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इन्द्रधनुषसंत रामानुज (5 मई को जयंती पर विशेष)
वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में संत रामानुज का विशेष स्थान है। वह वैष्णव संत थे । जिस समय वैष्णव धर्म संकटग्रस्त था, उसी समय रामानुज ने इस संकट को दूर किया और 12 वर्षों तक देश के विभिन्न हिस्सों मंे भ्रमण कर वैष्णव धर्म का प्रचार किया। वे वेदान्त दर्शन परम्परा के विशिष्ट द्वैत प्रवर्तक बने और उन्होंने श्रीमदभगवदगीता और उपनिषद का प्रतिपादन किया। इन्होंने अपने मत के प्रवर्तन के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की और ध्यान को ही ईश्वर की प्रार्थना बताया। रामानुज का जन्म 1017 ई. में चेन्नई (मद्रास) के समीप श्रीपेरम्बदूर गांव में हुआ था, वे 120 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए थे। इनके शिष्य श्री रामानन्द हुए जिनके शिष्य आगे चलकर कबीर बने।
रामानुज के पिता का नाम केशव भट्ट था। वेजब बहुत छोटी अवस्था में थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था। बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने कांची में वेदाध्ययन किया।
वेदांत का ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए उनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। इससे उनकी ख्याति चारों तरफ लगातार बढ़ती चली गई। रामानुज गृहस्थ थे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि परिवार में रहकर उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब उन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम जाकर यतिराज नामक संन्यासी से संन्यास धर्म की दीक्षा ले ली। उनके पीछे-पीछे गुरु यादव प्रकाश भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम जा पहंुचे और रामानुज के साथ सेवा में जुट गए। आगे चलकर उन्होंने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली। उनके गुरु का निर्देश था कि रामानुज उनका बताया हुआ मन्त्र किसी दूसरे को नहीं बताएं। लेकिन जब रामानुज को पता चला कि उस मन्त्र के सुनने से लोगों को मुक्ति मिल जाती है तो वे मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर उस मन्त्र का उच्चारण करने लगे। यह देखकर क्रोधित होकर गुरु ने उन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने गुरु को कहा कि यदि मन्त्र सुनकर हजारों नर-नारियों की मुक्ति हो सकती है तो उसके लिए उन्हें नरक में जाना भी स्वीकार है। रामानुज बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो वे अद्वितीय थे। उन्हें योग सिद्घियां भी प्राप्त थीं। वे यामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे, जब उनकी मृत्यु निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य द्वारा रामानुज को अपने पास बुलवाया। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही यामुनाचार्य की मृत्यु हो चुकी थी। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं। इससे उन्होंने समझ लिया कि यामुनाचार्य उनके माध्यम से ब्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्रनाम और अलवन्दारों जैसे दिव्य सूत्रों की टीका करवाना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने यामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम कर उनकी अंतिम इच्छा पूरी करने का वचन दिया। रामानुज द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्तिनी महालक्ष्मी मानी जाती हैं। रामानुज ने देशभर में घूमकर अनगिनत नर-नारियों को भक्ति मार्ग की ओर प्रेरित किया। उनके सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महालक्ष्मी हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है।
भगवान लक्ष्मी-नारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।
रामानुज की रचनाएं
रामानुज ने श्रीरंगम नामक स्थान पर रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया और वहां पर अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। उन्होंने भक्ति मार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।
