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.गैरों ने मारा अपनों ने भुलाया

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Mar 10, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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1857 के क्रांतिकारियों की कहानी.

दिंनाक: 10 Mar 2014 14:15:12

अजनाला (अमृतसर) से राकेश सैन

अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में हुए देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानायक बहादुर शाहजफर को रंगून की जेल में मरते दम तक पीड़ा रही कि उन्हंे दिल्ली की गलियों में कब्र के लिए दो गज जमीन भी न मिल पाई, लेकिन यहां क्रांतिकारियों को अपने देश में जगह तो मिली पर, कफन अब 157 साल बाद नसीब हुआ है। सुनते तो यह आए थे कि ह्यशहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेलेह्ण, परंतु यहां मेले लगने तो दूर डेढ़ शताब्दी तक हम ह्यशहीदों के खूहह्ण को ह्यकालेयांवाला खूहह्ण कहते रहे। जी हां वह ह्यकालेह्ण जो नस्लीय नाम अंग्रेजों ने हमें दिया था, अभी तक हम अपने शहीदों को दूसरों के दिए अपमानजनक नाम से ही बुलाते आ रहे थे। अब मुद्दतों बाद जाकर इनको कफन के साथ-साथ ह्यशहीदह्ण का नाम मिला है। 28 फरवरी को इस स्थान की खुदाई का काम शुरू हुआ और तीन दिन तक चले इस अभियान में 150 से भी अधिक क्रांतिकारियों के अस्थि -पंजर मिले हैं। गुरुद्वारा शहीद गंज शहीदां वाला खूह प्रबंधक कमेटी ने इन अस्थियों को अपने पास सुरक्षित रख कर प्रशासन से इनके अंतिम संस्कार के लिए जगह मांगी है।
शहीदी कुएं का इतिहास
10 मई, 1857 को मेरठ छावनी से ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध शुरू हुई भारतीय सिपाहियों के क्रांति से संबंधित पंजाब की मुख्य तथा इकलौती यादगार आज भी अमृतसर की तहसील अजनाला में मौजूद है और ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों भारतीय सैनिकों के हुए नरसंहार की गवाही दे रही है। अजनाला अमृतसर से 24 किलोमीटर की दूरी पर है।
13 मई, 1857 की सुबह लाहौर की मियां मीर छावनी में परेड के दौरान लेफ्टीनेंट कर्नल टेलर की कमांड में नियुक्त बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 26 रेजीमेंट सहित पैदल फौज की 16 नं. 49 नं. तथा 4 न. लाइट कैवेलरी के सिपाहियों से हथियार ले लिए गए। जिसके बाद इनमें से बंगाल नेटिव इन्फैंट्री 26 ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध बगावत कर दी। रेजीमेंट का सिपाही प्रकाश पांडे 30 जुलाई, 1857 की रात छावनी में नियुक्त मेजर स्पैंसर का उसी की तलवार से कत्ल करके अपनी पलटन के साथी सिपाहियों सहित वहां से भाग निकला। इस दौरान एक अंग्रेज तथा दो अन्य भारतीय अधिकारी भी इन हिन्दुस्थानी सिपाहियों के हाथों मारे गए।
हिन्दुस्थानी सिपाहियों का ये जत्था 31 जुलाई की सुबह 8 बजे अजनाला के पास दरिया रावी के किनारे गांव डड्डीयां के बाल घाट पर पहुंचा। वहां उन्होंने गांव के जमींदारों से नदी पार करने का रास्ता पूछा। जमींदारों भूखे-प्यासे सिपाहियों को रोटी-पानी का लालच देकर वहीं रोक लिया और गांव के चौकीदार सुल्तान खां के हाथ यह सूचना सौढि़यां (वर्तमान तहसील अजनाला का छोटा सा गांव) के तहसीलदार दीवान प्राण नाथ को भेज दी। तहसीलदार ने चौकीदार को नकद ईनाम दिया और बागी सिपाहियों के खात्मे