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28 दिसम्बर, 1962 को केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा पाञ्चजन्य के कतिपय अंशों को आपत्तिजनक बताते हुए भारत रक्षा अधिनियम के अन्तर्गत जो चेतावनी दी गई थी वह दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह 1963 में वापस ले ली गई। तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को भी पत्र लिखने से चेतावनी नहीं हटाई गई। अन्त में न्यायपालिका के संभावित भय से 24 दिसम्बर, 1963 को सरकार ने चेतावनी को तत्काल वापस लिए जाने की सूचना दी।
समय-समय पर पाञ्चजन्य ने विदेश नीति की कमियों और चीन की मंशा को लेकर चेताया लेकिन या तो इन खबरों की अनदेखी की गई अथवा पत्रकारिता के इस स्वर को दबाने के शासकीय प्रयास हुए।
ह्यचीन के रवैये से स्पष्ट है कि वह समझौता नहीं चाहता, समर्पण चाहता है। चीन शांति नहीं चाहता, अपने आक्रमण पर परदा डालना चाहता है, क्या हम चीन की इस चाल को समझ सकेंगे ? यदि समझे हैं तो क्या हम उसकी काट करने को तैयार हो रहे हैं।'
– अटल बिहारी वाजपेयी
11 मार्च, 1963
चीन की राक्षसी शक्ति का विनाश सिक्यांग और तिब्बत के पुन: स्वाधीन होने से ही संभव है, तिब्बत के पठार पर जब तक चीन का राज्य रहेगा एशिया की शांति तब तक खतरे में रहेगी। अत: भारत की लड़ाई का उद्देश्य नेफा से चीन को खदेड़ना ही नहीं होना चाहिए आपितु दुनिया के सबसे ऊंचे पठार तिब्बत पर से, स्वर्ग से भी उसके प्रभुत्व का अंत करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए । – डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पूर्व राष्ट्रपति
बाराहोती और फिर लोंग्जू, नेफा और लद्दाख, लददख और अब फिर नेफा, यह क्रम विगत छह सात वर्षों से अखंड रीति से चल रहा है। भारत के स्वाभिमान को चुनौती दी जा रही है। उसकी अखंडता एवं सार्वभौमिकता को नष्ट किया जा रहा है। उसका नंदनवन, दावाग्नि में झुलस रहा है। मां के मस्तक पर शत्रु का पाद प्रहार हो रहा है, लेकिन भारत की तरुणाई को काठ मार गया है। मां की क्षत-विक्षत भुजा में और अधिक सड़ांध शत्रु उत्पन्न करता चला जा रहा है पर प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठकर केवल शाब्दिक घोषणाएं करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहा है। इसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?
( संपादकीय, 24 सितंबर1962)
कुछ लोग कहते हैं कि चीन ने हमारे ऊपर आक्रमण करके विश्वासघात किया है। मैं समझता हूं कि यह सोचना भी एक प्रकार की आत्मप्रवंचना है। क्या हम सचमुच ही इतने भोले हैं कि दुष्टों की चालोंं को न समझ सकें। वास्तविकता यह है कि कम्युनिस्ट चीन ने हमें इस बात का कभी विश्वास दिलाया ही नहीं कि वह हमारे ऊपर आक्रमण नहीं करेगा। आज से 10 वर्ष पूर्व ही उसने हमारी सीमा में प्रवेश करके सड़कें बनाना प्रारंभ कर दिया था। हमारे कर्णधारों ने उधर दुर्लक्ष्य करना ही उचित समझा।
-प.पू. श्रीगुरुजी (21 जनवरी, 1963)
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