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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का इम्फाल-कोहिमा का संघर्ष (1944)
-डा. सतीश चन्द्र मित्तल-
यह भारतीय इतिहास की बड़ी विडम्बना है कि स्वतंत्र भारत के महानतम क्रांतिकारी राष्ट्रीय योद्धा सुभाष चन्द्र बोस तथा आजाद हिन्द फौज को इतिहास के पन्नों से विस्तृत कर दिया गया अथवा उनको गौण बना दिया गया है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के एक निवासी आशीष भट्टाचार्य ने भारत की कांग्रेस सरकार के गृह मंत्रालय से नेताजी सुभाष के राष्ट्रीय आन्दोलन में भूमिका की जानकारी मांगी तो एक उच्च अधिकारी ने टका सा जवाब दे दिया कि इस सन्दर्भ में कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। इसी बीच केन्द्रीय सूचना विभाग के एक अन्य व्यक्ति ने भी नेताजी तथा आजाद हिन्द फौज के बारे में अभिलेखों का कोई ब्योरा देने से इनकार कर दिया। क्या स्वतंत्र भारत में कोई भी व्यक्ति या सरकार इस प्रकार के निर्लज्जता तथा उत्तरदायित्वहीन उत्तर दे सकते हैं? यह सर्वविदित है कि स्वतंत्रता से पूर्व तथा इसके चालीस वर्ष बाद तक कांग्रेस शासन, नेताजी के प्रति शत्रुता तथा वैमनस्य पूर्ण रवैया अपनाता रहा। 1942 के आन्दोलन में अंग्रेजी साम्राज्य के लिए मुखबरी करने वाले भारतीय कम्युनिस्टों ने सुभाष को तोजो का कुत्ता तथा आजाद हिन्द फौज को लुटेरों की सेना कहा।
इसके विपरीत यह भी नितांत सही तथा तर्कसंगत है कि तत्कालीन विश्व की सभी बड़ी हस्तियों ने सुभाष के संघर्षमय जीवन तथा कार्यों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री क्लीमेंट ऐटली ने सुभाष को भारत की आजादी दिलाने वाला तथा जर्मनी के हिटलर ने भारत का नेता तथा जापान के प्रधानमंत्री हिडेकी तोजो ने एशिया का महानतम क्रांतिकारी कहा।
सुभाष चन्द्र बोस ने न केवल भारत की स्वतंत्रता के लिए अद्भुत प्रयास किया बल्कि द्वितीय महायुद्ध में आजाद हिन्द फौज के महासेनापति के रूप में युद्ध का संचालन भी किया। विश्व युद्ध के दिनों में वे केवल एक मात्र व्यक्ति थे जो 2 जुलाई, 1943 को जर्मनी से सिंगापुर जान जोखिम में डालकर पनडुब्बी में 90 दिन की यात्रा कर पहुंचे थे। उन्होंने 45000 सैनिकों की आजाद हिन्द फौज का पुनर्निर्माण किया था। जापान की सहमति से एक अस्थायी सरकार की स्थापना की थी, जिसे विश्व के नौ देशों ने मान्यता दी थी। सुभाष तथा उनकी आजाद हिन्द फौज का इम्फाल-कोहिमा में अंग्रेजों के विरुद्ध महानतम सैनिक युद्ध हुआ था जिसे इंग्लैण्ड के आधुनिक इतिहासकार तथा विद्वान भी स्वीकार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य से भारत सरकार ने न केवल सुभाष बोस के यशस्वी कार्यों को छिपाया अपितु आजाद हिन्द फौज के विश्व युद्ध पर प्रभाव डालने वाले रोमांचकारी घटनाओं को भी गुप्त रखा। व्यक्तिगत रूप से तपन चट्टोपाध्याय एक आईपीएस अधिकारी ने, जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के 15 वर्षों तक गुप्तचर विभाग में कार्यरत रहे थे। उन्होंने जेआई एफसीएफ (जेपनीज इन्सपायर्ड फिफ्थ कालोमिस्ट स्पाइज तथा बीएटीसी (ब्राह्मीण एरिया ट्रेन्ड स्पाइज) आदि कोड़ भी बनाये थे। उन्होंने अनेक दस्तावेजों का अध्ययन किया। इससे संबंधित दस्तावेज नागालैण्ड, जर्मनी तथा ब्रिटिश अभिलेखागार में उपलब्ध है। 1997 में भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार को लगभग 900 फाइलें आजाद हिन्द फौज से सम्मिलित प्राप्त हुई। फिर भारत सरकार कैसे कह सकती है कि वे बेखबर हैं।
