|
प्रसिद्ध पाश्चात्य राजनीतिक विचारकों-प्रोफेसर बार्कर, मैकिलवेन, जिमर्न आदि ने विश्व में लोकतंत्र का अर्विभाव तथा विकास, प्राचीन यूरोप के यूनानी नगर राज्यों मं ढूंढा। उनका यह चिन्तन यूरोपीय जगत के लिए सही हो सकता है, परन्तु भारत में उसकी जड़ें बहुत गहरी रही हैं। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में लोकतंत्र का स्वरूप, तत्कालीन राष्ट्र की ह्यसभाह्ण और ह्यसमितिह्ण से लेकर प्रशासन की लघुतम इकाई ह्यग्राम पंचायतह्ण तक स्पष्ट दिखलाई देती है। इसने जहां सबको साथ लेकर, राष्ट्रहित समाज कल्याण तथा लोकभावना से कार्य करने को प्रेरित किया गया, वहां किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक असंवैधानिक लाभ पहुंचाने पर कठोर दण्ड का भी प्रावधान किया है।
(1947 ईं. में भारत स्वतंत्र हुआ। भारत का संविधान पूर्णत: पाश्चात्य शैली पर निर्मित हुआ। लोकतंत्र की प्राचीन स्वरूप परम्पराओं को जड़ से अलग कर दिया गया तथा मुख्यत: ब्रिटिश तथा अमरीकी ढंग की मिली-जुली संसदीय व्यवस्था कायम की गई, जिसकी कटु आलोचना महात्मा गांधी बहुत पहले से ही करते आ रहे थे। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बने। इसके साथ वे कांग्रेस संगठन के अध्यक्ष भी थे। संक्षेप में वे आगामी 17 वर्षों तक संगठन तथा सत्ता के सर्वोच्च प्रभावशाली व्यक्ति रहे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता पं. मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक प्रख्यात वकील थे। इनके रहने का ढंग पूर्णत: अंग्रेजियत के रंग में डूबा था। पं. मोती लाल के तीन पुत्र तथा दो प्रत्रियां थी। परन्तु सबसे बड़े तथा सबसे छोटे पुत्र का देहांत हो गया था। वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के आदि थे। वे तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1904 ई. में एक कार खरीदी थी। जो पं. नेहरू को भी अपने पिता से मिला था, हटी आंधी, गुस्सैल स्वभाव तथा मनमानी करने की प्रवृत्ति उनकी छोटी बहन श्रीमती कृष्णा हथी सिंह अपने भाई के स्वभाव की कड़ी आलोचना करती थी। 1929 ईं. में पंडित मोतीलाल की सिफारिश से तथा महात्मा गांधी की कृपा से पं. नेहरू कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे। वे पहले कांग्रेस थे जो सफेद घोटे की सवारी कर कांग्रेस अधिवेशन के पंडाल में पहुंचे थे। तभी से उनमें विश्व के नेता बनने की प्रबल महत्वकांक्षी जाग्रत होने लगी थी। ह्यपं. नेहरू की जयह्ण,ह्यभारत का बेताज बादशाहह्ण, ह्यमोती का जवाहरह्ण, योग्य पिता का योग्यपुत्र आदि नारों ने उनकी महत्वकांक्षाओं को और भी उदीप्त कर दिया था।
वैसे भी भारत संविधान के अर्न्तगत 1952 के चुनाव में उनका कोई प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी न रहा था। नेता जी सुभाष पहले ही कांग्रेस की राजनीति से अलग हो गए थे। महात्मा गांधी भी न रहे थे और न ही सरदार पटेल। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को भारी जीत मिली। कश्मीर में की गई अक्षम्य भूलों तथा 1962 ई. के चीन के विरुद्ध अपमानजनक पराजय के बाद भी वे कांग्रेस में प्रमुख तथा देश के प्रधानमंत्री बने रहे।
लोकतंत्र की हत्या
पंडित नेहरू तो जुलियस सीजर न बन सके परन्तु उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सीजर के पुत्र आत्तोवियन की भूमिका निभाने का प्रयत्न अवश्य किया। पंडित नेहरू की महती इच्छी थी कि उनके बाद उनकी पुत्र देश की प्रधानमंत्री बने। अत: 1959 ई. में इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया ताकि संगठन पर पकड़ मजबूत बने। शीघ्र ही इंदिरा गांधी को भारत का सूचना तथा प्रसारण मंत्री भी बनाया ताकि सत्ता पर भी नियंत्रण बढ़े।
श्रीलाल बहादुर शास्त्री के मरते ही कांग्रेस के अन्दर प्रधानमंत्री पद के घमासान युद्ध पहले दिन से हो गया। शोककाल में भी प्रथम तीन दिनों में इन प्रश्न को लेकर खूब शोर-शराबा तथा उटक-पटक हुई। कामराज इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री सबकी सहमति से चुनना चाहते थे। उनका प्रयास असफल रहा। अन्त में विजय वंशवाद की हुई। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार संसदीय दल के सदस्यों ने वोट डालकर श्रीमती इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया। 969 ई. के फरीदबाद के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों गुटों के टकराव खुलकर सामने आए।
