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4 जुलाई, 1971 को प्रकाशित आलेख
-देवेन्द्र स्वरूप-
15 दिसम्बर 2013 के अंक में ह्यपटेल निन्दा में जुटे नूरानीह्ण शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें बताया गया था कि देश के कुछ बुद्धिजीवी यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि नेहरू और पटेल के बीच कोई मतभेद नहीं था। प्रस्तुत लेख में यह बताया गया है कि नेहरू पर शेख अब्दुल्ला का जादू इस कदर हावी था कि वे उनकी करतूतों की अनदेखी करते रहे।
इसी महीने एक नयी पुस्तक बाजार में आयी है जिसका नाम है ह्यकश्मीर -माई ईयर विद नेहरूह्ण, (प्रकाशक एलाइड पब्लिशर्स, दिल्ली) लेखक हैं श्री बी.एन.मलिक। श्री मलिक 1948 में केन्द्रीय गुप्तचर विभाग के निदेशक थे और आंतरिक मामलों की देखभाल करते थे। 1950 से 1965 तक वे केन्द्रीय गुप्तचर विभाग के निदेशक पद पर कार्य करते रहे। वे प्रधानमंत्री श्री नेहरू के बड़े विश्वासपात्र थे और उनके निर्देशानुसार प्रत्येक महत्वपूर्ण समस्या को हल करने के लिए उन्हें गुप्त मिशन पर भेजा जाता रहा। यथा, 1948 में कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के पश्चात उन्हेंं कश्मीर की स्थिति की रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजा गया। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के पश्चात उत्पन्न स्थिति का मूल्यांकन करने का दायित्व भी उन्हें सौंपा गया। 1962 में चीनी आक्रमण के समय भी केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की कमान उन्हीं के हाथों में थी। दिसम्बर 1963 में श्रीनगर की हजरतबल मस्जिद से गायब किए मो.मुकद्दस (पवित्र वाले) को वापस लाने का दायित्व भी उन्हीं के कंधों पर आ पड़ा था।
नेहरू युग का महत्वपूर्ण दस्तावेज
प्रत्येक संकटपूर्ण अवसर एवं घड़ी में उनकी प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन नेताओं से इतनी खुलकर बात हुई पर वह कभी प्रकाश में नहीं आयी। सरकार के गुप्त दस्तावेज उनकी नजरों से गुजरे अथवा उनके द्वारा तैयार किए गए। निदेशक पद से अवकाश ग्रहण होने के पश्चात उन्होंने नेहरू जी के साथ मेरे वर्ष (माई ईयर्स विद नेहरू) शीर्षक से तीन पुस्तकों की एक सिरीज लिखना आरंभ की है। प्रथम खंड में चीनी आक्रमण की पृष्ठभूमि में भारत सरकार की आंतरिक गतिविधियों का वर्णन है तो दूसरे खंड में मुख्यत: कश्मीर समस्या की अन्तर्कथा दी गयी है। स्वाभाविक ही ये दोनों पुस्तकें ऐसे अनेक तथ्यों को जनता के समक्ष लाती हैं जिनसे वह अब तक अनभिज्ञ थी। पुस्तक की सामग्री की प्रामाणिकता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि लेखक के कथनानुसार उसे ये पुस्तक लिखने की प्रेरणा 1968 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री यशवंत राव चव्हाण ने दी थी। पुस्तक में प्रस्तुत तथ्यों की प्रामाणिकता की और पुष्टि करते हुए लेखक ने सूचित किया है कि पुस्तक की पाण्डुलिपि को उनके भूतपूर्व सहयोगी सरदार बलवीर सिंह ने, जिनके जिम्मे विशेष रूप से कश्मीर समस्या थी, पूरी तरह देख लिया था। कश्मीर षड्यंत्र केस का भार संभालने वाले श्री एम.