आधारित है। मोदी की इस अवधारणा का उल्लेख भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में भी है जिसे कुछ आलोचकों ने ह्यमोदीफेस्टोह्ण तक कहा है। भारत के हितों की सदैव तिलाञ्जली देकर नकली विश्व-शांति के नेहरूयुगीन खोखले आदर्श को मोदी ने दरकिनार कर दिया है। वे प्रबुद्घ राष्ट्रीय हितों में सामंजस्य को सौहार्दपूर्वक स्थापित करना चाहते हैं। चीन तथा पाकिस्तान के बारे में उनका दृष्टिकोण इस कथन कि संपुष्टि करता है।
विगत नवंबर में मोदी-बहिष्कार के निषेध की घोषणा के बाद इस वर्ष के शुरू में जर्मन राजदूत ने मोदी की प्रशंसा करते हुए एक सकारात्मक संकेत दिया। डेनमार्क,स्वीडन और अमरीका ने मोदी के साथ बेहतर संबंधों की आस जताई। मोदी और जापान के प्रधानमंत्री ने निकट के वषोंर् में मैत्रीपूर्ण संबंधों को बहुत आगे बढ़ाया है। वाहन उद्योग और बुनियादी औधोगिक ढांचों के निर्माण में गुजरात को जापान और चीन जैसे देशों से पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई है। जापान और चीन जैसे देशों की मोदी ने मुख्यमंत्री के तौर पर यात्रा की है, मगर उनका स्वागत वहां राष्ट्राध्यक्ष के रूप में किया गया है। पूंजीनिवेश के अहम उद्देश्य को लेकर मोदी ने ब्रिटेन, सिंगापुर, इस्रायल, हांगकांग, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड, युगांडा और केन्या की यात्राएं भी की हैं। इन सारी यात्रओं ने मोदी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुस्थापित किया है। निहायत फलदायी मोदी की तीसरी रूस यात्रा का समापन मास्को स्थित भारतीय राजदूतावास में बतौर उत्सव संपन्न हुआ था।
कुछ ही समय पूर्व अमरीका के कुछ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों, जैसे हार्वर्ड तथा प्रिंसटन एवं ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन और कार्नेगी एंडोमेंट फॉर पीस में संचालित भारत विषयक कई सर्वेक्षणों एवं परिचर्चाओं में राजनीतिक पंडितों ने मोदी की जीत की संभावनाएं जाहिर की हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय के जगदीश भगवती ने लिखा है कि भारत के किसी भी न्यायालय में मोदी के खिलाफ लगाया गया कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है। सच तो यह है कि पांच दशक पूर्व सेलिग हैरिसन ने समग्र भारत विरोध पर पुस्तक लिखी थी और अब पिछले दिनों वेंडी डोनिगर ने हिन्दू विरोध का बीड़ा उठाया था। निश्चित तौर पर निर्वाचनोपरांत राष्ट्रभक्त मोदी के कुशल नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक सशक्त भारत की मौजूदगी दर्ज होगी।
(लेखक ऑक्सफोर्ड (लंदन) तथा
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में विजिटिंग फेलो रहे हैं)
 

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