अलग आस्था और मतभिन्नता के लिए कोई जगह ना रखने वाली उन्मादी सोच जहां से शुरू होती है वहीं मानवता की हानि प्रारंभ हो जाती है। जिन्हें कथन की सत्यता पर संदेह हो उनके लिए बंगलादेश आम चुनाव के बाद अखबारों की खबरें गौर करने लायक हैं। 5 जनवरी को हुए आम चुनावों के बाद से वहां मजहबी पागलपन की लपटों में मानवता झुलस रही है। हिन्दू अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं। राजशाही, जेसोर, देबीगंज, मोईदनारहाट, शांतिपुर, प्रोधनपारा, आलमनगर,  दिनाजपुर... जगह-जगह हिंदुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा है। शेख हसीना की अगुआई में अवामी लीग पार्टी की जीत के बाद से कट्टरपंथी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी के समर्थक और जमायते इस्लामी के गुर्गों का यह खूनी खेल बेधड़क चला और सत्तापक्ष मानो हाथ पर हाथ धरे बैठा था। इस दौरान सौ से ज्यादा अल्पसंख्यक परिवारों को अपना घर छोड़ना पड़ा और दो सौ से ज्यादा हिंदुओं की हत्या हुई। खबरें जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक पहुंचीं तो खुद देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि सरकार देश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हमले और उनकी हत्याएं रोकने का उपाय करे। हिंदुओं को निशाना बनाए जाने की घटनाओं के मामले में बंगलादेश ताजा उदाहरण है परंतु इकलौता नहीं। पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में एक ओर हिंदू धर्म की छाप मिटाने का काम चल रहा है तो दूसरी ओर भारत में घुसपैठियों को बैठाने-बसाने का कुचक्र। भारत में तुष्टीकरण की राजनीति सीमित क्षेत्र में उदार और भली तो दिखती है परंतु अंतत: उसी उन्माद को पोसने का काम कर रही है जिससे पूरी दुनिया त्रस्त है। बंगलादेश के इस नरसंहार ने लोगों को झकझोरा है और भारत-बंगलादेश की सरकारों की संवेदनशून्यता पर सवाल भी खड़े किए हैं किंतु आज यह प्रश्न सिर्फ भारत और इसके भूगोल तक सीमित नहीं रहा। पूरी दुनिया में एक ओर हिंसा की लपटें हैं दूसरी ओर मजहबी उन्माद की अंतर्कथा बताते पन्ने। सही को बढ़ाना और गलत पर चोट आज वैश्विक जरूरत है। आस्था का मूल्यांकन यदि दुनियाभर में मानवता के पैमाने पर हो तो इसमें गलत क्या है? आस्था आवश्यक है। उचित-अनुचित का अंतर बताने, जीव और जीवन को संतुलित सौहार्दपूर्ण दृष्टि देने के लिए अति आवश्यक। परंतु सृष्टि की विविधता को नकारने वाली, सबको जबरन एक राह पर हांकने के लिए चाबुक बरसाती सोच आस्था नहीं उन्माद है। यदि इस पागलपन में सत्ता और शक्ति पाने का जुनून भी शामिल हो जाए तो सीधी सहिष्णु जनता के लिए परिणाम कैसे विनाशकारी होते हैं, बंगलादेश से पाकिस्तान तक हम देख रहे हैं। दुनिया भर में आज एक सवाल उठ रहा है कि यदि कोई मजहब अमन का ह्यपैगामह्ण कहा जाता है तो इस अमन का पैमाना क्या है और इससे किसे कितनी शांति मिली है? यदि मानवता पर अत्याचार ही अमन का प्रसार है तो क्या दुनिया को एक दिन इस पागलपन से तौबा नहीं करनी होगी? कड़वी सचाई ये है कि फिरकों में बंटी मजहबी विरासत के पाट दुनियाभर में एक दूसरे को तो रगड़ ही रहे हैं, जहां मौका लगे अल्पसंख्यकों को बुरी तरह पीस रहे हैं। दक्षिण एशिया के विशेष संदर्भ में कहा जाए तो कट्टरपंथ के इस उन्मादी फैलाव ने विश्व की सबसे पुरानी और सहिष्णु सभ्यता को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है। पूरे भारतीय महाद्वीप में शांति और वैश्विक सौहार्द की छाप मिटाने का जो काम अमनपसंद मजहब के फैलाव के साथ हुआ उससे मानवता ही सबसे ज्यादा आहत हुई है। धर्म गुरुओं के शीश काटते, बच्चों को दीवारों में चुनते मजहबी पागलपन का जो कबायली चेहरा सत्रहवीं शताब्दी में दिखता था बामियान के बुद्ध में शत्रु देखती वही पाषाण बुद्धि इक्कीसवीं सदी में भी है और अल्पसंख्यकों में शिकार तलाशते बंगलादेश के कसाई भी उसी मध्ययुगीन सोच से बंधे हैं। हिन्दू संस्कृति में धर्म व्यक्ति और संपूर्ण समाज की समझ बढ़ाता है, उसे किसी खूंटे से नहीं बांधता बल्कि समस्त बंधन खोलता है। शांति क्या है, इसका ठिकाना क्या हो सकता है? रंग-बिरंगे फूलों से भरा उपवन या रक्तरंजित लाशों के ढेर पर पसरा डरावना सन्नाटा। हिन्दू धर्म ने इस प्रश्न का उत्तर तलवार के बल पर दुनिया को रौंदते हुए नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर झांकते हुए तलाशा है। आज दुनिया को मानवता के लिए सही राह तलाशनी है। आज दुनिया के लिए हिन्दू धर्म की व्याख्याओं में उतरने का वक्त है।
July 15, 2025
