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जो अस्पृश्य माने गए वही अब राज करेंगे

by
Apr 5, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Apr 2014 14:14:39

-तरुण विजय-

मुगल, ब्रिटिश और उसके बाद नेहरूवादी सेकुलर तंत्र ने इस देश में आग्रही हिन्दू बनना अपराध घोषित कर दिया था। देशभक्ति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की चरम सीमा तक जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को आज भी सरकारी नौकरी के योग्य नहीं माना जाता और इस बारे में केन्द्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों ने अधिघोषणा जारी की हुई है, जो रद्द नहीं की गई। 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के दिन लालकिले और राजपथ पर जो राष्ट्रीय ध्वज फहराने तथा भव्य परेड के कार्यक्रम होते हैं उनमें अनेक गंभीर आरोपों से घिरे मंत्री और राजनेता बुलाये जाते हैं। जिस मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करवाया, उसके सदस्य और पदाधिकारी भी आमंत्रित किए जाते हैं और उनमें से एक तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल के भी सदस्य बनाए गए। लेकिन कभी विश्व के सबसे बड़े हिन्दू संगठन, जो भारत का महान देशभक्त संगठन है, उसे अधिकृत तौर पर न तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के यहां चाय पर या राष्ट्रीय दिवसों के कार्यक्रमों में भारत शासन की ओर से अथवा राज्य सरकारों की भी ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारी के नाते आमंत्रित किया जाता है। अब कुछ भाजपा की राज्य सरकारों ने यदि उन्हें बुलाया हो तो यह अलग बात है।
हिन्दुत्व की विचारधारा से आप लाख असहमत हो सकते हैं लेकिन उस विचारधारा को मानने वालों को त्याज्य, अस्पृश्य, अनामंत्रित और सूचीविहीन वर्ग में रखना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक छुआछूत का उदाहरण है। भारत के 82 हजार से ज्यादा समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में सामान्यत: कांग्रेस, वामपंथी या सीधे-सीधे कहें तो उन लेखकों, पत्रकारों और संपादकों का प्रभुत्व है जिनका एक ही मकसद है- हिन्दुत्व की विचारधारा का विरोध। महानगरों से छपने वाले तथाकथित राष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हर दिन जिन लोगों के स्तंभ और लेख छपते हैं उनमें हिन्दुत्व अथवा भारत के आग्रही हिन्दू समाज की उस विचारधारा का संभवत: एक प्रतिशत भी प्रतिनिधित्व नहीं होता जो राष्ट्रीयता के उस प्रवाह को मानते हैं जिसे श्री अरविंद और लाल-बाल-पाल की त्रयी ने परिभाषित किया था। देश में ऐसे सैकड़ों आईएएस, आईएफएस और आईपीएस अधिकारी होंगे जो बालपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मानते हैं और उसे देश के लिए हितकारी समझते हैं लेकिन उनमें से एक भी सरकारी नौकरी में यह कहते हुए डरता है क्योंकि ऐसा घेाषित करने पर उसके विरुद्ध तत्काल सरकारी कार्यवाही हो जाएगी। सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक होने पर कोई दिक्कत नहीं है जिस कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को पं. नेहरू की सरकार ने 1962 के युद्ध में चीन का साथ देने के अपराध में गिरफ्तार किया था, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों को 1962 में देश की सेवा और सैनिकों का साथ देने के कारण 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में पूर्ण गणवेश में नेहरू सरकार ने शामिल किया था।
