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ेस्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् अर्थात धर्म का थोड़ा भी कार्य करने का परिणाम बहुत बड़ा होता है। श्रीमद्भगवद्गीता की उपर्युक्त उक्ति के प्रमाण में यदि उदाहरण की आवश्यकता हो , तो अपने इस सामान्य जीवन में मैं इसकी सत्यता का नित्यप्रति अनुभव करता हूं। मैंने जो कुछ किया है, वह बहुत ही तुच्छ और सामान्य है, तथापि कोलम्बो से लेकर इस नगर तक आने में अपने प्रति मैंने लोगों में जो ममता तथा आत्मीय स्वागत की भावना देखी है, वह अप्रत्याशित है। पर साथ ही साथ मैं यह भी कहूंगा कि यह संवर्धना हमारी जाति के अतीत संस्कार और भावों के अनुरूप ही है, क्योंकि हम वही हिन्दू हैं, जिनकी जीवनी शक्ति , जिनके जीवन का मूल मन्त्र, अर्थात जिनकी आत्मा ही धर्ममय है। प्राच्य और पाश्चात्य राष्ट्रों में घूमकर मुझे दुनिया की कुछ अभिज्ञता प्राप्त हुई और मैंने सर्वत्र सब जातियों का कोई न कोई ऐसा आर्दश देखा है, जिसे उस जाति का मेरु-दण्ड कह सकते हैं। कहीं राजनीति, कहीं समाज संस्कृति, कहीं मानसिक उन्नति और इसी प्रकार कुछ न कुछ प्रत्येक के मेरुदण्ड का काम करता है। पर हमारी मातृभूमि भारतवर्ष का मेरुदण्ड धर्म – केवल धर्म ही है। धर्म ही के आधार पर, उसी की नीवं पर, हमारी जाति के जीवन का प्रासाद खड़ा है। तुममें से कुछ लोगों को शायद मेरी वह बात याद होगी , जो मैंने मद्रासवासियों के द्वारा अमरीका भेजे गए स्नेहपूर्ण मानपत्र के उत्तर में कहीं थीं । मैंने इस तथ्य का निर्देश दिया था कि भारतवर्ष के एक किसान को जितनी धार्मिक शिक्षा प्राप्त है, उतनी पाश्चात्य देशों के पढ़े-लिखे सभ्य कहलानेवाले नागरिकोंे को भी प्राप्त नहीं है और आज मैं अपनी उस बात की सत्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूं। एक समय था, जब कि भारत की जनता की संसार के समाचारों से अनभिज्ञता और दुनिया की जानकारी हासिल करने की चाह के अभाव से मुझे कष्ट होता था, परन्तु आज मैं उसका कारण समझ रहा हूं। भारतवासियों की अभिरुचि जिस ओर है, उस विषय की अभिज्ञता प्राप्त करने के लिए वे संसार के अन्यान्य देशों के, जहां मैं गया हूं, साधारण लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक उत्सुक रहते हैं। अपने यहां के किसानों से यूरोप के गुरुतर राजनीतिक परिवर्तनों के विषय में, सामाजिक उथल-पुथल के बारे मंे पूछो तो वे उस विषय में कुछ भी नहीं बता सकेंगे, और न उन बातों के जानने की उनमें उत्कण्ठा ही है। परन्तु भारतवासियों की कौन कहे, लंका के किसान भी -भारत से जिनका संबंध बहुत कुछ विच्छिन्न है और भारत से जिनका बहुत कम लगाव है, इस बात को जानते हैं कि अमरीका में एक धर्म-महासभा हुई थी, जिसमें भारतवर्ष से कोई संन्यासी गया था और उसने वहां कुछ सफलता भी पाई थी।
