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-प्रमोद मजूमदार-
भारत आज आंतरिक और बाह्य संकटों से घिरा हुआ दिखायी देता है। बंगलादेशी घुसपैठ, अरुणाचल की सीमापार चीनी सैनिकों की घुसपैठ, कश्मीर घाटी और पाकिस्तान से भारतीय सीमा क्षेत्र में आतंकवादियों की घुसपैठ व बढ़ती आतंकवादी घटनाओं के अतिरिक्त नेपाल के पशुपतिनाथ से आंध्र प्रदेश के तिरुपति तक नक्सली आंदोलन और हिंसक गतिवधियों में वृद्धि होने के समाचार भी मिल रहे हैं, साथ ही देश के भीतर भी राज्यों के बीच अंदरूनी झगड़ों की संख्या में कोई कमी नहीं देखी जा रही है। कुल मिलाकर देखें तो अंदरूनी सुरक्षा का व्यापक मसला राष्ट्र के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। आंतरिक समस्याएं तो निश्चित रूप से गंभीर स्वरूप धारण किये हुए हैं और इनमें मुख्यत: नक्सलवाद ज्यादा गंभीर बना हुआ है। इसे केवल क्षेत्रीय अथवा किसी विशेष राज्य तक सीमित नहीं कहा जा सकता, बल्कि दिनों-दिन नक्सली गतिविधियों में तेजी से वृद्धि होने के कारण देश के अंदर एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
पश्चिम बंगाल से इसकी शुरुआत 1960 के दशक में हुई। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सस्टि के एक गुट ने किसानों के ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, तब से इसे एक क्रांति के रूप में देखा जाता है। कुछ लोग इसे आंदोलन भी मानते हैं। नक्सली आंदोलन का नेतृत्व मार्क्सवादी नेता चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने किया था। संसदीय राजनीति के प्रबल समर्थक सीपीएम ने बगावत का कभी समर्थन नहीं किया और उस समय अपने को बागी मानने वालों ने सीपीएम से अलग होकर नक्सली आंदोलन शुरू किया और इनका मूल आधार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दिवंगत नेता माओ के सिद्धांत पर आधारित था जिसका प्रभाव और प्रसार पश्चिम बंगाल और केरल प्रांत में ज्यादा देखने को मिलता है।
नक्सली आंदोलन पर बारीक नजर रखने वाले तथा इस आंदोलन का गहराई से अध्ययन करने वाले शोधकर्त्ताओं के अनुसार तत्कालीन भारतीय सत्ताधारियों ने नक्सली बागियों के साथ बड़ा कठोर रवैया अपनाया और सख्ती बरती एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद अगले वर्ष 1972 में नक्सली आंदोलन को कुचल डाला था। आंदोलन के नेताओं को सुरक्षा बलों के साथ फर्जी मुठभेड़ में गिरफ्तार कर लिया जिसमें कुछ तो मारे गये जिसके परिणामस्वरूप नक्सली आंदोलन कई गुटों में टूट गया और जो सुरक्षित बच गये थे उन्होंने जंगलों में शरण ले ली। वहां वनवासियों के साथ उन्होंने दोबारा कार्य शुरू किया। वर्ष 1980 के प्रारंभ में नक्सली गुटों ने आंध्र प्रदेश में पीपल्स वार ग्रुप पीडब्ल्यूजी के नाम से काम करना शुरू कर दिया। शोधकर्त्ताओं का मानना है कि इन नक्सलियों को श्रीलंका के लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम लिट्टे ने हथियारों का प्रशिक्षण दिया और घात लगाकर हमला करने के गुर सिखाये। आंध्र प्रदेश के बाद नक्सलियों के अलग-अलग गुट माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के तहत सक्रिय हो गये और वर्तमान में भारत के 40 प्रतिशत भूमिक्षेत्र में सक्रिय हैं। छत्तीसगढ़, ओडिसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में नक्सलियों की जड़ें काफी गहरी हो चुकी हैं।
