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-डॉ. अश्विनी महाजन-
यदि आपको हवाई अथवा रेल से सफर करना है, आप सामान्यत: यात्रा टिकट किसी एयरलाईन कार्यालय अथवा रेलवे आरक्षण केन्द्र से नहीं खरीदते,अपने ही घर में बैठे-बैठे कम्प्यूटर से यह खरीद कर ली जाती है। इंटरनेट से इस प्रकार से किसी वस्तु या सेवा की खरीद को ई-कॉमर्स कहते हैं। यह सही है कि इस प्रकार की खरीद से लेनदेन की असुविधा और खर्च दोनों कम हो जाते हैं। हालांकि परंपरागत वस्तओं की खरीद फरोख्त में यह पद्घति अभी बहुत ज्यादा नहीं चली है, लेकिन इसकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि हालांकि अभी देश में 2000 के करीब ई-कॉमर्स पोर्टेल हैं, लेकिन कुछ ही बड़े ऐसे पोर्टेल हैं जिनका व्यवसाय ज्यादा चलता है। फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, मयंत्रा, इंक फ्रूट, होमशोप 18, सरीखी कंपनियों का व्यापार पिछले कुछ समय से काफी बढ़ा है। फ्लिपकार्ट का दावा है कि उसका सालाना व्यापार 6000 करोड़ रूपए से अधिक है। जिस प्रकार से ई-कॉमर्स की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, वर्ष 2020 तक ई-कॉमर्स का बाजार, कुल जीडीपी का 4 प्रतिशत तक पहुंच सकता है।
वर्ष 2009 में ई-कॉमर्स का कुल व्यापार 16,000 करोड़ रुपए था जो 2013 तक बढ़कर 78,000 करोड़ रूपए तक पहंुच चुका है। अभी रोजमर्रा उपयोग की चीजों की खरीद-फरोख्त ज्यादा ई-कॉमर्स के माध्यम से नहीं होती है और कुल ई-कॉमर्स में यातायात (एयर, रेलवे और बस टिकट इत्यादि) का योगदान 71 प्रतिशत का है। लेकिन जिस प्रकार से इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है और आज देश में 14 करोड़ लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं, आने वाले दिनों में ई-कॉमर्स व्यापार के एक बड़े माध्यम के रूप में उभारने वाली है। इंटरनेट पर खरीद करते हुए लेनदेन क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, अथवा ई बैंकिंग के माध्यम से भी हो सकता है अथवा माल की सुपुदगी के समय पैसा लिया-दिया जा सकता है।
पिछले लगभग एक दशक से वालमार्ट सरीखी रीटेल कंपनियों द्वारा भारत में प्रवेश की कवायद चल रही है। एक साल पहले सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश को अनुमति देकर उनके आने का रास्ता भी साफ कर दिया। लेकिन खुदरा में विदेशी निवेश के रोजगार, उद्योग और कृषि समेत अर्थव्यवस्था पर भारी प्रतिकूल प्रभावों के मद्देनजर, भाजपा समेत कई राजनीतिक दल भी इसका विरोध कर रहे हैं। कई राज्यों ने विदेशी कंपनियों को अनुमति नहीं देने का फैसला भी किया है। अभी मात्र 11 प्रदेशों की सरकारों ने ही अपने-अपने राज्य में खुदरा में विदेशी निवेश की अनुमति दी है। इसके चलते विदेशी खुदरा कंपनियों के भारत में प्रवेश के रास्ते खुलते नहीं दिख रहे हैं। लेकिन अब ई-कॉमर्स की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए विदेशी ई-कॉमर्स कंपनियों ने भी भारत में प्रवेश की अपनी कवायद तेज कर दी है। गौरतलब है कि देश का वर्तमान कानून ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश को अनुमति नहीं देता है। गौरतलब है कि दो बड़ी ई-कॉमर्स विदेशी कंपनियां एमेजॉन और ई बे भारत में बढ़ती ई-कॉमर्स की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए कोशिश कर रही हैं कि ई-कॉमर्स में विदेशी कंपनियों को 100 प्रतिशत निवेश करने की अनुमति मिल जाए।
हाल ही में भारत सरकार के औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग द्वारा ई-कॉमर्स में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश लागू करने की सरकारी मंशा जाहिर करते हुए एक चर्चा पत्र जारी किया। चर्चा पत्र में विभिन्न हितधारकों से यह अपेक्षा रखी गई कि वे इस संबंध में अपने विचार बताएं। चर्चा पत्र में पूछा गया कि क्या ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश गैर कृषि वस्तुओं तक ही सीमित रखा जाए या उसे कृषि वस्तुओं में भी लागू किया जाए? यह भी पूछा गया है कि किसी विदेशी कंपनी के न्यूनतम निवेश की राशि क्या हो? चूंकि कई राज्यों ने खुदरा में विदेशी निवेश को अनुमति नहीं दी है, ऐसे में ई-कॉमर्स में विदेशी कंपनियों को उन्हीं राज्यों तक कैसे सीमित रखा जा सकता है? यह पूछा गया कि क्या ई-कॉमर्स कंपनियों पर खुदरा विदेशी कंपनियों की भांति भारत से न्यूनतम खरीद की कोई शर्त लागू की जाए या नहीं?
