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मोदी के सामने चुनाव में उतरकर केजरीवाल पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते हैं, लेकिन लोगों का मानना है कि वह जिस तरह की राजनीति करते आए हैं वह गंगा किनारे बसे इस शहर के मिजाज से मेल नहीं खाती
– आदित्य भारद्वाज-
जब तक पत्ते दबे थे कयास लगाए जा रहे थे लेकिन अब बाजी खुल चुकी है। आम आदमी पार्टी (आआपा) की तरफ से अरविंद केजरीवाल के भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के सामने चुनाव लड़ने कि घोषणा करने के बाद सबके सामने स्पष्ट हो चला है कि आआपा और केजरीवाल का उद्देश्य क्या है ? दरअसल केजरीवाल जीते या ना जीतें लेकिन ध्यान खींचने में माहिर है। इस मामले में केजरीवाल ने कांग्रेस को पीछे धकेल दिया है। मोदी के सामने उनका चुनाव लड़ने का उद्देश्य भी यही है कि देशभर का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो। सड़क पर चलते आम आदमी, संभ्रात वर्ग और वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि आआपा की लड़ाई कांग्रेस और उसके द्वारा फैलाए गए भ्रष्टाचार से नहीं बल्कि भाजपा से ही है। बनारस में केजरीवाल मुस्लिम और बुनकरों के वोटों के भरोसे पर चुनाव में ताल ठोक रहे हैं, लेकिन बनारस के लोगों का मानना है कि केजरीवाल जिन समीकरणों के आधार पर यहां चुनावी मैदान में उतरे हैं वे इस शहर के मिजाज से मेल नहीं खाते। भ्रष्टाचार मिटाकर देश बचाने की बात कहने वाले केजरीवाल भी पंथ और जातिगत आधार पर वोट मांगने से नहीं चूकते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले वे मौलाना तौकीर रजा खान से मिले थे, दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद जनवरी में केजरीवाल चांदनी चौक इलाके में केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल के साथ शेखन मस्जिद में एक कार्यक्रम में पहुंचे थे। मंच पर दोनों ने एक दूसरे को गले भी लगाया था। हाल ही में वह दिल्ली में मुस्लिम समुदाय द्वारा गालिब सभागार में आयोजित किए गए एक कार्यक्रम में पहुंचे थे। जहां उन्होंने सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा खतरा बताते हुए बनारस से मोदी को हराने की बात बोलकर मुसलमानों को रिझाने की पुरजोर कोशिश की। हालांकि जब वे बाहर निकले मुस्लिम समुदाय के लोगों ने उनकी गाड़ी का घेराव किया और कहा कि उनकी कथनी और करनी में बहुत अंतर है। बनारस में भी केजरीवाल मुस्लिम कार्ड खेलने में जुटे हैं।
बनारस पहुंचते ही केजरीवाल सबसे पहले रोड शो करते हुए वे मुस्लिम बहुल इलाके बेनियाबाग में पहुंचे। उन्होंने बोलने का समय भी तब चुना जब अजान होने वाली थी। जैसे ही अजान हुई उन्होंने बीच में भाषण रोककर मुस्लिम मतदाताओं के बीच जगह बनाने की कोशिश की। महात्मागांधी काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. ओपी सिंह का कहना है कि केजरीवाल की आरोपों और छापामार वाली राजनीति, गंगा किनारे बसे इस शहर का मिजाज नहीं है। यहां पर भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा सभी का कैडर वोट है। ढाई से तीन लाख मुस्लिम वोट हैं। चूंकि केजरीवाल की कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं हैं, बनारस की जनता सिर्फ उन्हें एनजीओ वाले नेता के तौर पर जानती है। बनारस में छोटे बड़े करीब 500 एनजीओ हैं। वे उन्हें सपोर्ट करेंगे तो भीड़ तो सड़कों पर जुट सकती है, लेकिन भीड़ को वोट बैंक में नहीं बदला जा सकता है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. कौशल मिश्र कहना है कि 1980 में जब वह एमए के छात्र थे तब हुए लोकसभा चुनावों में बनारस से कांग्रेस से पंडित कमलापति त्रिपाठी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनारायण और जनसंघ से ओमप्रकाश लड़े थे। उस समय वैचारिक आधार पर चुनाव हुआ था। जिसमें कमलापति त्रिपाठी ने जीत हासिल की थी। दूसरे पर नंबर राजनारायण रहे थे और तीसरे पर जनसंघ के प्रत्याशी ओमप्रकाश रहे थे। इस बार के चुनाव की यदि बात करें तो चुनाव एक तरफा मोदीमय है। मुख्तार अंसारी बनारस और घोसी दोनों जगह से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। ऐसे में मुस्लिम वोटों का कटना तय है। केजरीवाल कि यह मंशा कि एक तरफा मुस्लिम वोट उन्हें मिल जाएगा वह यहां कामयाब नहीं होगी।
विश्वविद्यालय के युवाओं ने जिस तरह उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनावों में सपोर्ट किया था। वैसा यहां मुमकिन नहीं है। केजरीवाल ने जब बनारस में जनसभा की थी तो वहां मंच पर पंडित मदनमोहन मालवीय का चित्र लगाया गया था और उनके चित्र के सामने झाड़ू रख दी गई। इसका (बीएचयू) में इतना विरोध हुआ कि कुलपति को प्रेस कांफ्रेस बुलानी पड़ी और चुनाव आयोग से उनके खिलाफ लिखित शिकायत करनी पड़ी। छात्र उनसे बुरी तरह नाराज है। बनारस, संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा हुआ शहर है। यहां सिर्फ आरोप-प्रत्यारोपों की राजनीति करके वोट नहीं बटोरे जा सकते। गौर करने वाली बात है दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को लगातार कोसने वाले केजरीवाल को जो अमेठी में करना चाहिए था उसका रुख बदलकर उन्होंने बनारस कर दिया है। कांग्रेस के थिंक टैंक जानते हैं कि देश में इस बार कांग्रेस विरोधी लहर है। इसलिए शायद कांग्रेस के कई दिग्गज दिग्गज नेता लोकसभा चुनाव लड़ने से भी मना कर चुके हैं। ल्ल
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