एस.नंदा ने भी उसे दोहराया एवं भूतपूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री श्री ए.के.सेन ने भी इसे गौर से पढ़ लिया था और इन तीनों ही जानकार व्यक्तियों के द्वारा सुझाए गए परिवर्तनों को भी पुस्तक में सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार इस पुस्तक को केन्द्रीय सरकार के चार वरिष्ठतम एवं उत्तरदायी अधिकारियों की प्रत्यक्ष जानकारी का निचोड़ कहा जा सकता है और यह नेहरू युग के भावी इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह पुस्तक इस बात की भी अति कष्टदायक साक्षी प्रस्तुत करती है कि जिस समय देश की सामान्य जनता नेहरू जी के नाटकीय व्यक्तित्व, उनके कुशल अभिनय एवं सरकारी प्रचार से भ्रमित होकर उनकी जय जयकार करने में जुटी हुई थी उस समय श्री मलिक जैसे वरिष्ठ अधिकारी जिन्हें नेहरू जी द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं से प्रत्यक्ष जूझना पड़ रहा था, मन ही मन कैसी घुटन अनुभव कर रहे थे और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि काश भारत के भाग्य सूत्र नेहरू जी की जगह सरदार पटेल के हाथों में होता, काश विधाता ने सरदार को कुछ वर्षों का जीवन और दिया होता। शेख अब्दुल्ला के प्रति नेहरू जी के अंधे मोह एवं सरदार पटेल की यथार्थ भेदिनी दृष्टि का विवेचन कर लेखक ने पाञ्चजन्य द्वारा बार-बार दोहराए गए इस दुर्भाग्यपूर्ण आरोप को पुष्ट कर दिया है कि ह्यनेहरू वंश की छत्रछाया में देशभक्ति अपमानित हुई है-देशद्रोह का पोषण हुआ है।ह्ण (27 जून, 1971 सम्पादकीय लेख)।
पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के प्रति अपने व्यक्तिगत लगाव के कारण महाराजा, कश्मीर के विलय प्रस्ताव को तब तक स्वीकार करने से इनकार कर दिया था जब तक वे शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहाकर राज्य के शासन तंत्र को न सौंप दे यह कथन सर्वविदित है। श्री मलिक ने इससे आगे की घटनाओं का ब्योरा देते हुए लिखा है कि पं.नेहरू के निर्देश पर उन्हें पाकिस्तानी आक्रमण एवं शेख अब्दुल्ला की रिहाई के बाद की कश्मीर स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए भेजा गया। श्री मलिक ने दिल्ली लौट कर एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें शेख अब्दुल्ला की भारत भक्ति एवं धर्मनिरपेक्ष आस्था का स्तुतिगान किया गया था। यह रिपोर्ट उन्होंने गुप्तचर विभाग के निर्देशक को दी। उन्होंने गृह सचिव श्री एच.बी.आर.अयंगर को भेज दी। गृह सचिव को यह रिपोर्ट पंडित नेहरू की धारणाओं से बिल्कुल अनुरूप थी, अत: उन्हें पूर्णतया निष्पक्ष और सही लगी। उन्होंने इस रिपोर्ट की प्रतियां विदेशों में स्थित समस्त भारतीय दूतावासों और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि के पास भेज दी ताकि उस रिपोर्ट के आधार पर वे भी कश्मीर और शेख अब्दुल्ला के बारे में अपनी धारणाएं बना सकें।
