चाय की चर्चा से प्याली में तूफान
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चाय की चर्चा से प्याली में तूफान

by
Mar 3, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Mar 2014 14:40:29

 

– मुजफ्फर हुसैन

महानगर मुम्बई में विज्ञापन की दुनिया में एक क्रांतिकारी घटना उस समय घटी थी जब चाय की प्रसिद्ध कम्पनी लिपटन ने समाचार पत्रों में एक विज्ञापन दिया था। विज्ञापन में कहा गया था कि अमुक तिथि को मुम्बई के गेटवे ऑफ इण्डिया के निकट समुद्र से एक ऐसी वस्तु बाहर निकलने वाली है, जिसे देखकर दुनिया दंग रह जाएगी। यह वस्तु ऐसी होगी जिसे अपनाने में हर कोई गर्व करेगा। इसका नशा आपके दिल और दिमाग पर छा जाएगा। हर मुम्बई वाला इसे अपनाकर बड़प्पन महसूस करने लगेगा। वह ऐसी वस्तु होगी कि एक बार जो उसे अपना लेगा, कभी नहीं छोड़ेगा? क्योंकि वह बहुत शीघ्र ही समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक यानी 'स्टेट्स सिम्बल' बन जाएगा। उन दिनों महानगर मुम्बई में छुट्टी के दिन लोगों के घूमने फिरने का सबसे आकर्षक स्थान था गेटवे ऑफ इण्डिया। सामान्य हिन्दुस्थानी आज भी अपनी भाषा में उसे पालवा ही कहते हैं। पालवा-चौपाटी यह दो जुड़वां नाम थे, जो अब भी प्रचलित हैं।

अनेक सप्ताह तक प्रतीक्षा के बाद वह दिन आया और गेटवे ऑफ इंडिया पर भारी भीड़ एकत्रित हो गई। लोग अपनी आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे। घोषित समय के अनुसार एक बहुत बड़ा गुब्बारा किसी विशाल रेहड़ी पर रखे बॉक्स में से बाहर आया और धीरे-धीरे आकाश की ओर बढ़ने लगा। उस पर लिखा था लिपटन चाय सबसे बढि़या, सबसे स्फूर्तिदायक…। इस विज्ञापन से कुछ लोग बड़े खुश हुए और कुछ ठगा सा महसूस करने लगे। पुरानी पीढ़ी तो अब शेष नहीं है, लेकिन अनेक लोग आज भी उस घटना को याद करके लिपटन चाय के उक्त विज्ञापन की दाद देते हैं। लिपटन के उस पीले पैकेट पर एक विदेशी महिला अंौर पास खड़े उसके बच्चे की तस्वीर भी छपी रहती थी। कहीं ऐसा न हो कि उस चित्र का भी लोग अपने ढंग से अर्थ निकाल लें? मुम्बई में उन दिनों चाय ने जिस तरह से धूम मचाई वैसी ही धूम इन दिनों चाय ने आगामी आम चुनाव को लेकर मचा रखी है।

कारण यह है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के शक्तिशाली उम्मीदवार बनकर उभरे हैं। उनका बचपन चाय की बिक्री से जुड़ा हुआ था। चाय बेचकर खून पसीने की कमाई से अपना जीवन निर्वाह करना एक आदर्श और कड़वी सच्चाई का सबूत है इसलिए यदि उन्होंने यह काम करके अपना जीवन बनाया है तो निश्चित ही हम भारतवासियों के लिए यह गर्व का विषय है। जब से उनकी यह छवि विकसित होने लगी है तो कुछ नेताओं और पार्टियों को अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। ऐसा लगने लगा कि यह व्यक्ति तो सर्वहारा मजदूर बनकर हमसे सत्ता छीन सकता है। इसलिए उसका विरोध करने में ही वे अपना भला समझने लगे।

गुजरात के नेता अहमद पटेल और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसका विरोध करने के लिए मैदान में आ गई हैं। चाय और श्री मोदी की गरीबी कहीं पटेल और ममता की पार्टी को दिल्ली जाने से रोक न दे इसलिए उन्होंने चाय विरोधी आन्दोलन को जोरों से प्रारंभ कर दिया है। वे यह तो नहीं कह सके कि उन्होंने चाय तो नहीं बेची, लेकिन इस बात का पता लगा लिया कि उनकी तो चाय की कैंटीन थी, कैंटीन में भी तो चाय बनानी ही पड़ती है और वही काम करना पड़ता है जो रास्ते पर जाकर करना पड़ता है। बल्कि मालिक के नाते दो काम और अधिक करने पड़ते हैं। इतना कह देने के बाद भी यदि वे मोदी का रिश्ता चाय से तोड़ने में सफल हो जाते तो संभवत: उनके लिए समाधान होता। यहां हम उनको यह याद दिला देते हैं कि इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व रैमसे मैकडोनाल्ड को भी इसी दौर से गुजरना पड़ा था। लेकिन चाय बड़ी करामाती होती है, उसके बनाने, बेचने और पिलाने से आदमी प्रधानमंत्री हाउस में पहुंच सकता है तो फिर बंगाल की नेता और अहमद पटेल को झोपड़-पट्टी में न सही पार्लियामेंट स्ट्रीट में तो चाय बेचना शुरू कर ही देना चाहिए। उन्हें स्पर्धा भी करनी पड़े तब भी पीछे नहीं रहना चाहिए क्योंकि लोग जब एक चाय में गुलाम हो जाने का व्यंग्य कसते हैं तो फिर कैंटीन का मालिक बन जाना तो निश्चित ही प्रगति का चिन्ह है। वे आवाज लगाकर अपनी सेल्समैनशिप दर्शा सकते हैं… 'आओ हमारे होटल में चाय पियो जी गर्म गर्म…. बिस्किट खाओ जी नरम नरम?'