कम लागत वाला है ई-कामर्स
देश में खुदरा व्यापार कई प्रकार की वस्तुओं का होता है। खाने-पीने की वस्तुओं की बात कहें तो अभी भी वे परंपरागत दुकानों अथवा बड़े स्टोरों के माध्यम से ही बिकती है। लेकिन ऐसी चीजें जिसमें उनको दुकान की बजाय आन लाईन खरीदा जा सकता है, तो उसकी बिक्री लागत कम आती है, जिसके कारण उसका लाभ उपभोक्ता को भी मिलता है। कोई भी किताब जो बाजार में किसी दुकान पर अधिकतम खुदरा मूल्य पर बिकती है अथवा 5 से 10 प्रतिशत छूट पर बेची जाती है, फ्ल्पिकार्ट, स्नैपडील, होमशॉप 18 सरीखे आनलाईन विक्रेता 20-25 प्रतिशत छूट पर बेचते हैं और उनकी गारंटी सुपुर्दगी घर पर हो जाती है। कई चीजों पर तो यह छूट 45 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। आने-जाने की असुविधा से तो बचाव होता ही है, बल्कि वस्तु भी सस्ती मिल जाती है। एक निश्चित राशि से ज्यादा खरीद करने पर छूट भी बढ़ जाती है और सुपुर्दगी शुल्क भी माफ कर दिया जाता है।
ऐसे में ई-कॉमर्स में भारी ग्रोथ हो रही है और यह व्यापार पिछले साल 33 प्रतिशत बढ़ गया। हालांकि आज भी ई-कॉमर्स कुल जीडीपी का 1 प्रतिशत से भी कम है। ई-कॉमर्स के बढ़ते चलन और उनकी कम लागत के कारण आज उत्पादक कंपनियां खासी मुश्किल में आ गई हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ई-कॉमर्स कंपनियों के कम खर्चों के कारण वे उपभोक्ता को भारी छूट देती हैं, जिसके कारण उन्हें अन्य परंपरागत बाजारों में उन वस्तुओं को बेचने में कठिनाई आती है। ई-कॉमर्स के बढ़ते चलन से परेशान किताबों, इलैक्ट्रॉनिक और अन्य घरेलू सामान के विक्रेता लामबंद हो रहे हैं और सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि ई-कॉमर्स में विदेशी कंपनियों को आने की अनुमति प्रदान न की जाए। ई-कॉमर्स में अमरीकी की दो बड़ी कंपनियां एमेजॉन डॉट कॉम और ई बे भारत में अपने बड़े प्रवेश की कवायद में लगी है और इसके लिए लॉबिंग भी कर रही है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस संबंध में एक चर्चा पत्र जारी कर इस विषय को आगे बढ़ाया है।
यह सही है कि नई तकनीक को रोका नहीं जा सकता। इसलिए ई-कॉमर्स को भी नहीं रोका जा सकता। लेकिन असमान प्रतिस्पर्द्घा बाजार में केन्द्रीकरण की प्रवृति को बढ़ाती है और उसके कारण कई कठिनाईयां उत्पन्न होती है। छोटी ई-कॉमर्स कंपनियां देश के औद्योगिक ढांचे को चुनौती नहीं दे सकती। छोटी ई-कॉमर्स कंपनियां विदेशों से खरीदकर देश के बाजारों में बेच पाने की खास सामर्थ्य नहीं रखती। बड़ी होने पर भी भारतीय कंपनियां सामान्यत: देश से ही सामान की खरीद करते हुए लोगों को सस्ते दामों पर उपलब्ध कराने की क्षमता रखती हैं। बड़ी कंपनियां इस ई-कॉमर्स की चुनौती का जबाव अपने बेवसाईट और पोर्टेल के माध्यम से अपने सामान की बिक्री करते हुए दे सकती हैं। लेकिन छोटे उत्पादक, खासतौर पर लघु और कुटीर उद्योगों के लिए ई-कॉमर्स एक खतरे की घंटी है। अगर ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश भी आ जाता है, तो यह उनके लिए मौत का पैगाम सिद्घ हो सकता है। ल्ल
लेखक- पीजीडीएवी कालेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
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