श्री मलिक ने लिखा है सरदार पटेल अप्रसन्न थे। यह रिपोर्ट कश्मीर-विशेषकर शेख अब्दुल्ला के बारे में उनके मूल्यांकन के विरुद्ध जाती थी। उन्हें संदेह था कि शेख प्रामाणिक आदमी नहीं है और वह पं.नेहरू को गुमराह कर रहा है। इस रिपोर्ट का इतना व्यापक प्रचार भी उन्हें पसंद नहीं था। रिपोर्ट पेश करने के कुछ दिन बाद ही गृह सचिव ने मुझे सूचित किया था कि सरदार मेरे मूल्यांकन से सहमत नहीं हैं और उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी है कि उनसे पहले परामर्श लिए बिना ही यह रिपोर्ट पेश कर दी गयी। गृह सचिव ने ही मुझे यह भी बताया कि पं.नेहरू ने इस रिपोर्ट पर अपनी सम्मति की मुहर लगाकर उसकी प्रतियां विदेश स्थित भारतीय दूतावासों को भेज दी है। यह सब सुनकर मैं घबरा गया और मुझे भय लगा कि सरदार के नाराज रहते अब मेरा गुप्तचर विभाग में टिकना संभव न हो सकेगा।
ह्यअगले दिन सरदार ने मुझे बुला भेजा। वे अस्वस्थ थे और अपने बिस्तरे पर बैठे हुए थे। उन्होंने कुछ देर तक नि:शब्द मेरी ओर देखा। फिर उन्होंने मुझसे पूछा क्या, यह रिपोर्ट तुमने ही तैयार की है? उसकी एक प्रति उनके हाथों में थी। मैंने हां में उत्तर दिया। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने उनसे परामर्श किए बिना इसकी प्रति जवाहर लाल के पास क्यों भेजी? मैंने उत्तर दिया कि मैंने तो रिपोर्ट अपने डायरेक्टर को दी थी। इस पर सरदार ने पूछा क क्या तुम्हें यह पता है कि जवाहर लाल ने इस रिपोर्ट की प्रतियां विदेश स्थित समस्त भारतीय दूतावासों को भेजी है? उन्होंने इस पर मेरी प्रतिक्रिया मांगी। मैंने कहा कि मुझे कल ही गृह सचिव से यह जानकारी मिली और मुझे यह सुनकर बहुत प्रसन्नता हुई कि प्रधानमंत्री को मेरी रिपोर्ट इतनी पसंद आयी कि उन्होंने उसे विदेश स्थित हमारे समस्त राजदूतों में घुमाना उचित समझा।'
तब सरदार ने कहा कि वे कश्मीर की स्थिति के बारे में विशेषकर शेख अब्दुल्ला के बारे में मेरे निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। मैंने कहा कि मैंने कश्मीर की स्थिति की पृष्ठभूमि के बारे में पुराने दस्तावेजों एवं कश्मीर तथा अन्य लोगों से प्रत्यक्ष भेंट के द्वारा पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस तैयारी के बाद ही मैं खुला मस्तिष्क लेकर कश्मीर गया था। वहां मैं अनेक स्थानों पर गया, अधिकांश नेताओं सहित अनेक लोगों से मिला। और इस सबके उपरांत जो मेरी परिपक्व धारणाएं बनीं, उन्हीं को मैंने अपनी रिपोर्ट में व्यक्त किया। मुझे यह पता नहीं था कि आपकी धारणाएं कुछ भिन्न हैं। यदि होता तो भी मैं अपनी रिपोर्ट में कांट छांट नहीं करता। न ही मैं प्रधानमंत्री की प्रसन्नता के लिए ऐसा करने को तैयार होता। यहां मैंने सरदार को ऐसे अनेक अवसर गिनाए जब प्रधानमंत्री ने हमारी रिपोर्ट पर आपत्ति की थी क्योंकि ये उनकी धारणाओं के प्रतिकूल जाती थीं। किंतु इसके बावजूद तथ्यों को जैसा हमने उन्हें देखा था्र, वैसा ही प्रस्तुत करने के अपने कर्तव्य से पीछे हम नहीं हटे..।
शेख का असली चेहरा
