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बहुत उम्मीदें हैं अनिवासी भारतीयों को

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Mar 25, 2014, 12:00 am IST
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भारत की प्रगति में योगदान देने को आतुर हैं अनिवासी भारतीय

दिंनाक: 25 Mar 2014 15:03:01

प्रमोद कुमार बुरावल्ली

अनिवासी भारतीय वे लोग हैं जो वीजा या रेजीडेंसी परमिट के आधार पर स्थायी या अस्थायी तौर पर विदेशों में निवास कर रहे हैं, लेकिन अभी भी भारत की नागरिकता उन्होंने अपने पास रखी है। इसी तरह भारतवंशी यानी भारतीय मूल के, वे लोग हैं जो नागरिक तो दूसरे देश के हैं लेकिन उनकी जड़ें और पूर्वज भारतीय हैं और वे पारिवारिक, आध्यात्मिक या सांस्कृतिक आधार पर भारत के साथ अपना रिश्ता जोड़े रखना चाहते हैं।
अनुमान है कि अनिवासी भारतीयों और भारतवंशियों की संख्या जोड़ी जाए तो यह कोई दो से तीन करोड़ के बीच होगी। इसके अलावा विदेशों में बहुत बड़ी संख्या में लोग भारतीय धर्म और अध्यात्म के प्रति आकर्षित हुए हैं। इस काम में विदेशों में सक्रिय हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म से जुड़ी तमाम संस्थाएं, इस्कॉन, आर्ट ऑफ लिविंग, पतंजलि योगपीठ आदि का बड़ा योगदान है। अगर हम इन सबको जोड़ सकें तो यह संख्या कोई 50 से 100 करोड़ के बीच आएगी। ये विदेशों में बसे वे लोग हैं जिनका भारत और इसकी सभ्यता के प्रति लगाव किसी पैमाने में कम नहीं आंका जा सकता।
यह भारतीय सभ्यता और सामाजिक तानाबाना ही है जिसने यहां से विदेश गए उन लोगों को भी अपनेपन के एक धागे से बांधे रखा है, जिनमें कुछ शांति से रह रहे हैं तो कुछ प्रतिकूल स्थितियों में हैं और कुछ यहां से बेहतर आर्थिक अवसरों को पाने गए थे ताकि वे अपने सपने पूरे कर सकें।
खासकर उत्तरी अमरीका और यूरोप में रहने वाले अनिवासी भारतीय वहां मौजूद तमाम मंदिरों, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, योग केंद्रों, क्रिकेट और टीवी, इंटरनेट, सिनेमा जैसे संचार माध्यमों के द्वारा भारत से बहुत आत्मीयता के साथ जुड़े हैं। पिछले कुछ दशकों, खासकर 90 और 2000 के दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों के विदेशों में कार्यरत संगठनों के जरिए भारतीय राजनीति में अनिवासी भारतीयों ने सक्रियता से भागीदारी की है। कुछ अनिवासी भारतीय चुनाव प्रचार के लिए यहां आए तो कुछ ने चुनाव भी लड़ा और उनके तमाम संगठनों ने अपने-अपने तरीके से मतदाताओं को जागरूक करने का काम किया।
अनिवासी भारतीय समुदाय ने 2010 में एक कदम आगे बढ़कर तमाम कार्यक्रम आयोजित किए और देश की ज्वलंत समस्याओं पर अपनी बात रखी जिससे यहां के राजनीतिक दलों को अनिवासी भारतीयों और भारतवंशियों की बात सुनने और हालात समझने का मौका मिला और उनके मामले संसद तक में मजबूती से उठाए गए। आस्ट्रेलिया में अनिवासी भारतीय छात्रों पर नस्लीय हमले और उत्तरी अमरीका में सिखों पर हमले को लेकर भारत ने जैसी सक्रियता और प्रतिक्रिया दिखाई, वे इसी के उदाहरण हैं। इसका एक और बड़ा उदाहरण है जब 2010 में अनिवासी भारतीयों और भारतवंशियों ने एकजुट होकर भारत सरकार से उस नियम को खत्म करने की अपील की जिसके तहत विदेशी पासपोर्ट हासिल करते ही उन्हें भारतीय पासपोर्ट लौटाना होता था। ये नियम विदेशों में जा बसे भारतीयों के लिए अनपेक्षित भार थे और पासपोर्ट के जरिए देश के साथ उनका संबंध तोड़ने वाले थे।
हालांकि भारत सरकार के वार्ताकार लगातार कहते आए हैं कि सरकार अनिवासी भारतीयों और भारतवंशियों के निवेश का स्वागत करती है और उनके लिए कितनी ममता रखती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि वह उनको दुधारू गाय से ज्यादा कुछ नहीं समझती। कम से कम पुराने पासपोर्ट को लौटाने संबंधी नियम अचानक और अनियोजित तरीके से लागू किए जाने से तो यही लगता है।
अनिवासी भारतीय मोटेतौर पर आर्थिक प्रवासी हैं। उनकी अपेक्षा थी कि बेहतर वित्तीय अवसर हासिल कर सकें, बेहतर वैज्ञानिक वातावरण मिले या अपने शोध को बड़े फलक पर फैलाने के अवसरों की प्राप्ति हो। अगर ये अवसर भारत में ही दिये जा सकें तो निकट भविष्य में बड़ी तादाद में प्रवासियों के भारत लौटने की बयार चलने की पूरी-पूरी संभावनाएं हैं।