रामानुज-विरचित सर्वप्रथम ग्रंथ वेदान्त संग्रह है जिसमें उन्होंने उन वाक्यों की रचना की, जो अद्वैतवादियों के अनुसार अभेद की स्थापना करते हैं। उन्होंने अपने प्रमुख ग्रन्थ श्रीभाष्य की रचना की जो ब्रह्मसूत्र पर भाष्य है। इसके बाद उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर वेदान्त द्वीप और वेदान्त सार नामक दो छोटी टीकाएं लिखीं, जो श्रीभाष्य पर आधारित हैं।
इन ग्रन्थों के अलावा दो अन्य ग्रन्थ- गद्यत्रयम और नित्य ग्रन्थ रामानुज के नाम से सम्बद्घ हैं, जो कि दार्शनिक न होकर भक्ति परक रचनाएं हैं। रामानुज की समस्त रचनाएं उनके प्रौढ़ मस्तिष्क की उपज तथा सूक्ष्म चिन्तन, गहन अध्ययन एवं प्रगाढ़ अनुभव के प्रमाण हैं। इनमें मुख्यत: उन्होंने पहले अद्वैतवाद के इन आधारभूत सिद्धांतों का खंडन किया कि ब्रह्म निर्विशेष चिन्मात्र है, एकमेव सत्ता है और नानतत्वमय जगत मिथ्या है। इसके उपरान्त उन्होंने बड़े विद्वत्तापूर्ण ढंग से अपने दार्शनिक पक्ष का निरूपण किया है और साथ ही यह भी बताया है कि किस तरह वह श्रुति-सम्मत है।
मायावाद का खंडन
रामानुज ने सत्ता के प्रति सजीव दृष्टिकोण अपनाया और अत: उनके लिए एकत्व और नानात्व के समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता था। वे इन दोनों को विभक्त न मानकर मात्र पृथक या एक ही तत्व के दो पक्ष मानते थे। उनके मत के अनुसार एकमेव सत्ता अपने सविशेष स्वरूप में जगत के नाना चराचर तत्वों का अंग के रूप में समावेश कर लेती है। तार्किक दृष्टि से यह आवश्यक भी है कि यदि ब्रह्म में अभिव्यक्ति को स्वीकार कर लिया जाये, चाहे वह अभिव्यक्ति आरोपित हो या वास्तविक, तो उन नाना रूपों को भी ब्रह्म में स्वीकार करना पड़ेगा, जिनमें ब्रह्म की अभिव्यक्ति हुई है। अद्वैतवादी इस अभिव्यक्त नानात्व को मिथ्या घोषित करते हैं और मायावाद का प्रवर्तन करते हैं, जो रामानुज को पूर्णत: श्रुति, युक्ति एवं अनुभव के साक्ष्य के विपरीत लगता था
दार्शनिक विचार
रामानुज के अनुसार समस्त भौतिक पदार्थ अचित या प्रति के ही परिणाम हैं। यह मान्यता सांख्य दर्शन में भी है। परन्तु उससे उनका यह मतभेद है कि ये प्रकृति को ब्रह्म का अंश एवं ब्रह्म द्वारा परिचालित मानते हैं। ब्रह्म की इच्छा से प्रकृति तेज, जल एवं पृथ्वी में मिलती है, जो क्रमश: सत्य, रजस एवं तमस रूप हैं। इन्हीं तीन तत्वों के नाना प्रकार के सम्मिश्रण से जगत के स्थूल पदार्थों की उत्पत्ति होती है। यह सम्मिश्रण क्रिया त्रिवृतकरण कहलाती है।
ब्रह्म
यदि ब्रह्म को जगत का कारण माना जाए तो यह प्रश्न उठता है कि पूर्ण एवं निर्विकारी ब्रह्म इस अपूर्ण एवं विकारशील जगत को क्यों उत्पन्न करता है। इसी तरह चित एवं अचित ब्रह्म के वास्तविक अंश हैं तो क्या उनके दोष एवं विकार अंशी ब्रह्म में दोष एवं विकार उत्पन्न नहीं करते। इस विषम स्थिति से बचने के लिए रामानुज ने देहात्म संबंध को अधिक स्पष्ट किया। जिस तरह यथार्थ में शारीरिक विकारों से आत्मा प्रभावित नहीं होती। उसी तरह देह रूपी जगत के विकारों से ब्रह्म प्रभावित नहीं होता है। रामानुज ने जगत और ब्रह्म के संबंध को द्रव्य-गुण भाव के आधार पर भी समझाने का प्रयास किया। उनके अनुसार द्रव्य सदैव गुणयुक्त होता है।
जीव
रामानुज के अनुसार जीव ब्रह्म का अंश है, ब्रह्म पर पूर्णत: आश्रित है और ब्रह्म उसमें अंतर्यामी के रूप में स्थित है। मोक्ष की दशा में जीव ब्रथह्म से एकाकार नहीं होता, बल्कि एकरूप होता है। अर्थात जीव अपना पृथक अस्तित्व रखते हुए ब्रह्म की तरह अनंत ज्ञान और अनंत आनन्द से युक्त हो जाता है। यह जीव की पूर्णता की स्थिति है, पर यह ब्रह्म के प्रभुत्व का हनन नहीं करती, क्योंकि तब भी वह ब्रह्म के पर्याय एवं अंश के रूप में ही रहता है।
मोक्ष
रामानुज मोक्ष के साधन के रूप में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति के समुच्चय का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। ये तीनों एक दूसरे के पूरक एवं अंतरंग रूप से संबंधित हैं। उन्होंने भक्ति की इस साधना में सर्वाधिक महत्व दिया। वे भक्ति और ज्ञान को अभिन्न मानते थे। उनके अनुसार सच्चा ज्ञान भक्तिरूप है और सच्ची भक्ति ज्ञानरूप है।
इन्द्रधनुष डेस्क
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