स्वतंत्र भारत की सरकार के आचरण के बिल्कुल विपरीत, इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध इतिहासकारों तथा विद्वानों ने इंग्लैण्ड द्वारा लड़े गये विभिन्न युद्धों की सूक्ष्मता तथा तुलनात्मक समीक्षा की। गत 20 अप्रैल, 2013 को चेल्सी स्थित ब्रिटिश सरकार के नेशनल आर्मी म्युजियम में इस पर विशेष चर्चा हुई। 1645 ई. से हुए युद्ध से लेकर 1982 ई. तक फाकलैण्ड के गूत्र-ग्रीन तक के युद्ध पर विश्लेषण हुआ। इससे इंग्लैण्ड के साथ हुए इसकाल खण्ड में बीस युद्धों का वर्णन किया गया। बोलने के लिए प्रत्येक प्रसिद्ध इतिहासकार को चालीस मिनट का समय दिया गया। इस विचार संगोष्ठी में इंग्लैण्ड के साथ हुए पांच महान युद्धों की सूची में रखा गया। गुप्त मतदान द्वारा निर्णय लिया गया। इसमें इम्फाल-कोहिमा पर हुए युद्ध, जो एक सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज तथा जापान की संयुक्त सेनाओं तथा ब्रिटिश सेना के लेफ्टिनेंट जनरल विलियम स्लीम के बीच 1944 में लड़ा गया युद्ध भी था। इसमें क्रमश: इम्फाल-कोहिमा को भविष्य तथा महान युद्ध के आधार पर आधे से अधिक मत मिले तथा दूसरे स्थान पर 1944 में हुए नौरमंडी के युद्ध को माना गया जिसे 25 प्रतिशत, तीसरे स्थान पर 1815 में हुई वाटरलू 22 प्रतिशत, चौथे स्थान पर 1879 में जुलों युद्ध में रुरकी युद्ध को केवल तीन प्रतिशत तथा 1846 में प्रथम सिख युद्ध को दो प्रतिशत मत मिले। इन बीस युद्धों में प्लासी के युद्ध को भी एक माना गया। कोहिमा-इम्फाल के युद्ध का वीभत्स वर्णन इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध लेखक तथा रायल हिस्टोरिकल सोसायटी के फेलौ डा. राबर्ट लीमेन ने अपने चालीस मिनट के भाषण में किया था जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा सैनिक कारणों की मीमांसा करते हुए इस बात पर बल दिया कि इस महान युद्ध के बाद ही लगातार जीती हुई जापानी सेनाओं ने दूसरा रुख अपनाया। अब वे पराजय की ओर बढ़ी तथा इंग्लैण्ड जीत की ओर।
विचारणीय गंभीर प्रश्न है कि आखिर प्रबुद्ध ब्रिटिश इतिहासकारों तथा अन्य विद्वानों ने इम्फाल-कोहिमा में लड़े युद्ध को ही महानतम ब्रिटिश युद्ध क्यों कहा? वस्तुत: अभी तक विश्व तथा इंग्लैण्ड के इतिहास में 18 जून, 1815 को डमूक आफ वेलिंग्डन तथा नेपोलियन बोनापार्ट के बीच में हुए युद्ध में इंग्लैण्ड की विजय गाथाओं तथा वीर काव्य के तराने गाये जाते थे। यूरोप तथा ब्रिटिश इतिहासकारों-वार्नर, मार्टिन, केरिंग्टन, जैक्सन, इन्वेंस, हेज आदि ने इस युद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा परम्परागत रूप से इसे महानतम तथा निर्णायक युद्ध माना है।
सरसरी निगाह से यदि इम्फाल-कोहिमा के भीषण युद्ध की घटनाओं को देखें तो ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्लेषण प्राय: सही लगता है। यह युद्ध सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज तथा जापानी सेनाओं के साथ इम्फाल में मार्च से जुलाई 1944 तथा कोहिमा में अप्रैल-जून 1944 के दौरान लम्बे समय तक लड़ा गया। इसमें 18 अप्रैल 1944 को ब्रिटिश सेना की द्वितीय डिवीजन के आ जाने से सफलता मिली थी। इस अकेले युद्ध में आजाद हिन्द फौज तथा जापानी सेना के लगभग 53,000 सैनिक मारे गए थे तथा ब्रिटिश सेना के इम्फाल में 12000 तथा लगभग 4000 कोहिमा में सैनिक मारे गए थे।
सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की तीन रेजीमंट बनाई थी। फरवरी, 1944 के प्रथम सप्ताह में पहली रेजीमेंट रंगून से ट्रेन से शत्रु द्वारा हवाई बमबारी से रेलवे स्टेशन को भारी क्षति होते हुए भी, प्रोम पहुंच गई थी। प्रोम से तांगुप तक लगभग 100 मील पैदल तथा वहां से मयाहांग तक लगभग 150 मील और पैदल गई थी। ब्रिटिश विमानों की बमबारी सहित यह सैनिक दल कलादान नदी के किनारे पहुंचा था, जहां अंग्रेजों की ओर से लड़ रहे पश्चिम अफ्रीका की नीग्रो सेना को बुरी तरह हराया था। 50 मील दूर पलेटवा और बाद में डालेटम पर कब्जा कर लिया। डालेटम के लगभग 40 मील दूर पश्चिम की ओर पवित्र भारतीय सीमा थी। आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों की चौकी मौडोक (जो चटगांव के बाहरी क्षेत्र में, अब बंगलादेश में) पर हमला कर कब्जा कर लिया। भारतीय सीमा में भारतीय सेना ने उत्साह में तिरंगा झण्डा फहराया। भावपूर्ण हो अनेक सैनिक भारतभूमि पर चिपट गये, अनेकों ने भारत की मिट्टी को श्रद्धापूर्वक अपने सिर पर रखा। कुछ भावुक होकर रोने लगे। अब अगला मोर्चा दिल्ली का लाल किला था।
मणिपुर क्षेत्र में भी आजाद हिन्द फौज का भयंकर संघर्ष हुआ तथा आजाद हिन्द फौज के कुछ दस्ते कोहिमा तक पहुंच गए। कोहिमा में भी पर्वत की चोटी पर भारतीय तिरंगा लहराया गया। परन्तु मौसम की खराबी के कारण भारतीय सैनिकों की बड़ी हानि हुई। वे घास की रोटियां तथा घोड़ों और हाथियों का मांस खाने को मजबूर हुए ताकि वे जीवित रहकर भारत को स्वतंत्र करा सकें। ब्रिटिश सेना की और कुमुक आने से भी कठिनाइयां बढ़ गईं थी। जून, 1944 में इम्फाल में परिस्थितियां अत्यधिक वर्षा, तूफान से विकट हो गई थी, पर्याप्त संख्या में भारतीय सैनिक मरने लगे थे। इन परिस्थितियों के होते जापान ने अपनी सेनाओं को पीछे हटने के आदेश दे दिये थे। कुछ भी हो विश्व के सैनिक अभियानों में सीमित साधन होते हुए भी आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की यह चमत्कारिक एवं दिशाबोधक घटना थी।
पुन: विचारणीय है कि आखिर ब्रिटिश इतिहासकारों ने 1944 के इम्फाल-कोहिमा युद्ध को पिछले 368 वर्षों (1645-2013) के काल में उनके द्वारा लड़ा हुआ महानतम युद्ध क्यों कहा? जहां अपार जन धन की हानि के पश्चात भी उसने जापान की निस्वर सेनाओं को वापस लौटने के लिए बाध्य किया था, जिससे युद्ध का सारा स्वरूप बदल गया था, वहां वे इम्फाल-कोहिमा में आजाद हिन्द फौज के लिए भयंकर परिस्थितियों के होते हुए भी भयंकर संघर्ष करते देख विचलित हो गए थे। इन युद्धों में आजाद हिन्द फौज की आधे से अधिक सेना शहीद हो गई थी। इससे ब्रिटिश सेना का आत्मविश्वास हिल गया था। इस युद्ध का एक वैशिष्ट्य यह भी था कि जब ब्रिटिश अथवा जापान विश्व में अपने साम्राज्य के लिए लड़ रहे थे, जबकि आजाद हिन्द फौज के सैनिक जान जोखिम में डालकर भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे। यह वही काल था जब कांग्रेस की ओर से राजगोपालचारी अपने फार्मूले द्वारा जिन्ना को आंशिक रूप से पाकिस्तान को देने को तत्पर थे।
वर्तमान में क्या यह देश का दुर्भाग्य नहीं है कि स्वतंत्र भारत में आजाद हिन्दू फौज के सैनिकों को कोई सम्मान नहीं दिया गया। न पेंशन दी गई और नहीं प्रमाण पत्र। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से निरंतर संकुचित होती भारतीय सीमाओं तथा बार-बार इसके अतिक्रमणों तथा देश की सुरक्षा के लिए ऐसा नहीं लगता कि केन्द्रीय शासन के मंत्रिमंडल में कम से कम दो अनुभवी सेवामुक्त सैनिक अधिकारी होने चाहिए जो नौसिखिए राजनीतिकों की वाक-पटुता के स्थान पर सुरक्षा प्रबंध में अंग्रेजी हो।
क्या भारत सरकार भी अपने देश की युवा पीढ़ी को कोई ऐसा सन्देश देगी जैसा ब्रिटिश सेना अधिकारियों ने कोहिमा में मरने वाले सैनिकों के एक स्मरण लेख में उनकी समाधियों पर दिया- When you go home, tell them of us and say. For your tomorrow, we gave our today.
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