यद्यपि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने नक्सली हिंसा से निपटने के लिए केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल सीआरपीएफ और सीमा सुरक्षा बल बीएसएफ को विशेष प्रशिक्षण भी दिया गया, लेकिन अपेक्षा के अनुसार नक्सली हिंसा पर नियंत्रण होने के बजाय इनके साथ संघर्ष ज्यादा ही तेज हो गया। ऐसी भी सूचना मिली है कि पड़ोसी नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी से भी आधुनिक हथियारों की आपूर्ति प्राप्त होती है। अब इन आंदोलनकारियों ने अपना विस्तार जंगलों में वनवासियों के अलावा शहरी क्षेत्रों के मध्यम वर्गों के बीच किया है और अपना नेटवर्क नयी दिल्ली, कोलकाता,मुम्बई, पुणे, बेंगलुरू आदि जैसे महानगरों में बनाया है, जहां कुछ लोगों का अच्छा खासा समर्थन नक्सलियों को मिल रहा है।
नक्सली आंदोलन और उसके बढ़ते प्रभाव पर नियंत्रण पाने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार और नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर अनेक उपाय किये हैं और रणनीति बनायी है, किंतु केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच पर्याप्त तालमेल और समन्वय के अभाव के कारण काबू पाने की रणनीति सफल होती नहीं दिखायी देती। यह बात साफ देखने को मिलती है कि माओवादी विचारों से प्रभावित नक्सली कभी भारत समर्थक नहीं हो सकते और हमेशा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त पाये जाते हैं। यही कारण है कि इन नक्सलियों को वामपंथी सरकारें खासकर पूर्ववर्ती पश्चिम बंगाल सरकार का भारी समर्थन मिलता रहा है। इस आंदोलन के विस्तार में वामपंथी सरकारों की सक्रिय भूमिका रही है, यह बात कभी किसी से छिपी नहीं है। यह भी साफ दिखता है कि जहां- जहां वामपंथी सरकार और उनके पुरोगामी बुद्धिजीवी गुट हैं इन नक्सलियों की हर तरह से सहायता करते हैं और वहां सरकारी प्रशासन विशेषकर पुलिस के साथ गहरी सांठ-गांठ भी है।
सेना में वरिष्ठ सेना अधिकारी रह चुके अवकाश प्राप्त मेजर जनरल ध्रुव कटोच के अनुसार नक्सलियों से लड़ने के लिए सिद्धांतों का जवाब बंदूक की गोली से नहीं दिया जा सकता। सिद्धांतों का जवाब सिद्धांत से ही दिया जा सकता है, उनका कहना है कि संविधान और उसके प्रावधानों का कारगर और प्रभावी ढंग से एवं सख्ती के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सीआरपीएफ जैसी सुरक्षा व्यवस्था से नक्सली हिंसा की घटनाओं से निपटा नहीं जा सकता। वहीं दूसरी ओर भारतीय पुलिस सेवा से अवकाश प्राप्त वरिष्ठ अधिकारी प्रकाश सिंह का मानना है कि माओवाद की समस्या से निपटने के लिए केन्द्र सरकार के स्तर पर कोई ठोस राष्ट्रीय नीति नहीं है। नक्सली आंदोलन एवं समस्या वर्तमान में किसी एक राज्य विशेष तक सीमित न होकर उसके बढ़ते विस्तार और प्रभाव को ध्यान में रखते हुए केन्द्र और राज्यों के साथ आपसी समझ से एक व्यापक राष्ट्रीय नीति बनाने की आज ज्यादा आवश्यकता है। उनका यह भी मानना है कि नक्सलवाद की जड़ें मूलत: हमारे अंदर ही हैं, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आपसी सहयोग और समन्वय एवं प्रबल इच्छाशक्ति के अभाव के कारण इसका समाधान उचित तरीके से नहीं हो रहा है। उनका यह भी आकलन है कि नक्सली नेताओं का इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ संबंध और सम्पर्क गहरे और घनिष्ठ बनते जा रहे हैं, जो गंभीर चिंता का विषय है खास बात यह है कि सरकार के गुप्तचर विभाग को इसकी पूरी जानकारी भी है।