के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिदमतदार सरदारों और प्रशासनिक अधिकारियों को एकत्रित कर लिया। साथ ही प्राण नाथ ने यह संदेश अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ्रेडरिक हेनरी कूपर को भी भिजवा दिया। थाने और तहसील में जितने भी शस्त्रधारी सिपाही थे, तहसीलदार ने उन्हें दो नावों में भरकर दरिया पार बागी सिपाहियों के मारने के लिए भेज दिया। मौके पर पहुंचते ही तहसीलदार के सिपाहियों ने निशस्त्र थके-मांदे बेबस सिपाहियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। जिससे 150 के करीब सिपाही बुरी तरह से घायल होकर रावी के तेज बहाव में बह गए, 50 के करीब ने गोलियों से बचने के लिए नदी में छलांग लगा दी।
शाम ठीक 5 बजे फ्रेडरिक एच. कपूर अपने साथ 80 के करीब हथियारबंद घुड़सवार लेकर, कर्नल बोयड 50 सिपाही, रिसालदार साहिब खां टिवाणा 44 सिपाही, रिसालदार बरकत अली और जमांदार भाई मकसूदां सिंह 24 सिपाही, जनरल हरसुख राय 8 घुड़सवारों तथा राजासांसी से शमशेर सिंह संधावालिया भी 5-6 तेज तर्रार घुड़सवार सिपाहियों के साथ मौके पर पहुंच गया। इनके अलावा जोध सिंह (अतिरिक्त सहायक मजिस्ट्रेट) तथा अमृतसर का तहसीलदार भी अपने सिपाही लेकर वहां पहुंच चुका था।
गांव डड्डीयां से जिंदा पकड़े गए 282 हिन्दुस्थानी सिपाहियों को रस्सों से बांधकर आधी रात के समय अजनाला लाया गया। उनमें से 237 सिपाहियों को थाने में बंद करने के बाद शेष 45 को जगह की कमी के चलते अजनाला की नई बनी तहसील के छोटे से बुर्ज में ठूंस-ठूंस कर भर दिया गया। योजना के तहत इन्हें 31 जुलाई की रात ही फांसी पर चढ़ाया जाना था, परन्तु भारी बरसात के कारण फांसी अगले दिन के लिए स्थगित कर दी गई। एक अगस्त को बकरीद वाले दिन सुबह पौ फटते ही 237 सैनिकों को 10-10 करके थाने से बाहर निकाल कर थाने के सामने वाले मैदान में सिपाहियों को लाया गया।
बंदूकधारी सिपाही पहले से ही वहां तैयार खड़े थे। कूपर का इशारा मिलते ही हिन्दुस्थानी सिपाहियों पर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। पास खड़े गांव के सफाई सेवक लाशों को घसीट-घसीट कर एक-दूसरे के ऊपर फेंक रहे थे। सुबह 10 बजे तक अजनाले के उस मैदान में 237 सिपाहियों की लाशों का बड़ा ढेर लग चुका था। जब थाने में बंद सभी सिपाही शहीद कर दिए गए तो तहसील के बुर्ज में से सिपाहियों को बाहर निकालने की कार्रवाई शुरू की जाने लगी। जब बुर्ज का दरवाजा खोला गया तो उस के अंदर ठूंस-ठूंस कर भरे 45 सिपाहियों में से कुछ तो कई दिनों की भूख-प्यास, थकावट तथा बुर्ज में सांस घुटने के कारण पहले ही दम तोड़ चुके थे और कुछ अभी अर्ध-बेहोशी की हालत में सिसक रहे थे। उनको घसीटते हुए बुर्ज से बाहर निकाला गया। कूपर ने और सफाई सेवकों को आदेश दिया कि दिया कि मारे गए सैनिकों के साथ ही अर्ध-मूर्छित तथा सिसक रहे सिपाहियों को थाने के मैदान के पास मौजूदा पानी रहित विशाल कुएं में फेंक कर कुएं को ऊपर तक मिट्टी से भर दिया जाए।
ऐतिहासिक साक्ष्य
इस घटना का जिक्र करते हुए कूपर ह्यक्राईिसस इन द पंजाबह्ण के पृष्ठ क्रमांक 161-167 में उस कुएं को ह्यपूर्वियों का खूहह्ण, ह्यबागियों का खूहह्ण तथा ह्यकालों का खूह नाम से संबोधित करता हुआ लिखता है – ह्यहमारे सिपाहियों ने थके-मांदे बागी सिपाहियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं। उनकी गिनती 500 के करीब थी। वे भूख और थकावट से इतने निर्बल हो चुके थे कि नदी की तेज लहरों के आगे वे ठहर न सके। रावी का पानी उनके खून से लाल हो गया था।ह्ण
