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-सचिन सिंह गौर-
दुनिया यह बात जानती है कि भारत और नेपाल सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों एक हैं। यही कारण है कि भारत नेपाल के सुख-दुख में सदैव उसके साथ रहा। जब तक नेपाल में राजतंत्र रहा ऐसा निर्विवाद रूप से चलता रहा, लेकिन माओवादी सरकार के आने के बाद से ही नेपाल पर चीन का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा है । इसके साथ ही चीन लगातार ऐसी गतिविधियों में लिप्त है जिससे भारत के लिए शंकित होना नितान्त आवश्यक है। आज चीन नेपाल में शिक्षा,आधारभूत ढांचे , व्यापार , भाषा तथा संस्कृति के क्षेत्र में अभूतपूर्व निवेश कर रहा है।
आज नेपाल में चीनी भाषा की कोचिंग देने वाले तमाम संस्थान खुल चुके हैं। चीन सरकार नेपाल के लोगों को मेंडरिन (चीनी )भाषा सीखने के लिए प्रेरित कर रही है,इसके लिए तमाम प्रयास कर रही है। मेंडरिन भाषा के शिक्षाविदों को चीन से नेपाल भेजा जा रहा है तथा काठमांडू में चीनी भाषा व संस्कृति के विकास के लिए कन्फ्यूसिस केन्द्र की स्थापना की गई है। पारम्परिक रूप से नेपाल के संभ्रांत युवा अपनी उच्च शिक्षा के लिए भारत में दिल्ली विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, काशी विश्वविद्यालय में आते रहे हैं। इसी चलन को रोकने के लिए चीन का भरसक प्रयास है स्वयं को एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र के रूप में प्रस्तुत करने का। पिछले कुछ सालों में ना केवल चीनी विश्वविद्यालयों के प्रचार-प्रसार बढे़, हैं बल्कि चीन में नेपाली छात्रों के लिए छात्रवृत्तियां भी बढ़ा दी गई हैं।
चीन ने नेपाल के साथ 2012 में एक समझौता किया है जिसके तहत पश्चिमी सेती में 750 मेगावाट हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट में चीन डलर 1.6 अरब डॉलर निवेश करगेा। यह नेपाल का अब तक का सबसे बड़ा पावर प्रोजेक्ट है। इसके अलावा ऊपरी तमकोशी क्षेत्र में एक चीनी कंपनी 456 मेगावाट हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर काम कर रही है। चीन इससे भी बड़े प्रोजेक्ट्स नेपाल में करना चाहता है और इसके लिए लगातार प्रयासरत है। ऐसा होने पर चीन नेपाल में सबसे ज्यादा निवेश करने वाला देश बन जाएगा,जबकि यह रूतबा अभी तक भारत के पास है। चीन के अधिकारियों का कहना है कि चीन नेपाल को दक्षिण एशिया में प्रवेश करने का सबसे सही केंद्र मानता है। चीन नेपाल में सड़कों का भी तेजी से विस्तार कर रहा है, ताकि सड़क मर्ग से भी सुगमता से व्यापार किया जा सके। 115 किलोमीटर लम्बे अरनिको हाईवे,जो कि काठमांडू को चीन से जोड़ता है, का आधुनिकीकरण़्ा किया जा रहा है। नेपाल के स्यफ्रुबेसी तथा तिब्बत के केरंग के बीच 17 किलोमीटर डर्ट रोड का नवीनीकरण़्ा किया जा रहा है जिसपर लगभग 2 करोड़ डॉलर का खर्च आने की उम्मीद है। इतना ही नहीं सीमा के दूसरी तरफ तिब्बत में हाईवे नम्बर 318 का निर्माण़्ा किया या है जो ल्हासा तक जाता है और और सीधा शंघाई से जुड़ता है। इस तरह चीन शंघाई से काठमांडू तक सड़क मार्ग से जुड़ जाएगा। चीन की आक्रामक मानसिकता और पूर्व इतिहास को देखते हुए ये सभी गतिविधियां भारत के दृष्टिकोण़्ा से कतई संतोषजनक नहीं हैं। जिस तरह और जिस तीव्रता से चीन नेपाल में सड़क निर्माण़्ा पर लगा हुआ है उससे चीन और नेपाल की दूरी और घटेगी ही।
इतना ही नहीं चीनी दूरसंचार कम्पनियां भी नेपाल में अपने पांव पसार रही हैं जो एक अलग चिंता का विषय है। भारतीय सुराक्षा एजेंसियां चिंतित हैं कि चीनी कम्पनियों द्वारा बिछाए नेटवर्क से भारत और नेपाल के बीच होने वाली सभी टेलीफोन कॉलों को और वार्ताओं को बाधित किया जा सकता है और उनका निरीक्षण भी किया जा सकता है। सही मायनों में अब हिमालय चीन और नेपाल के बीच कोई बाधा नहीं है। चीन ने वृहद् रूप से अपनी गतिविधियों का नेपाल में विस्तार किया है जिसमंे नेपाल की माओवादी सरकार ने उसका खुलकर साथ दिया है। चीन के नेपाल में कई हित एक साथ सधते हैं। एक तरफ जहां वह तिब्बत के शरणार्थियों और प्रदर्शनकारियों को नेपाल जाने से रोक सकता है, उन्हें पकड़ा सकता है, वहीं भारत को भी निशाने पर रख सकता है। चीन एक खतरे के रूप में भारत के सर पर मंडरा रहा है और वर्तमान सरकार इस खतरे से निबटने के लिए उदासीन नजर आती है। आज भारत को एक सख्त नेतृत्व की जरूरत है।
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