हिन्दुत्व समर्थक का परिचय मिलते ही कॉरपोरेट जगत और सामाजिक क्षेत्र में एक भिन्न दृष्टि से देखे जाने का चलन कांग्रेस और वामपंथियों ने शुरू किया, जिनके राज में हजारों सिख मारे गए, सबसे जयादा हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की घटनाएं हुईं, संविधान का उल्लंघन हुआ, आपातकाल लगा, व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं समाप्त हुईं, देश पिछड़ गया, महिलाएं असुरक्षित हुईं और विदेशों में भारत की छवि खराब हुई, वे केवल मीडिया पर अपने प्रभुत्व एवं सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से स्वयं को सेकुलर, शांतिप्रिय, संविधान के रक्षक और मुस्लिम हित चिंतक के रूप में दिखाते रहे।
सलमान रुश्दी की पुस्तक सेटेनिक वर्सेज पर जो प्रतिबंध की वकालत करते रहे वही हिन्दू धर्म पर लिखी वेंडी डोनिगर की अपमानजनक पुस्तक को बेचने की वकालत करते रहे। हिन्दुओं पर आघात नहीं लेकिन अहिन्दुओं पर ताना भी कसा गया और जिसकी सबने निंदा भी की हो तो भी वह प्राण लेने वाला गुनाह मान लिया जाता है। कश्मीर से पांच लाख हिन्दू आज भी बाहर हैं। भारत के किसी गांव से पांच गैर-हिन्दू भी यदि किसी भेदभाव का शिकार होकर निकाल दिए जाएं तो दुनिया भर में तब तक तूफान मचा रहेगा जब तक वे पांच सौ सिपाहियों के संरक्षण में वापस नहीं लौटा दिए जाते। भारत की दर्जनों राजनीतिक पार्टियों के चुनाव घोषणा-पत्र में यह एक पंक्ति ही दिखा दें आप, जिसमें कहा गया हो कि अगर उस पार्टी की सरकार आएगी तो वह ससम्मान और ससुरक्षा कश्मीरी हिन्दुओं की घर वापसी घोषित करेगी। सिवाय भाजपा के और कौन कहता है? इसका कारण क्या है? सारे कश्मीरी हिन्दू तो भाजपा समर्थक नहीं बल्कि उनमें भाजपा के कट्टर विरोधी और एकाध तो पीडीपी समर्थक भी मिल जाते हैं। फिर कश्मीरी हिन्दुओं का दर्द बाकी पार्टियों को क्यों दु:खी नहीं करता?
जो लोग फिलिस्तीन के मुस्लिम दर्द पर बोलते हैं, इस्रायल के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन करते हैं और बम फोड़ते हैं, जिन्हें इस्लामी मालदीव और चीन के सिंक्यांग में मुस्लिम मोह पर चीनी कार्यवाही से दर्द होता है वे अपने ही रक्तबंधु हिन्दुओं के पाकिस्तान और बंगलादेश में अमानुषिक उत्पीड़न पर खामोश क्यों रहते हैं?
गत एक सप्ताह में पाकिस्तान में दो हिन्दू मंदिर अपवित्र किए गए, मूर्ति जला दी गई और हिन्दुओं का अपमान किया गया। इसके विरोध में आपने कहीं कोई आवाज सुनी? अब इस समाचार में मंदिर की जगह मस्जिद लिखिए और फिर सोचिए कि अगर हमारे या हमारे मुल्क के आसपास कहीं गैर-मुस्लिम ने मस्जिदों के साथ यही काम किया होता तो क्या नतीजा निकलता?
हिन्दुओं को अपना अपमान सहन करने, अपना दु:ख पीने और अपने ऊपर होने वाले आघात स्वाभाविक मानने की आदत क्यों हो गई है? क्यों आग्रही हिन्दू उस शासन में, जो उनके राजस्व और वोट से चलता है, केवल इसलिए तिरस्कृत और सूचीविहीन किया जाना स्वीकार कर लेते हैं कि वे हिन्दुत्व समर्थक हैं? अस्पृश्यता और तिरस्कार का जितना भयानक दंश हिन्दुत्व समर्थकों ने झेला है वैसा नाजियों के हाथों यहूदियों ने भी नहीं झेला होगा।
अब वक्त बदलता दिखता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भट्टी में तपे पहले स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी थे जो प्रधानमंत्री बने और अब दूसरा स्वयंसेवक समय का चक्र बदलने वाला है। ल्ल

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