हमारे देश में अब लोकतंत्र है इसलिए चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन 2014 का आम चुनाव चाय के लिए फिर से याद रखा जाएगा क्योंकि इस समय यह अंतरराष्ट्रीय पेय भारत के लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी से जुड़ गया है। मोदी ने चाय बेची या नहीं अब यह सवाल गौण हो गया है। आने वाले दिनों में समाजशास्त्र के किसी विद्यार्थी के लिए डाक्टरेट लेने का विषय हो सकता है। इस समय तो भारतीय जनता पार्टी से भी उनकी बड़ी पहचान चाय बन गई है। अपने देश में लोग सांझ-सबेरे कहीं न कहीं मिलते रहते हैं। कुछ गपशप होती है, कुछ सट्टे और मटके की बातें हो जाती हैं और कुछ इसे अपनी धर्म परायणता का प्रतीक भी बना लेते हैं। चौराहे पर प्याऊ लगाकर पानी पिलाना, अपनी टोली को जुटाकर गीत संगीत की महफिल जमाना और चुनाव के लिए अपने दस-बीस साथियों के साथ गरमा-गरम चर्चा करते रहना हमारे यहां की प्रतिदिन की घटनाएं हैं। रात्रि भोज के पश्चात पान की दुकान पर भी ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं। धार्मिक अवसरों पर हमारे यहां भंडारे की भी प्रथा है, लेकिन वह भीड़ इस जमघट से अलग होती है।

चाय में पानी, पत्ती, शक्कर और दूध तो होता ही है, लेकिन फिर भी उसके असंख्य प्रकार हैं। कोई पानी कम चाय मांगता है तो कोई मीठी तो कोई फीकी, कोई काली तो कोई दूध वाली। जिस प्रकार चाय की असंख्य कम्पनियां हैं ठीक उसी प्रकार चाय पीने वालों की भी असंख्य तादाद। चाय समाज में इतनी लोकप्रिय हो गई है कि उस पर अनेक मुहावरे बन गए हैं। किसी को कम आंकना है तो कहा जाता है पानी कम चाय है। किसी को क्रोध अधिक आता है, तो कहा जाता है कड़क चाय है।

चाय को चाहत से जोड़ दिया गया है। तभी तो घर पर आमंत्रित करने के लिए कहा जाता है हमारे यहां चाय पर अवश्य आइए। ठीक उसी प्रकार से रिश्वत देनी हो तो बड़ी खूबसूरती से कह दिया जाता है इसे चाय-पानी दे देना।

श्री नरेन्द्र मोदी अत्यंत दूरदर्शी और बेबाक नेता हैं कि उन्होंने अपने को चाय से जोड़ दिया। संभवत: वे अपने बचपन में कृष्ण मेनन से प्रभावित रहे होंगे। क्योंकि राष्ट्र संघ में सबसे लम्बा भाषण देने वाले कोई नेता हुए हैं तो वे कृष्ण मेनन थे। कहते हैं लगातार कश्मीर के मामले पर मेनन 36 घंटे तक बोलते रहे, इस बीच वह केवल बीच-बीच में चाय की चुस्कियां

लेना नहीं भूलते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि चाय किसी टॉनिक से कम नहीं है, भूली बात का स्मरण कराने की उसमें शक्ति भी है। जाने-अनजाने में नरेन्द्र मोदी ने ऐसी वस्तु को अपना मोनोग्राम बना लिया कि लोगों ने उनकी पहचान को ही चाय से जोड़ दिया है। यह पहचान अब चर्चा और वाद में बदल गई है क्योंकि मोदी के नाम की चाय पर अब अनेक प्रयोग हो रहे हैं।

देश के जाने-माने नेता इसे स्वीकार कर रहे हैं कि मोदी ने चाय की प्याली में नहीं बल्कि चाय की प्याली ने चुनाव में तूफान बरपा दिया है। चाय की प्याली समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों की पहचान बन गई है। कम मीठी चाय बुद्धिजीवी पीते हैं। बिल्कुल फीकी बीमार पीते हैं। जो चाय की चुस्कियां लेते हैं वे चिंतक की श्रेणी के लोग होते हैं, जो तेजी के साथ गटकते हैं वे जल्दबाज होते हैं। जो अधिक चाय पीते हैं वे दकियानूस होते हैं और जो बिल्कुल नहीं पीते वे संत और महात्मा की श्रेणी के होते हैं।

चाय की इस विविधता के प्रतीक श्री नरेन्द्र मोदी न बन जाएं वरना अनेक राजनीतिक दल अपने कार्यालयों पर यह बोर्ड लगाने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि … कृपया चाय पीकर दफ्तर में प्रवेश न करें….?

 

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