इतिहासकार डा. सतीश मित्तल ने अपनी पुस्तक ह्य1857 के महासंग्राम में क्या पंजाब अंग्रेजों के प्रति वफादार रहा?ह्ण में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।
शहीदां वाला खूह कमेटी के प्रयास
आजादी के बाद तक इस यादगार के स्थान पर ईंटों की छोटी सी बुर्जी के सिवाए कुछ और मौजूद नहीं था। जिस पर सन 1857 के शहीद लिखा हुआ था। अगस्त 1957 में पहली बार उक्त स्थान पर जंग-ए-आजादी के शहीदों का 100 वर्षीय शहीदी दिवस मनाया गया। कुछ समय बाद यहां कामरेडों ने एक छोटी सी मिनार बना ली और वे इस स्थान पर अपनी पार्टी के जलसे-बैठक करते रहे। सन 1972 में ग्रंथी स. हरबंस सिंह ने उक्त स्थान पर एक छोटा सा कमरा बनवा कर शहीदी कुएं से ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश कर दिया। सन 1988 में कमेटी के मौजूदा अध्यक्ष स. अमरजीत सिंह सरकारिया ने सन 2000 में प्रकाश स्थान को बड़ा करवाया। सन 2007 में स. अमरजीत सिंह सरकारिया के नेतृत्व में शहीदों की स्मृति में उनका 150 वर्षीय शहीदी समागम करवाया गया। नवम्बर 2008 में कमेटी का विस्तार करके हर वर्ष शहीदों की याद में समागम कराने का फैसला लिया गया, जो लगातार जारी है।
शोधकर्ता श्री सुरेंद्र कोछड़ के संपर्क में आने पर उन्होंने कमेटी को कुएं में से शहीदों की अस्थियां निकालकर उनका संस्कार करने के लिए प्रेरित किया। जिस पर कमेटी ने सर्वसम्मति से फैसला करके गुरुद्वारा साहिब की नई इमारत के निर्माण की योजना बनाई, क्योंकि इससे पूर्व और कमेटी के अस्तित्व में आने से पहले इस कुएं के ऊपर श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया जा चुका था और शहीदी कुएं के ऊपर गुरुद्वारा साहिब का निर्माण भी हो चुका था। शहीदी कुएं में से शहीद सिपाहियों की अस्थियां निकालने के लिए जरूरी था कि गुरु ग्रंथ साहिब के किसी अन्य स्थान पर प्रकाश के लिए अलग से गुरुद्वारा साहिब की इमारत का निर्माण किया जाए। कमेटी ने एक बड़ी जिम्मेदारी उठाते हुए 3 जनवरी 2013 को राज्य के प्रमुख धार्मिक प्रतिनिधियों से टप लगवाकर गुरूद्वारा साहिब की इमारत के निर्माण का शुभारंभ किया।
अंग्रेजों की दरिंदगी के प्रमाण
वर्तमान में मिले अस्थिपिंजरों से अंग्रेजों की दरिंदगी के प्रमाण स्पष्ट रूप से झलकते हैं। उदाहरण के तौर पर अस्थि-पंजर एक दूसरे के ऊपर नीचे पड़े मिले जिससे साफ पता चलता है कि इन्हें विधिवत दफनाया नहीं गया। कई पिंजरों के सिर में गोलियों के खोखे मिले हैं जो बताते हैं कि क्रांतिकारियों के सिर में गोली मारी गई थी। कुछ पंजर कुएं के दीवारों के पास मिले हैं जो बताते हैं कि घायलों ने शायद जान बचाने के लिए बाहर निकलने की कोशिश की होगी।
ब्रिटिश सरकार से मांगेंगे रिकॉर्ड
शोधकर्ता श्री सुरेंद्र कोछड़ ने कहा है कि वे इस शहीदों की पहचान के लिए जल्द ही अदालत में याचिका दायर करके केंद्र सरकार से मांग करेंगे कि वह ब्रिटिश सरकार से इन शहीदों का रिकॉर्ड, मीयांवाली छावनी में तैनात सैनिकों का विवरण उपलब्ध करवाए। अजनाला में अंतिम संस्कार करने के बाद इन अस्थियों को श्री गोइंदवाल साहिब व श्रीगंगाजी में प्रवाहित किया जाएगा।

 

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