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दिल्ली के चुनावी इतिहास में कांग्रेस के लिए सबसे शर्मनाक स्थिति आपातकाल के बाद हुए चुनावों में भी दस सीटों पर जीती थी कांग्रेस
आपातकाल के बाद जब 1977 में दिल्ली में मेट्रोपोलिटन काउंसिल के चुनाव हुए थे। तब भी कांग्रेस को दस सीटें मिली थीं, लेकिन आज ठीक 36 बरस बाद स्थिति उससे भी बुरी है। दिल्ली के चुनावी दंगल में पहली बार कांग्रेस को इतनी बुरी तरह पटखनी मिली है। यह कांग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति है। कांग्रेस से जनता कितनी नाराज है। ये उसने दिल्ली चुनावों में जता दिया। हालांकि भाजपा का भी वोट भी तीन प्रतिशत कम हुआ है, लेकिन वह कांग्रेस को ना जाकर आम आदमी के खाते में गया है। यहां इसका यह मतलब लगाना कतई गलत होगा कि लोग सिर्फ ह्यआप ह्ण को दिल्ली में देखना चाहते हैं। दिल्ली में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई है। बहुमत से महज चार सीटें दूर। ह्यआप ह्ण को लेकर राजनैतिक दल के नेता और चुनावी पंडित जिस तरह आकलन कर अपना विश्लेषण दे रहे हैं। वह कहीं नजर नहीं आता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिली सफलता ने उसे मुख्य विपक्षी दल तो बना दिया है, लेकिन वह अब अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है। वहीं झुग्गी बस्ती और निचले तबके के जिन लोगों को कांग्रेस सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती आई है, वे भी इस बार कांग्रेस के साथ नहीं रहे। उन्होंने कांग्रेस के ह्यहाथह्ण को छोड़कर भाजपा और आप का साथ पकड़ा। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तक को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।
कई चुनावों और कई सरकारों को आते जाते देख चुके दिल्ली के मध्यम वर्ग के समझदार लोगों से बात की जाए तो समझ आता है कि लोगों के मन में कांग्रेस के खिलाफ जो आक्रोश था, उसका सारा गुबार उन्होंने चुनाव में निकाल दिया। नतीजतन पिछले चुनावों में 43 सीटों पर कब्जा जमाकर सत्ता पाने वाली कांग्रेस महज आठ सीटों पर सिमट कर रह गई। बार- बार दिल्ली में विकास किए जाने की दुहाई देकर 15 वर्षों से सत्ता में टिकी कांग्रेस को लोगों ने उखाड़ दिया। कांग्रेस के तमाम दिग्गजों को मुंह की खानी पड़ी। कांग्रेस के विधायक चौधरी प्रेम सिंह जो कभी चुनाव नहीं हारे थे। कभी ना चुनाव हारने के कारण उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। वे भी हार गए। कांग्रेस के केवल दो मंत्री अरविंदर सिंह लवली और हारून यूसुफ बमुश्किल अपनी सीटें बचा सके। लवली के क्षेत्र में एक बड़ी संख्या निचले और गरीब तबके के लोगों की है, जबकि हारून मुस्लिम बहुल इलाके से चुनाव लड़ते हैं, जो कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता है। वही दिल्ली के लोक निर्माण विभाग मंत्री राजकुमार चौहान, परिवहन मंत्री रमाकांत गोस्वामी, स्वास्थ मंत्री डॉ. एके वालिया और महिला एवं बाल विकास मंत्री एवं शिक्षा मंत्री प्रो. किरण वालिया, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके संसदीय सचिव कद्दावार विधायक मुकेश शर्मा को जनता ने साफ नकार दिया।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1977 में आपातकाल समाप्त होने के बाद जब दिल्ली में मेट्रोपोलिटन काउंसिल थी। उस समय इसका दर्जा विधानसभा के बराबर ही था। आपात काल के बाद कांग्रेस ने उस समय दिल्ली में 56 सीटों में से 10 सीटें जीती थी, ऐसा पहली बार हुआ है कि कांग्रेस की विदाई इतने शर्मनाक तरीके से हुई है। ऐसा नहीं कि भाजपा ने अपनी कुछ सीटें नहीं गंवाई, लेकिन भाजपा का वोट बैंक महज तीन प्रतिशत ही कम हुआ है। दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 29 पर भाजपा और 20 पर आप द्वितीय स्थान पर रही है। यानी दिल्ली की करीब 50 सीटों पर तो कांग्रेस का पत्ता साफ होना पहले से तय था। यदि आम आदमी पार्टी की बात करें तो असमंजस की स्थिति में फंसी जनता को कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था। एक विकल्प के तौर पर जनता ने आप को भी दिल्ली में अपना दमखम दिखाने का मौका दिया, लेकिन जब अपने किए वायदों को पूरा करने का समय आया तो आप के संयोजक केजरीवाल और सभी सरमाएदार पीछे हट गए और विपक्ष में बैठने की बात करने लगे। यहां कहना गलत नहीं होगा कि शायद केजरीवाल को इस बात का आभास है कि राजनीति और सत्ता संभालने के लिए ह्यआपह्ण के प्रत्याशी परिपक्व नहीं हुए हैं। वे शायद समझ चुके हैं कि चुनावों से पहले जो बचकाने वायदे उन्होंने जनता से किए थे, ऐसी परिस्थितियों में उन्हें पूरा करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। इसलिए ना तो वे सरकार बना रहे हैं और ना ही बनाने में आगे आकर मदद कर रहे हैं। बाहरी दिल्ली क्षेत्र में जहां आप ने बड़े-बड़े वायदे किए थे। उस इलाके में लोगों ने आप को बुरी तरह नकार दिया। मध्य दिल्ली और पूर्वी दिल्ली में ह्यआपह्ण वायदों को पूरा करने का बात कहकर जनता का भरोसा पाने में कामयाब रहे। दरअसल केजरीवाल आप को भाजपा और कांग्रेस का विकल्प बताकर व धुंआधार प्रचार करके जनता से वोट पाने में कायमाब रहे, लेकिन अब आप सरकार बनाने से पीछे क्यों हट रही है, इस बारे में सोचने की जरूरत है। आदित्य भारद्वाज
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