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अगस्त्य संहिता में महर्षि अगस्त्य ने बैटरी निर्माण की विधि का वर्णन किया था। अगस्त्य संहिता में एक सूत्र है-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि काष्ठापांसुभि:।।
दस्तालोष्टो निधात्त्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम।।
अर्थात् एक मिट्टी का बर्तन लें, उसे अन्दर तक अच्छी प्रकार से साफ करें। उसमें ताम्रपत्र और शिखिग्रीवा (मोर की गर्दन के रंग जैसा पदार्थ अर्थात् कॉपरसल्फेट) डालें। फिर उस बर्तन को लकड़ी के गीले बुरादे से भर दें। उसके बाद लकड़ी के गीले बुरादे के ऊपर पारा आच्छादित दस्त लोष्ट (ेी१ू४१८-ंेंह्णॅंें३ीि ९्रल्लू २ँीी३) रखें। इस प्रकार दोनों के संयोग से अर्थात् तारों के द्वारा जोड़ने पर मित्रावरुणशक्ति की उत्पत्ति होगी।
यहां यह उल्लेखनीय भी है कि यह प्रयोग करके भी देखा गया है जिसके परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 एमए धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई। स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्थान (नागपुर) के द्वारा अपनी चौथी वार्षिक सभा में 7 अगस्त 1990 को इस प्रयोग का प्रदर्शन भी विद्वानों तथा सर्वसाधारण लोगों के समक्ष किया गया।
अगस्त्य संहिता में आगे लिखा है-
अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषुवायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:।।
अर्थात् सौ विद्युत-कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गये सौ सेलों) की शक्ति का पानी में प्रयोग करने पर पानी अपना रूप बदल कर प्राण वायु (ऑक्सीजन) और उदान वायु (हाइड्रोजन) में परिवर्तित हो जाएगा।
फिर लिखा गया है-
वायुबन्धक निबद्धो यानमस्तके उदान स्वलघत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्।
अर्थात् उदान वायु (हाइड्रोजन) को बन्धक वस्त्र (ं्र१ ३्रॅँ३ ूह्णङ्म३ँ) द्वारा निबद्ध किया जाए तो उसे विमान विद्या (ंी१ङ्मि८ल्लंे्रू२) के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
स्पष्ट है कि यह आज के विद्युत बैटरी का सूत्र ही है। साथ ही यह प्राचीन भारत में विमान विद्या होने की भी पुष्टि
करता है।
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