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सांच पे जांच
कांग्रेस में डॉ. मनमोहन सिंह की मौजूदगी और उजली छवि के दावों को क्या कहा जाए-समझदार व्यक्ति के गुमराह होने का उदाहरण या फिर भ्रष्टाचार की कालिख को ढकने के लिए रचा गया छलावा? सवाल भले ही कुछ तीखा है मगर इसका जन्म उसी संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट से हुआ है जिसका गठन यूपीए सरकार ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की 'कथित जांच' के लिए किया था।
जांच को ह्यकथितह्ण कहना तीन कारणों से जरूरी है- पहला यह कि लोकसभा अध्यक्ष को सौंपी गई जांच रिपोर्ट, जोकि लोकसभा की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है, सत्ता पक्ष के उन तात्कालिक कथनों और वक्तव्यों के उन्हीं खूंटों से बंधी दिखती है जोकि पूर्व में ही कांग्रेस द्वारा अपनी सफाई में जारी किए जा चुके हैं। यानी जांच का सार है कि सारा दोष केवल तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए.राजा का था, बेचारे प्रधानमंत्री तो सिर्फ गुमराह हुए। निष्कर्ष पर आशंकाएं जताने की दूसरी वैध वजह यह है कि तीस सदस्यीय जांच समिति की इस रिपोर्ट के साथ सात असहमति पत्र भी नत्थी हैं। भाजपा, माकपा, भाकपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, बीजद और तृणमूल कांग्रेस, कोई भी दल ऐसा नहीं है जो इस जांच को हर दृष्टि से पूर्ण, निष्पक्ष, सटीक और सत्य मान रहा हो और समिति के अध्यक्ष, कांग्रेस सांसद पी.सी.चाको के दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हो।
तीसरा कारण है, जांच के छलावे पर संसद के बाहर गरमाती लड़ाई। वरिष्ठ भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी से लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास दासगुप्त तक अनेक सांसद
2जी घोटाले का सच और जांच के नाम पर की गई लीपापोती को जनता के सामने लाने में जुटे हैं। संसद में बैठे कई वरिष्ठ राजनेता जब खुद इस जांच को झूठ का पुलिंदा बता रहे हैं तो इसे सच मानने का कोई कारण नहीं दिखता।
असहमति के अलावा और भी कई बातें हैं जो इस कमेटी की कार्यप्रणाली और जांच के निष्कर्षों पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। मसलन, ए.राजा को जांच समिति के सामने ना बुलाना और उनकी इस लिखित टिप्पणी को अंतिम जांच रिपोर्ट में शामिल ना किया जाना कि नीति-निर्धारण के हर पहलू से प्रधानमंत्री को अवगत कराया गया था।
बहरहाल, जांच रिपोर्ट देखकर यह साफ हो गया है कि बलि का जो गैर कांग्रेसी बकरा पहले से तय था उसकी नियति पर मुहर लगाने का काम सफाई से निपटाया गया है, क्योंकि, सच सामने आता तो साफ-सुथरी छवि का वह इकलौता कांग्रेसी नकाब उतर जाता जिसे आगे कर यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार की कालिख का यह सारा कारोबार चला है।
षड्यंत्र विफल, चेहरे उजागर
पटना में भाजपा की ऐतिहासिक रैली को निशाना बनाकर किए गए धमाकों का विध्वंस भले सीमित दिखे, विश्लेषण व्यापक नजरिए की मांग रखता है। इस अभूतपूर्व जन ज्वार में भगदड़ की सुनामी उठाने का खूनी षड्यंत्र यदि पूरा हो जाता तो देशभर में कैसा हाहाकार मचता इसकी कल्पना भी दहलाने वाली है। ईश्वरीय कृपा कि मौके पर मौजूद जनता और मंचासीन नेताओं ने समझदारी दिखाई और त्रासदी सीमित होकर रह गई।
ऐसे में, यह वक्त खूनी इरादों वाले जिहादी संगठनों के उन दर्दमंदों की पहचान का, जिनकी शह पर देश भर में आतंक और मजहबी कट्टरवाद की जहरीली बेल फैल रही है। सेकुलर कहलाने वाले दल आतंकियों के लिए मन में क्या विचार रखते हैं यह देश को जानना चाहिए। बाटला हाउस में इसी इंडियन मुजाहिदीन के गुगोंर् की मौत पर सोनिया गांधी रो पड़ी थीं, यह तथ्य देश को जानना चाहिए। यह भी जानने वाली बात है कि उसी मुठभेड़ में मारे गए शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की शहादत को फर्जी बताने वाले सारे दल वही हैं जो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई का बिल्ला लगाए घूमते हैं।
पटना रैली के हताहतों के लिए सोनिया-मुलायम या नीतीश रोए, यह तो पता नहीं लेकिन इतना साफ है कि कथित सेकुलर ताकतों का झुकाव किस पाले में है।
कुख्यात पाकिस्तानी आतंकियों के साथ गुजरात में मारी गई इशरत को ह्यबेटीह्ण बुलाने वाले और लादेन जैसे जिहादियों के लिए ह्यजीह्ण का इस्तेमाल करने वाले सेकुलर सत्ताधीश कट्टरवाद से लड़ेंगे या आतंकी दानव के सामने सिजदा करेंगे, यह अपने आप समझ में आने वाली बात है।
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