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शत्रु कई षड्यंत्र एक

by
Mar 25, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Mar 2014 13:10:09

 

 

मोरेश्वर जोशी

ऐसे में जब देश सोलहवीं लोकसभा के चुनावों की तैयारी कर रहा है, इस देश के इतिहास को अलग नजरिये से सामने लाने वाली और आज से पहले आंखों से ओझल रहीं सभ्यता के विरुद्घ साजिशों की जानकारी देने वाली एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसका नाम है ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण। पूछने वाले पूछ सकते हैं कि जब कई ताकतें अनेक वषोंर् से भारत जैसे देश पर आक्रमण करने के लिए प्रयत्नरत होंे, तब इस पुस्तक में और किस तरह के आक्रमणों की जानकारी होगी? वास्तव में इस पुस्तक में किसी भी नए आक्रमण की जानकारी नहीं है फिर भी यह पुस्तक एक ऐसे प्रचंड आक्रमण की जानकारी सामने लाती है जो इक्कीसवीं सदी को प्रभावित कर सकती है। वह जानकारी है-देश में अलगाववादी आंदोलन के माध्यम से अनेक स्वतंत्र राज्यों को समर्थन देने वाले चर्च, चीन जैसी महासत्ता से परिपुष्ट और देश में कई जगहों पर नक्सली सेना की स्थापना करने वाला माओवादी आंदोलन और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों की शह पर चल रही जिहादी हरकतें, इन तीनों ताकतों ने आपस में मिलकर इस देश के टुकड़े- टुकड़े करने का महाभयानक कार्य हाथ में लिया है।

सतही तौर पर जिन ताकतों का कई पीढि़यों से एक-दूसरे से लड़ने का इतिहास उपलब्ध है और जिन लड़ाइयों में नरसंहार का आंकड़ा करोड़ों के पार गया है,ऐसे परस्परविरोधी विचारधाराओं वाले घटक एक-दूसरे के साथ मिलकर लड़ सकते हंै, इस पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा, लेकिन बीती शताब्दी में इन महासत्ताओं ने दुर्बल देशों में हथियारबंद लड़ाकों -जिहादियों की मदद से ही आधे से ज्यादा बर्बादी का काम किया है। शताब्दी भर महासत्ताओं ने इसी तरह अपना आक्रमण जारी रखा। अब इस महाकाय देश को विखंडित करने हेतु किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार दो घुसपैठी ताकतों के साथ में माओवादी गुट आ गए हंै।

ब्रेकिंग इंडियाह्ण नामक इस सवा छह सौ पन्नों की पुस्तक में इस कुटिल षड्यंत्र के सैकड़ों सबूत दिए गए हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत अधिकांश सबूत मीडिया में आ चुके हैं। साधारण तौर पर हर व्यक्ति प्रिंट मिडिया, इलेक्ट्रानिक चैनल और अब वेबसाइटों पर आने वाली जानकारी लेता रहता है। इस देश मेंे अलगाव की पृष्ठभूमि धारण करने वाले इन घटकों के एकजुट होने के समाचार सुनकर हम विस्मित भी होते हैं। लेकिन सारे सबूत एक साथ संकलित रुप से प्रस्तुत न होने के कारण उनकी एकत्रित छवि हमारे सामने नहीं आती। पर इस पुस्तक ने इस बात पर विस्तृत रोशनी डाली है कि दुनिया की महासत्ताएं कहलाने वाली ये ताकतें किस तरह अपनी महासत्ता टिकाने और उसे चमकाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं।

यदि ये ताकतें किसी देश में गहरे तक पैठ बनाकर काम करती हों तो यह निश्चित है कि उन्हें सरकारी व्यवस्था का समर्थन होगा। यह स्पष्ट है कि महासत्ताएं जिस कुटील स्तर पर काम करती हैंे, उसी कुटिलता से सरकारी मदद भी उन्हें मिलती हो अथवा यह भी हो सकता है कि सरकार में स्थित सत्ताधीश, कर्मचारी या फिर समाज में स्थापित संस्थाओं को बाहरी ताकतों की कुटिलता का अंदाजा ही न हो। लेकिन किसी भी देश का भविष्य निश्चित करने की क्षमता मुख्य रूप से लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में होती है। आज वह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है इसलिए यह विषय हर मतदाता तक पहुंचना चाहिए़

