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महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में सब सरदार अपने आसनों पर बड़ी शान से विराजमान थे। दरबान ने झुककर ह्यसत्श्री अकालह्ण कहकर निवेदन किया, महाराज एक अंग्रेज व्यापारी दर्शन करना चाहता है। हुक्म हो तो हाजिर करूं?
महाराज ने कहा, पहले पूछो कि किस काम के लिए आया है। हमारा किसी अंग्रेज से क्या लेना-देना?
जी महाराज कहकर दरबान चला गया।
पुन: प्रवेश करके दरबान ने फिर उसी तरह झुककर प्रणाम किया और बोला, वह अंग्रेज अपनी कंपनी का बना कुछ सामान बेचना चाहता है, सरकार।
राजा रणजीतसिंह ने स्वीकृति दे दी, उसे हाजिर करो।
दरबान के साथ एक लंबा-तगड़ा अंग्रेज अंदर आया। उसके साथ एक बड़ा सा बैग था। राजा ने एक खाली आसन की ओर इशारा करते हुए कहा, बैठिए। बताइए, आप क्या दिखाने लाए हैं?
अंग्रेज व्यापारी खड़ा रहा। उसने अपना बैग खोला और कांच की बनी कुछ चीजें दरबार के बीच में रखी मेज पर सजा दीं। सब दरबारी और स्वयं राजा आराम से सामान सजाते हुए उसे देखते रहे। अंग्रेज व्यापारी को लगा, मेरी चीजें सबको पसंद आ रही हैं, तभी सब बड़े ध्यान से देख रहे हैं। यदि राजा रणजीतिसिंह ने एक-दो वस्तुएं खरीद लीं तो सब दरबारी कुछ-न-कुछ अवश्य खरीद लेंगे। दरबारी अपने राजाओं को खुश रखने का अवसर खोजे रहते हैं।
महाराजा अपने आसन से मेज की ओर उठकर आए तो व्यापारी मन ही मन खुश हो रहा था। महाराजा रणजीतिसिंह ने एक सुंदर सा फूलदान उठाया और उलट-पलटकर देखा। इसके पश्चात जानकर हाथ से नीचे गिरा दिया। नीचे गिरते ही शीशे के टुकड़े-टुकड़े हो गए। व्यापारी का मुंह उतर गया। फूलदान बेशकीमती था, परंतु राजा से क्या कहा सकता था? हालत ऐसी हो गई कि मारे और रोने भी न दे। राजा ने पूछा, इस फूलदान की अब क्या कीमत है? व्यापारी चुप ही रहा। राजा ने कहा, बताओ-बताओ?
कुछ भी नहीं महाराज, अब तो यह किसी काम का नहीं रहा। व्यापारी खिसियाना सा सजी-सजाई वस्तुओं को फिर से इधर-उधर लगा रहा था। राजा ने एक सेवक से कहा, एक पीतल की दवात तो उठाकर लाओ। सेवक झट से भीतर गया और पीतल की दवात ले आया। राजा ने कहा, अब इसे हथौड़ी से तोड़ो।
किसी की समझ में कुछ न आया। सेवक ने हथौड़ी उठाई और दवात को तोड़ दिया। दवात बिकुल पिचक गई। राजा बोले, अब गई न दवात। अब इसे ले जाकर दुकान पर बेच आओ। सेवक दवात लेकर बाहर निकल गया। राजा बोले, जितनी चीजें लाए हो, क्या सब फूलदान जैसी हैं?
जी हां सरकार। सब शीशे की बनी हैं। सजावट के लिए हैं। तब तक सेवक फिर अंदर आया।
क्या हुआ, दवात नहीं बीकी? राजा ने पूछा।
बिक गई हुजूर, बाहर सुनार की दुकान पर ही बिक गई। दौ पैसे में बिकी है। कहते हुए उसने राजाजी की ओर हाथ बढ़ाया। राजा ने दो पैसे हाथ में लेकर अंग्रेज व्यापारी को दिखाते हुए कहा, हमारा भारत देश अभी गरीब है। हम शीशे की टूटने वाली वस्तुओं पर फिजूलखर्ची नहीं कर सकते। हमें तो ऐसी स्वदेशी चीजों की जरूरत है, जिससे काम ले लो और टूट जाए तो फिर से बाजार में कुछ कीमत मिल जाए। केवल दिखने में सुंदर वस्तुएं हम कभी नहीं खरीदते। आप आए, आपका धन्यवाद?
अंग्रेज व्यापारी अपना सामान समेटकर चुपचाप दरबार से बाहर चला गया। मायाराम पतंग
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