आखिर कांग्रेस दो फाड़ हो गई एक ह्यकांग्रेस ऑर्र्गेनाइजेशनह्ण (कांग्रेस ओ.) तथा दूसरी ह्यकांग्रेस इंदिराह्ण (कांग्रेस ईं.) अब श्रीमती इंदिरा गांधी ने कांग्रेस संगठन का प्रयोग एक खिलौने के रूप में मनमाने ढंग से प्रारम्भ कर दिया। उसने अपनी सत्ता को मजबूत बनाने के लिए भारतीय वामपंथियों से हाथ मिलाया तथा उसके बदले उन्हें बौद्धिक प्रभुता दे दी, जिन्होंने मनमाने ढंग से शिक्षा के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन किया। विशेषकर भाषा तथा इतिहास की पाठ्य पुस्तकों को मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर पुन: लिखवाया। श्रीमती इंदिरा ने वंशवाद को स्थायित्व देने के लिए जमीन के अन्दर एक ह्यकैपसूलह्ण भी गड़वाया, जिसके बाद में निकालने पर ज्ञात हुआ कि इसमें पं. मोतीलाल से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी के काल के महिला मण्डित तथा भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने वंश की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी।
25 जून 1975ई. को नेहरू वंशीय इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की धत्ता बताकर समस्त शक्तियां अपने हाथ में लेकर देश में आपात्काल की घोषणा कर दी। एक-एक करके चुन-चुनकर अपने विरोधियों को जेलों के सीखचों के अन्दर कर दिया। कई लाख लोगों के जीवन बर्बाद हुए। अनेक संगठनों पर मनमाने ढंग से प्रतिबंध लगाए, जेलों में अनेक भयभीत करने वाली यातनाएं दी। अनेक चापलूसों, चाटुकारों ने ह्यइन्दिरा इज इण्डियाह्ण कहना शुरू किया। कांग्रेस के राजनेता गिरगिट की तरह रंग बदलने रहे।
राजीव को राजतिलक
31 अक्तूबर, 1984 को श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या हुई। विश्व के इतिहास में शायद ही कोई उदाहरण मिले कि उसके अगले ही दिन नेहरू वंश को बनाए रखने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति श्री जैलसिंह ने राजीव गांधी को भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी। भारतीय संवैधानिक परम्परा में भी अचानक मृत्यु हो जाने पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल का नम्बर दो व्यक्ति शोककाल के लिए, प्रधानमंत्री बना दिया जाता है। राजीव गांधी न तो संसदीय दल के नेता थे औ न ही केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के सदस्य और तब तक न ही राजीव गांधी की राजनीति में कोई रूचि थी। संक्षेप में भारतीय लोकतंत्र वंशवाद या अधिनायकवाद की ओर बढ़ने लगा।
सोनिया के असफल प्रयत्न
राजीव गांधी की हत्या से नेहरू वशंवाद को गहरा धक्का लगा। अगले 15 वर्षों में कांग्रेस तथा गैर कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बने। इसी बीच पी.वी. नरसिम्हा राव जैसे प्रधानमंत्री बने, परन्तु कांग्रेस के इतिहास में उन्हें कोई महत्ता न दी गई।
सन् 1968 में सोनिया का विवाह राजीव गांधी के साथ हुआ। 1971 ई. जब बंगला देश के युद्ध में सभी पायलेटों की छुट्टी खत्म कर दी गई, तब वह इटली चली गई, पुन: 1977 में इंदिरा गांधी की हार पर उन्होंने पुन: इटली जाने का विचार बनाया, पर नहीं गई। राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात भारत में पुन: वंशवाद का नारा तीव्रता से उठाया गया, सोनिया ने भारत की नागरिकता, नियम (5-10सी) के अर्न्तगत 30 अप्रैल 983 ईं. को ही प्राप्त कर ली थी। परन्तु उनके विदेशी होने की गूंज बार-बार होती रही। मई, 2004 में के चुनाव में उन्होंने अन्य दलों की मदद से सफलता प्राप्त की। उस समय कांग्रेस के नेताओं ने स्थान-स्थान पर नारा लगाया। ह्यनो सोनिया, नो गर्वमेन्टह्ण, ह्यया तो सोनिया, वरना कोई नहीं।ह्ण एक बार यह भी गाया।
ह्यट्विनकल लिटिल स्टार, सोनिया गांधी सुपर स्टार।'ह्ण परन्तु 8 मई, 2004 को वे जब राष्ट्रपति ऐ.जे.पी.अबुल कलाम से मिलकर लौटी तो बड़ी निराश थी, सम्भवत तकनीकी कठिनाई के कारण उनका भविष्य में अन्तरोध हो सकता था। और तभी से भारतीय लोकतंत्र के लिए एक और अस्वस्थ परम्परा प्रारम्भ हुई जब कि लोकसंभा के किसी भी कांग्रेस नेता को प्रधानमंत्री न बनाकर राज्य सभा के सदस्य श्री मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री घोषित किया गया।
सम्भवत: तभी से सोनिया गांधी ने निश्चय कर लिया कि यदि मैं नहीं तो नेहरू वंश के राहुल गांधी को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाएंगी। पिछले दस वषोंर् (2004-2013) में देश की क्या दुर्गति हुई, यह किसी से छिपा नहीं है।
आज भी भारत में लोकमान्य की दशा वंशवाद के चौखटे में जकड़ी हुई है। सही तो यही लगता है कि आज चुनाव की राजनीति में वही व्यक्ति जीतेगा जो भारतीय आदर्शों, जीवन मूल्यों तथा सांस्कृतिक धरोहर को छोड़ देगा। विचारणीय है कि क्या लोकतंत्र, एकतंत्र या अधिनायकवाद की ओर तीव्र गति से नहीं बढ़ रहा है? लोकमत, लोक कल्याण तथा लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है कि व्यक्ति, परिवार एवं वंश की चिन्ता न करते हुए राष्ट्रहित, देश की एकता, स्वतंत्रता तथा अखण्डता को सर्वोच्च स्थान दे। आवश्यकता है कि भारत का जनमानस अपने कर्त्तव्य के साथ अपनी शक्ति के प्रति भी सचेत हो। वे भारत में एक सुदृढ़, सबल सुसंगठित लोकतंत्र के लिए संकल्प बद्ध हो।
टिप्पणियाँ