इस पुस्तक की दूसरी बड़ी देन यह है कि भारतीय पाठ्यपुस्तकों में इतिहास के गहन मुद्दे यानी ह्यआर्य भारत में बाहर से आएह्ण पर इस यूरोप के नजरिए से रोशनी डाली गई है। देखा जाए तो ब्रिटिश काल में और उसके बाद 65 वषोंर् के दौरान भी इस पर काफी चर्चा हो चुकी है। यहां एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो कहता है कि ह्यआर्य भारत से यूरोप में गएह्ण जबकि भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में इसी को स्थापित किया गया है कि ह्यआर्य बाहर से आएह्ण। फिर भी इस विषय पर यूरोप की घटनाओं के मद्देनजर अधिक रोशनी नहीं डाली गई है। भारत, चीन, ब्रह्मदेश (म्यांमार), मलेशिया, इंडोनेशिया एवं श्रीलंका को प्रभावित करने वाली आर्य संस्कृति यदि यूरोप से आई है, तो यूरोप में उसकी जड़ें अधिक गहराई तक जमाने में कोई हर्ज नहीं था, लेकिन वहां तो सौ-डेढ़ सौ शब्दों के अलावा और कोई साम्य नहीं दिखता। अंग्रेजी के प्रारंभ काल का प्रख्यात कवि चॉसर यहां-वहां से इकठ्टे किए गए सात-आठ सौ शब्दों से अपना काम चलाता है, लेकिन उसी समय आसान से शब्दों और संकल्पनाओं से अपनी भूमिका प्रस्तुत करने वाला 18-20 वर्ष की आयु वाला ज्ञानेश्वर नामक युवा गीता जैसा कठिन विषय सहजता से प्रस्तुत करने के लिए अधिक से अधिक आसान शब्द ढूंढता है। इसलिए उस समय के यूरोपीय साहित्य और भारतीय साहित्य का इस दृष्टी से अध्ययन होना चाहिए। चॉसर से लेकर इंग्लैंड के ओडिसी तक कहीं तो आर्य संस्कृति की मध्यवर्ती संकल्पना का उल्लेख होना चाहिए!

लेकिन जिस तरह से ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक ने इस विषय पर रोशनी डाली है, उससे भारत में जानकारों में इस विषय का अधिक अध्ययन करने की एक लहर आई है, लेकिन उधर यूरोप के युवाओं में एक नई चेतना जगी है। विश्व में यूरोप का साम्राज्य अबाधित रखने के लिए झूठे इतिहास का आधार लिया, लेकिन उनके मन में कहीं न कहीं यह भावना दिखती है कि हाथ में रहा केवल इतिहास और दुनियाभर का साम्राज्य चला गया।

इस विषय की शुरुआत डिस्कव्हरी ऑफ इंडियाह्ण से होती है। जब कोलंबस स्पेन व पुर्तगाल से निकला था तब वह यह देखने के लिए नहीं निकला था कि ह्ययूरोप के भेजे हुए आर्यह्ण कैसे हैं। उस समय पोप और उसके बीच जो वार्तालाप हुआ वह प्रसिद्घ है। ह्यवहांह्ण से लाई हुई लूट में पोप का हिस्सा कितना हो, स्पेन के राजा का कितना और स्वयं कोलबंस का कितना हो, यही उस वार्तालाप का केंद्रबिंदु है। उसे सिर्फ लूट चाहिए थी।

ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक में जर्मन दार्शनिक मैक्सम्यूलर से पूर्व के पांच और उसके बाद के पांच इतिहासविदों का क्रम दिया गया है। पूर्व के पांचों इतिहासविदों का कहना है कि यूरोप में संस्कृति नामक जो भी है वह ह्यभारत से आई हुई आर्य संस्कृतिह्ण के कारण है। भारत और अधिकांश विश्व पर भी यूरोपीय देशों का साम्राज्य होने पर भी भारत की संस्कृत भाषा, उस भाषा में स्थापित विज्ञान की परंपरा, अनेक शास्त्र, महाकाव्य और जीवन विषयक दृष्टि किसी को भी प्रभावित करने वाली है। आज पूरे यूरोप में जर्मनी अनेक शतकों से इस संस्कृति को आत्मसात करता प्रतीत होता है।

सन् 1850 का समय कुछ ऐसा था कि भारत में ब्रिटिश सत्ता को जमे कहीं 35 वर्ष और कहीं 100 वर्ष हो चुके थे। प्रारंभिक युद्घ के दौरान आर्थिक लेनदेन और उसके बाद जाने-अनजाने एक दूसरे की संस्कृति को समझने का समय शुरू हो चुका था। उसका एक परिणाम यह हुआ कि पूरे यूरोप में विद्वान लोग और मुख्यत: युवा वर्ग भारतीय संस्कृति से प्रभावित हुआ था। ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण में उस प्रभाव के अनेक उदाहरण दिए गए हैं। लेकिन सन् 1900 के बाद एक धारा कुछ ऐसी दृढ़तर हुई कि अपने देश भारत की संस्कृति में कुछ बेसिरपैर की और तथ्यों से परे चीजें डाली गईं। ब्रिटिश द्वारा की गई लूट में से मुठ्टीभर पैसे इस तरह के शोधकार्य के लिए देकर कई विश्वविद्यालयों में ह्यआर्य भारत में बाहर से आएह्ण गंुजाना शुरू किया गया। लेकिन इससे कई मजेदार, चौंकाने वाली और यूरोप के एक हिस्से को ध्वस्त करने वाली घटनाओं की मालिका प्रारंभ हुई। हिटलर ने अपनी नाजी सेना आर्य स्वस्तिक चिन्ह पर खड़ी की। यह इस बात का एक अच्छा उदाहरण था कि बाहर की किसी चीज से ठीक से परिचित हुए बिना उसका उपयोग करने से क्या अनर्थ होता है। भारत में ह्यआर्यह्ण तत्व है, वह कहीं भी वंश नहीं है। लेकिन यूरोप ने उसे वंश माना। इतना ही नहीं, हिटलर ने यह कहकर युद्घ किया कि वही उस वंश का वारिस है। उसमें उसकी क्या दशा हुई, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

विश्व के अधिकांश हिस्सों में तीन सौ से पांच सौ वर्ष तक यूरोपीय साम्राज्य हावी था, इसलिए यूरोप ने ऐसा इतिहास लाद दिया मानो वे ही दुनिया में सबसे पहले है। इस इतिहास की ओर अब दुनिया सजग होकर देख रही है। भारत में ब्रिटिशों की मानसिक गुलामी करने वाले सत्ताधीशों ने वही इतिहास जारी रखा है। अगली पीढ़ी ऐसा मौलिक विचार एवं कृति करने वाली है कि वह इस सबकी सुध लेगी ही। लेकिन तीनों आक्रामक घटक जब एक हो रहे हों, तब इस पर विचार करने के लिए पूरे देश को संगठित होना पड़ेगा। यह माना जाता था कि नागालैंड एवं अन्य राज्य ईसाई मिशनरियों ने अलग किए और उसमें गोलाबारूद माओवादियों का था। इसके सैकड़ों विवरण ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण में दिए गए हैं। भारत का प्रत्येक राज्य इस धूर्त चौकड़ी का शिकार हो रहा है। इस आक्रमण की संहिता ही जैसे राजीव मल्होत्रा एवं अरविंदन नीलकंदन

की जोड़ी द्वारा लिखित इस पुस्तक में उजागर की गई है।

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