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अलग आस्था और मतभिन्नता के लिए कोई जगह ना रखने वाली उन्मादी सोच जहां से शुरू होती है वहीं मानवता की हानि प्रारंभ हो जाती है। जिन्हें कथन की सत्यता पर संदेह हो उनके लिए बंगलादेश आम चुनाव के बाद अखबारों की खबरें गौर करने लायक हैं। 5 जनवरी को हुए आम चुनावों के बाद से वहां मजहबी पागलपन की लपटों में मानवता झुलस रही है। हिन्दू अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं। राजशाही, जेसोर, देबीगंज, मोईदनारहाट, शांतिपुर, प्रोधनपारा, आलमनगर,  दिनाजपुर… जगह-जगह हिंदुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा है। शेख हसीना की अगुआई में अवामी लीग पार्टी की जीत के बाद से कट्टरपंथी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी के समर्थक और जमायते इस्लामी के गुर्गों का यह खूनी खेल बेधड़क चला और सत्तापक्ष मानो हाथ पर हाथ धरे बैठा था। इस दौरान सौ से ज्यादा अल्पसंख्यक परिवारों को अपना घर छोड़ना पड़ा और दो सौ से ज्यादा हिंदुओं की हत्या हुई। खबरें जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक पहुंचीं तो खुद देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि सरकार देश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हमले और उनकी हत्याएं रोकने का उपाय करे। हिंदुओं को निशाना बनाए जाने की घटनाओं के मामले में बंगलादेश ताजा उदाहरण है परंतु इकलौता नहीं। पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में एक ओर हिंदू धर्म की छाप मिटाने का काम चल रहा है तो दूसरी ओर भारत में घुसपैठियों को बैठाने-बसाने का कुचक्र। भारत में तुष्टीकरण की राजनीति सीमित क्षेत्र में उदार और भली तो दिखती है परंतु अंतत: उसी उन्माद को पोसने का काम कर रही है जिससे पूरी दुनिया त्रस्त है। बंगलादेश के इस नरसंहार ने लोगों को झकझोरा है और भारत-बंगलादेश की सरकारों की संवेदनशून्यता पर सवाल भी खड़े किए हैं किंतु आज यह प्रश्न सिर्फ भारत और इसके भूगोल तक सीमित नहीं रहा। पूरी दुनिया में एक ओर हिंसा की लपटें हैं दूसरी ओर मजहबी उन्माद की अंतर्कथा बताते पन्ने। सही को बढ़ाना और गलत पर चोट आज वैश्विक जरूरत है। आस्था का मूल्यांकन यदि दुनियाभर में मानवता के पैमाने पर हो तो इसमें गलत क्या है? आस्था आवश्यक है। उचित-अनुचित का अंतर बताने, जीव और जीवन को संतुलित सौहार्दपूर्ण दृष्टि देने के लिए अति आवश्यक। परंतु सृष्टि की विविधता को नकारने वाली, सबको जबरन एक राह पर हांकने के लिए चाबुक बरसाती सोच आस्था नहीं उन्माद है। यदि इस पागलपन में सत्ता और शक्ति पाने का जुनून भी शामिल हो जाए तो सीधी सहिष्णु जनता के लिए परिणाम कैसे विनाशकारी होते हैं, बंगलादेश से पाकिस्तान तक हम देख रहे हैं। दुनिया भर में आज एक सवाल उठ रहा है कि यदि कोई मजहब अमन का ह्यपैगामह्ण कहा जाता है तो इस अमन का पैमाना क्या है और इससे किसे कितनी शांति मिली है? यदि मानवता पर अत्याचार ही अमन का प्रसार है तो क्या दुनिया को एक दिन इस पागलपन से तौबा नहीं करनी होगी? कड़वी सचाई ये है कि फिरकों में बंटी मजहबी विरासत के पाट दुनियाभर में एक दूसरे को तो रगड़ ही रहे हैं, जहां मौका लगे अल्पसंख्यकों को बुरी तरह पीस रहे हैं। दक्षिण एशिया के विशेष संदर्भ में कहा जाए तो कट्टरपंथ के इस उन्मादी फैलाव ने विश्व की सबसे पुरानी और सहिष्णु सभ्यता को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है। पूरे भारतीय महाद्वीप में शांति और वैश्विक सौहार्द की छाप मिटाने का जो काम अमनपसंद मजहब के फैलाव के साथ हुआ उससे मानवता ही सबसे ज्यादा आहत हुई है। धर्म गुरुओं के शीश काटते, बच्चों को दीवारों में चुनते मजहबी पागलपन का जो कबायली चेहरा सत्रहवीं शताब्दी में दिखता था बामियान के बुद्ध में शत्रु देखती वही पाषाण बुद्धि इक्कीसवीं सदी में भी है और अल्पसंख्यकों में शिकार तलाशते बंगलादेश के कसाई भी उसी मध्ययुगीन सोच से बंधे हैं। हिन्दू संस्कृति में धर्म व्यक्ति और संपूर्ण समाज की समझ बढ़ाता है, उसे किसी खूंटे से नहीं बांधता बल्कि समस्त बंधन खोलता है। शांति क्या है, इसका ठिकाना क्या हो सकता है? रंग-बिरंगे फूलों से भरा उपवन या रक्तरंजित लाशों के ढेर पर पसरा डरावना सन्नाटा। हिन्दू धर्म ने इस प्रश्न का उत्तर तलवार के बल पर दुनिया को रौंदते हुए नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर झांकते हुए तलाशा है। आज दुनिया को मानवता के लिए सही राह तलाशनी है। आज दुनिया के लिए हिन्दू धर्म की व्याख्याओं में उतरने का वक्त है।

by
Jan 18, 2014, 12:00 am IST
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सम्पादकीय : मजहबी पागलपन

दिंनाक: 18 Jan 2014 14:17:38

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