एक वर्ग विशेष अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टीकरण और वोटों की राजनीति के चलते केन्द्र की कांग्रेसी सरकार नक्सली हिंसक गतिविधियों से सख्ती से निपटने में पूरी तरह से विफल रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों की समस्याओं से निपटने के लिए मंत्री समूह गुट भी गठित किया है, लेकिन कोई उसका ठोस नतीजा सामने नहीं दिखायी देता और जहां कांग्रेस शासित राज्य हैं, जैसे आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के लिए सब प्रकार सहायता एवं सहयोग उपलब्ध हो जाता है तो वहीं भाजपा शासित राज्य छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सरकार बीजू जनता दल की ओडिसा सरकार बिहार में जनता दल (यू) की सरकार के साथ अलग अलग रवैया और अपेक्षित सहयोग और सहायता के बारे में भेदभावपूर्ण नीति स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। परिणामस्वरूप सरकारी प्रश्रय का सहारा लेते हुए नक्सली सुरक्षित और सक्रिय बने रहते हैं। यहां यह ध्यान देने लायक बात है कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के संदर्भ में दायर शपथ पत्र में कहा है कि माओवादी सिद्धांत और उसके शुभचिंतक सीपीआई माओवादी कार्यकर्त्ताओं से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि वे नक्सली आंदोलन को जीवित रखने हेतु सभी प्रकार से प्रयत्नशील होते हैं। इसके लिए नक्सलियों ने सरकारों के खिलाफ सुनियोजित ढंग से शहरों और नगरों में प्रचार अभियान शुरू कर दिया है। नक्सली हिंसा जारी रहने से वर्ष 2001 से अब तक 8100 से ज्यादा लोग और पुलिसकर्मी मारे गये हैं। इसी अवधि के दौरान 2147 सुरक्षाकर्मी हिंसा में शहीद हुए साथ ही साथ नक्सलियों ने 3567 हथियार भी लूट लिये हैं।
केन्द्र और राज्य सरकार व सुरक्षाबलों के सहारे अपने स्तर पर जो भी प्रयास किए जा रहे हैं वह अधूरे हैं और इसके अतिरिक्त अन्य स्तर पर भी सक्रिय प्रयासों का अभाव उनकी कमी देखने को मिलती हैं। विकास का लाभ वनवासियों तक पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुंचता और प्राय: ऐसी भी शिकायतें सुनने को मिलती है कि पुलिस और सुरक्षाकर्मी नक्सल प्रभावित इलाकों में पीडि़त गरीब वनवासियों की सुरक्षा और सहायता करने की अपेक्षा उन्हें बुरी तरह से प्रताडि़त भी करती है और झूठे मामलों में फंसाती है एवं कुछ स्थानों पर तो वनवासी क्षेत्रों में महिलाओं के साथ पर बलात्कार और अन्य शारीरिक यातनाएं होने की घटनाएं भी उजागर हुई हैं। इसी कारण वनवासी लोग पुलिस और सुरक्षाकर्मियों पर ज्यादा विश्वास नहीं करते और ऐसी स्थिति में वनवासी लोग बेसहारा ही रह जाते हैं। हिंसक घटनाओं में वनवासियों के सांस्कृतिक आस्था एवं विश्वास के प्रतीकों को बुरी तरह से अपमानित किया जाता है।
जहां वनवासियों की सुरक्षा की बात है, वहां सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त सामाजिक और स्वैच्छिक संस्था एवं संगठनों की उपयोगिता की अनदेखी नहीं की जा सकती। बस्तर जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वनवासी कल्याण आश्रम, रामकृष्ण मिशन अथवा महाराष्ट्र में गड़चिरोली जैसे सुदूर वनवासी बहुल क्षेत्रों में समाजसेवी बाबा आमटे और समस्त आमटे परिवार के साथ ही डॉ. अभय बंग और परिवार स्वास्थ्य चिकित्सा और शिक्षा क्षेत्रों में विभिन्न सामाजिक सेवा कार्यों के माध्यम से स्थानीय लोगों में मनोबल को ऊंचा रखने का कार्य अनवरत चला रहा है। ऐसे सामाजिक संस्थाओं के सक्रिय सहयोग का लाभ उठाते हुए नक्सली हिंसा के विरोध में जनजागृति और शिक्षा विस्तार की आवश्यकता है। इस तरह की गतिविधियां ज्यादा बढ़ने से नक्सली हिंसा की रोकथाम के लिए कुछ सकारात्मक पहल तो निश्चित ही उपयोगी साबित हो सकती है। अर्थात् इससे जंगलों में रह रहे वनवासियों की मानसिकता बदलने के प्रयासों में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है और यह उम्मीद और विश्वास किया जा सकता है कि इसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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