विदेश गई प्रतिभाओं की देशवापसी का एक हल्का झोंका सन् 2000 से 2008 के बीच आया था जब भारत में अवसर बढ़े थे और दुनियाभर में निजी क्षेत्र भयंकर विपत्ति का शिकार होने से लोगों ने देश की ओर रुख किया। हालांकि देश में आर्थिक मंदी और विभिन्न घोटालों तथा आर्थिक बदइंतजामी की वजह से 2009 के बाद कई अनिवासी भारतीय यहां से लौट भी गए।
अब 2014 में स्थिति यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और सभ्यता जड़ों तक जर्जर हो चुकी है जिससे अनिवासी भारतीय बेहद निराश और खिन्न हैं। यह केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं है बल्कि निजी क्षेत्र भी अब खुले तौर पर व्यक्तिगत संपन्नता बढ़ाने की होड़ में हैं।
भारत में मौजूदा समय में तमाम अवसर मौजूद हैं जिसमें हम विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर सकते हैं, नये विचारों के मंथन के साथ यहां खोजों और आविष्कारों के लिए पर्याप्त अनुकूलता देने वाली शैक्षणिक सुविधाएं जुटा सकते हैं और सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम छोटे और मझोले क्षेत्र के लिए पर्याप्त वित्तीय पोषण का इंतजाम करें क्योंकि उनके विकास पर ही देश की प्रगति निर्भर है।
अगर 2014 की जून में ईमानदार और दृढ़ इरादों के साथ काम करने वाली सरकार देश में आती है तो ये सभी अवसर एक नई उड़ान भर सकते हैं। इन सभी के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाए जा सकेंगे जो देश को समृद्धिशाली बनाएंगे, न कि मुट्ठीभर लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति में इजाफा होगा। भारत के पास विपुल खनिज और बौद्धिक संपदा है लेकिन कभी भी उसका सम्मान और ईमानदारी के साथ इस्तेमाल नहीं किया गया। हमें इनका कर्म और तृप्ति के
सिद्धांत के आधार पर उपयोग करना होगा न कि प्राप्ति और निवेश के आधार पर, जैसा कि अब तक देखने की आदत रही है। यही भारत की प्रगति की चाबी है।
अनिवासी भारतीय भारत आने के इच्छुक हो सकते हैं। लेकिन वह भारत जहां पूंजीवाद की होड़ मची हो और सरकारी संस्थाएं हर भ्रष्ट तरीका अपनाकर ह्यक्रोनी कैपिटलिज्मह्ण को पोषण दे रही हों, जहां भ्रष्टता इस हद तक पहुंच जाए कि वे देश को गिरवी रखने तक को राजी हों, समाजवादी व्यवस्था जहां चरमरा रही हो और जो देश विश्वगुरु के स्थान से लुढ़ककर इतना नीचे धंसता जा रहा हो, वहां के हालात पर तो सही सोच रखने वाली हर आत्मा फिलहाल विलाप ही कर रही है।
कुल मिलाकर अधिकतर अनिवासी भारतीय और भारतवंशी भी वही चाहते हैं जो भारत के लोग चाहते हैं- आर्थिक समृद्धि, परिवार और मित्रों से निकटता, जोखिम लेने वालों के लिए सुरक्षा का वातावरण और इस सबसे ज्यादा जरूरी अपने पूर्वजों की लगातार याद जिन्होंने अपार मेहनत से हमारी सभ्यता को जिन्दा रखा है। एक अनिवासी भारतीय के दिल में तो अपने पूर्वजों की याद दिन-रात बसती है।
मार्क ट्वेन के शब्द हैं-
ह्यभारत मनुष्य जाति का पालना है, मनुष्य की वाणी का जन्मस्थान है, इतिहास की मां है, पौराणिक कथाओं की दादी और परंपराओं की परदादी है। मनुष्य के इतिहास की बहुत सी बेशकीमती और सीख देने वाली मिसालें भारत के खजाने से ही आई हैं। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि मनुष्य और प्रकृति ने भारत को दुनिया का विलक्षण देश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सूर्य इसके चारों ओर चक्कर काटता है इसलिए यहां सब कुछ प्रकाशमान है। कुछ भी अनदेखा या उपेक्षित नहीं रह सकता, आप कुछ भी भुला नहीं सकते।
भारत के पास लाखों देवी देवता हैं और सभी की पूजा होती है। धर्म के क्षेत्र में दूसरे सभी देश लगभग कंगाल हैं जबकि भारत करोड़पति है।ह्ण आइए, कामना और प्रार्थना करें कि हमें ऐसा भारत फिर से देखने को मिलेगा।
(लेखक अनिवासी भारतीय हैं और 2001 से रेडिफ डॉट कॉम के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं।

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