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बेनकाब हुआ .असंवैधानिक सत्ता -केन्द्र

by
Apr 19, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Apr 2014 16:53:12

 

तरुण विजय
देश में बहुत कम ऐसे सिद्घांतनिष्ठ संपादक होंगे जैसे संजय बारू हैं। टाइम्स आफ इंडिया, बिजनेस स्टैण्डर्ड जैसे समाचार पत्रों में मुख्य भूमिका निभाने के बाद वे सिंगापुर के एक विश्व प्रसिद्घ अध्ययन केंद्र में निदेशक भी रहे। उनका जापान के प्रति विशेष शोधात्मक अध्ययन रहा है। प्रधानमंत्री के प्रथम कार्यकाल में वे उनके मीडिया सलाहकार रहे और उस अवधि में प्रधानमंत्री कार्यालय की गरिमा को बचाने में अपनी पूरी कोशिश भी की। वे संभवत: ऐसे पहले वरिष्ठ अधिकारी हैं जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में एक बार भी, संकेत होने के बावजूद, श्रीमती सोनिया गांधी से मिलने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि ह्यमैं प्रधानमंत्री का सलाहकार हूं, सोनिया जी से मिलने का कोई कारण नहीं है।ह्ण
इस पुस्तक में डा. मनमोहन सिंह पहली बार यह स्वीकार करते हुए
दिखाए गए हैं कि सत्ता के दो केंद्र थे और मनमोहन सिंह ने अपनी रीढ़हीनता दिखाते हुए अपना संवैधानिक दायित्व, श्रीमती सोनिया
गांधी के लिए छोड़ दिया। स्थिति यह
हो गयी कि कैबिनेट मंत्री अपनी विदेश यात्रा अथवा घरेलू कामकाज के बारे में
अपने प्रधानमंत्री को नहीं बल्कि सोनिया गांधी को रिपोर्ट करने लगे।
इस पुस्तक ने भारत की सुरक्षा और संप्रभुता पर संविधानेतर तत्वों के आघात का भयावह रेखांकन किया है। जिन लोगों के पास मंत्रिमंडल की फाइलें नहीं जानी चाहिए थीं, उनके पास न सिर्फ वे फाइलें भेजी जाती थीं बल्कि उनके निर्णय संवैधानिक प्रधानमंत्री चुपचाप स्वीकार करते रहे। ऐसा क्यों? क्यों उस प्रधानमंत्री को अपने संवैधानिक पद की मर्यादा और विधि-सम्मत कार्यवाही की रक्षा की चिंता नहीं हुई? बारू की पुस्तक में सियाचिन के बारे में खतरनाक खुलासा हुआ है कि जनरल जे. जे. सिंह ने सोनिया गांधी के साथ चर्चा के बाद फैसले लिए? क्यों? जनरल जे.जे. सिंह को सोनिया गांधी से सलाह की जरूरत क्यों हुई? यह भी बताया गया है कि पहली बार मनमोहन सिंह ने गुप्तचर एजेंसियों से प्रतिदिन की रिपोर्ट लेने की परंपरा बंद कर दी थी। क्यों?
क्या इसका देश की सुरक्षा स्थिति पर खराब असर नहीं पड़ा? यहां तक कि प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में कौन-कौन सदस्य होंगे इसका भी फैसला प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ह्यसुपर प्रधानमंत्रीह्ण के यहां से यानी 10 जनपथ से हो रहा था।
देश पर लाखों करोड़ों रुपये के घोटालों का कहर टूट रहा था, भारत की जनता का पैसा निरंकुश सत्ता के साये तले लूटा जा रहा था लेकिन प्रधानमंत्री किसी भी ऐसे व्यक्ति के विरुद्घ कार्यवाही नहीं कर रहे थे। उनको कौन रोक रहा था? क्या यह स्थिति स्वीकार की जा सकती है जो संविधान का उल्लंघन करते हुए देश पर थोपी गई?
बारू ने देश के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है, उसका जवाब चुनावों में मिलेगा और जनता संविधानेतर सत्ता को उखाड़ देगी, यह विश्वास करना चाहिए।

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