इसी से जाना जाता है कि जिस विषय की ओर उनकी अभिरुचि है, उस विषय की जानकारी रखने के लिए वे संसार की अन्यान्य जातियों के बराबर ही उत्सुक रहते हैं। और वह विषय है- धर्म, जो भारतवासियों की मूल अभिरुचि का एकमात्र विषय है। मैं अभी इस विषय पर विचार नहीं कर रहा हूं कि किसी जाति की जीवनी शक्ति का राजनीति आदर्श पर प्रतिष्ठित होना अच्छा है अथवा धार्मिक आदर्श पर, परन्तु कुछ हो या बुरा, हमारी जाति की जीवनी शक्ति धर्म मे ही केन्द्रीभूत है। तुम इसे बदल नहीं सकते, न तो इसे विनष्ट कर सकते हो, और नहीं इसे हटाकर इसकी जगह दूसरी किसी चीज को रख ही सकते हो। तुम किसी विशाल उगते हुए वृक्ष को एक भूमि से दूसरी पर स्थानान्तरित नहीं कर सकते और न ही वह शीघ्र ही वहां जड़ें पकड़ सकता है। भला हो या बुरा, भारत में हजारों वर्ष से धार्मिक आदर्श की धारा प्रवाहित हो रही है। भला हो या बुरा भारत का वायुमण्डल इसी धार्मिक आदर्श से बीसियों सदियों तक पूर्ण रह कर जगमगाता रहा है। भला हो या बुरा, हम इसी धार्मिक आदर्श के भीतर पैदा हुए और पले हैं। यहां तक कि अब वह हमारे रक्त में ही मिल गया है, हमारे रोम-रोम में वहीं धार्मिक आदर्श रम रहा है, वह हमारे शरीर का अंश और हमारी जीवनी शक्ति बन गया है। क्या तुम उस शक्ति की प्रतिक्रिया जाग्रत कराये बिना, उस वेगवती नदी के तल को, जिसे उसने हजारों वर्ष में अपने लिए तैयार किया है, भरे बिना ही धर्म का त्याग कर सकते हो? क्या तुम चाहते हो कि गंगा की धारा फिर बर्फ से ढके हुए हिमालय को लौट जाए और फिर वहां से नवीन धारा बनकर प्रवाहित हो? यदि ऐसा होना सम्भव भी हो, तो भी, वह कदापि सम्भव नहीं हो सकता कि यह देश अपने धर्ममय जीवन के विशिष्ट मार्ग को छोड़ सके और अपने लिए राजनीति अथवा अन्य किसी नवीन मार्ग का प्रारम्भ कर सके। जिस रास्ते में बाधाएं कम हैं, उसी रास्ते में तुम काम कर सकते हो और भारत के लिए धर्म का मार्ग ही स्वल्पतम बाधा वाला मार्ग है। धर्म के पथ का अनुसरण करना हमारे जीवन का मार्ग है, हमारी उन्नति का मार्ग है और हमारे कल्याण का मार्ग भी यही है।
हमारा धर्म तो इसलिए सच्चा धर्म है कि यह सभी को इन तीन दिनों के क्षुद्र इन्द्रियाश्रित सीमित संसार को ही अपना अभीष्ट और उद्दिष्ट मानने से मना करता है और इसी को हमारा महान ध्येय नहीं बताते। इसी पृथ्वी का यह क्षुद्र क्षितिज , जो केवल कई एक हाथ ही विस्तृत है, हमारे धर्म की दृष्टि को सीमित नहीं कर सकता । हमारा धर्म दूर तक, बहुत दूर तक फैला हुआ है, वह इन्द्रियों की भी सीमा से भी आगे तक फैला है, वह देश और काल से भी परे है। वह दूर, और दूर विस्तृत होता हुआ उस सीमातीत स्थिति में पहुंचता है, जहां इस भौतिक जगत का कुछ भी शेष नहीं रहता और सारा विश्व-ब्रह्माण्ड ही आत्मा के दिगन्तव्यापी महामहिम अनन्त सागर की एक बूंद के समान दिखाई देता है। वह हमें यह सिखाता है कि एकमात्र ईश्वर ही सत्य है, संसार असत्य और क्षणभंगुर है। तुम्हारा सोने का ढेर खाक के ढेर जैसा है, तुम्हारी सारी शक्तियां परिमित और सीमाबद्घ हैं बल्कि तुम्हारा जीवन भी नि:सार है। यही कारण है कि हमारा धर्म ही सच्चा है। हमारे धर्म के सिवा संसार में अन्य जितने बड़े धर्म हैं, सभी ऐसे ही ऐतिहासिक जीवनियों के आधार पर खड़े हैं। परन्तु हमारा धर्म कुछ तत्वों की नींव पर खड़ा है। पृथ्वी में कोई भी व्यक्ति -स्त्री हो या पुरुष – वेदों के निर्माण करने का दम नहीं भर सकता ।
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