ह्यअब सरदार ने शेख अब्दुल्ला के बारे में अपनी धारणाओं को व्यक्त किया। उन्हें आशंका थी कि शेख अब्दुल्ला अन्ततोगत्वा भारत और जवाहरलाल नेहरू को नीचा दिखाएगा। और अपने असली रंग में प्रगट होगा। महाराजा का विरोध वह इसलिए नहीं करता कि वे शासक हैं, अपितु उसका विरोध समस्त डोगराओं के प्रति है और डोगराओं को यह भारत के शेष बहुसंख्यक समाज (अर्थात् हिन्दुओं) से अलग नहीं समझता।'
शेख को मैं पहचानता हूं
धीमे किंतु दृढ़तापूर्ण स्वर में उन्होंने मुझसे कहा कि शेख अब्दुल्ला का मेरा (श्री मलिक का) मूल्यांकन गलत है, यद्यपि विलय के बारे में कश्मीर घाटी के जनमत का मूल्यांकन शायद सही हो। मेरे मूल्यांकन में जो भूल थी उसकी ओर इंगित करने के पश्चात सरदार ने उदारतापूर्वक कहा वे मेरी इस बात को स्वीकार करते हैं कि गुप्तचर विभाग को सरकार के समक्ष अपना स्वतंत्र मूल्यांकन प्रस्तुत करना चाहिए और विशिष्ट नेताओं के पूर्व विदित धारणाओं के अनुरूप उन्हें तोड़ा मरोड़ा नहीं जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मुझे (मलिक को) शीघ्र ही शेख के बारे में अपनी भूल का पता चल जाएगा। साथ ही उन्होंने मुझे रिपोर्ट की लेखनशैली एवं उसकी तैयारी में लगे परिश्रम के लिए बधाई दी। यही सरदार की महानता थी। मेरे विचारों से असहमत होते हुए भी उन्हें व्यक्त करने को मेरे अधिकार को उन्होंने मान्यता दी। यहां हमारी भेंट वार्ता समाप्त हो गयी। मुझे मेरे पद से मुक्त नहीं किया गया। मैं गुप्तचर विभाग में बना रहा और बाद में सरदार ने ही मुझे लगभग 30 वरिष्ठ सहयोगियों को लांघकर गुप्तचर विभाग का निदेशक पद सौंप दिया।
आखिर सरदार ही सही निकले
ह्यउस दिन जब मैं अपने दफ्तर वापस लौटा तो मेरे मस्तिष्क में बार-बार यही विचार घूमता रहा कि क्या सचमुच मैंने कश्मीर की स्थिति का मूल्यांकन करने में कोई भूल की है? क्या सरदार ने जो कुछ कहा है वही ठीक है? बाद के घटनाक्रम ने सिद्ध कर दिया कि सरदार ही सही थे और मैं गलत था। तीन वर्ष के भीतर ही हमने स्वयं को शेख अब्दुल्ला के विरुद्ध जूझते पाया। तब तक सरदार दिवंगत हो चुके थे। मैं अनुभव करता हूं कि यदि कश्मीर समस्या से संबंधित सभी लोगों ने कश्मीर की विशेष कठिनाइयों को इतना स्पष्ट समझ लिया होता और उसी आधार पर अपना प्रत्येक शब्द बोला होता अथवा प्रत्येक पग उठाया होता तो संभवत: आगे आने वाली घटनाओं का स्वरूप भिन्न होता और बाद में हमें जो पीड़ा परेशानियां आदि झेलनी पड़ीं उन्हें टाला जा सकता। यदि सरदार जीवित रह जाते तो संभवत: स्थिति इतनी खराब न होने पाती क्योंकि शेख अब्दुल्ला के मन में उनके प्रति भारी भय एवं उससे उत्पन्न आदर का भाव विद्यमान था।'
श्री मलिक के अनुसार नेहरू जी ने भी बहुत ठोकरें खाकर शेख अब्दुल्ला के साम्प्रदायिक स्वरूप को पहचान लिया था किंतु उन पर शेख का जादू इतना बुरी तरह सवार था कि न तो वे शेख का जेल में बंद रहना सहन कर सकते थे और न उसके विरुद्ध देशद्रोही षड्यंत्र का मुकदमा चलाया जाना। किस प्रकार पं.नेहरू ने शेख के विरुद्ध मुकदमे को वापस लेने की स्थिति उत्पन्न करके गुप्तचर विभाग के लम्बे प्रयत्नों पर पानी फेर दिया था इसकी प्रामाणिक कहानी अभी अज्ञात है।
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