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कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक पुष्कर सरोवर में पवित्र स्नान पर्व पर उमड़ते लाखों श्रद्धालुओं के कंठस्वर से अरावली पर्वत माला से घिरा यह स्थान गूंज उठता है। इस मेले में जहां इसकी पौराणिक जीवन्तता का अहसास होता है, वहीं राजस्थान की लोक संस्कृति के विविध रूप सहज भाव से देखने को मिलते हैं।
पौराणिक महत्व
हिन्दू तीर्थों का राजा कहलाने का गौरव मात्र तीर्थराज पुष्कर को रहा है। देश का एकमात्र ब्रह्मा मंदिर होने का मान भी इसे मिला। इसकी महिमा का उल्लेख पद्म पुराण में हुआ है जिसमें लिखा है-
पर्वतानां यथामेरू,
पक्षीणां गरूड़े यथा।
भद समस्त तीर्थनामध,
पुष्कर भिष्यते।।
जिस प्रकार पहाड़ों में सुमेरू, पक्षियों में गरुड़ पक्षी श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार समस्त तीर्थों में पुष्कर राज आदि एवं श्रेष्ठ तीर्थ माना गया है। चारों धामों की यात्रा करने का पुण्य पुष्कर राज के दर्शन करने पर ही मिलता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग में इसका इतना यश फैला कि इसमें स्नान करने वाला हर पापी व्यक्ति भी स्वर्ग जाने लगा। इससे सभी देवताओं में गंभीर चिन्ता हुई। देवराज इन्द्र, भगवान शिव एवं विष्णु के नेतृत्व में सभी देवता ब्रह्मा के पास पहुंचे और बोले, हे पितामह! आपने पुष्कर तीर्थ का निर्माण किया है। इसमें स्नान करने पर मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है और उसे स्वर्गलोक में स्थान मिल जाता है। इस कारण स्वर्गलोक में मानव पापी समाज का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है।
तब ब्रह्मा जी ने कहा कि प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक यह तीर्थ स्थान पूरे भूतल पर पाप नाशक रहेगा। तभी से पुष्कर तीर्थ का महत्व इन पांच दिनों में विशेष फलदायक माना जाता है। पुष्कर सरोवर 52 घाटों से घिरा है। इसकी पवित्रता के संबंध में जनधारणा है कि प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त से सूर्य अस्ताचल तक इस सरोवर में त्रिवेणी का समावेश होता है जो शुभफलदायक है। प्रात:काल भागीरथी गंगा, मध्याह्न सरस्वती एवं सायंकाल यमुना की पवित्र धारा पुष्कर झील में समाहित होकर पापनाशक क्षमता रखती है।
ब्रह्मा मंदिर की सृष्टि
पद्म पुराण में कहा गया है कि सृष्टि निर्माण के बाद ब्रह्मा जी यज्ञ करना चाहते थे। उपयुक्त स्थान की खेाज करते हुए वह घूम रहे थे, तब उनके हाथों से कमल गिर गया और जल स्रोत फूट पड़ा। ब्रह्मा जी ने अपनी पत्नी सावित्री के साथ यहां पर यज्ञ करने का निश्चय किया। देव मुनि नारद ने सावित्री को सलाह दी कि यज्ञ के समय अन्य देवताओं की पत्नियां भी उपस्थित हों तो यह उत्तम रहेगा। सावित्री अन्य देवताओं की पत्नियों को यज्ञ के लिए निमंत्रण देने चली गईं और इधर यज्ञ का समय हो गया। सावित्री के देर से आने पर ब्रह्मा के आदेश पर इन्द्र ने एक कन्या गाय के मुख से निकाल कर पवित्र कर उसे गायत्री के रूप में सावित्री का दर्जा प्रदान किया। यज्ञ प्रारंभ हो गया जब इस बात का भगवान शंकर ने विरोध किया तो सभी देवताओं की यह सहमति रही कि पुष्कर में भगवान शंकर की भी अर्चना होगी, तब यज्ञ कार्य आगे चला। जब अन्य देवताओं की पत्नियों को लेकर सावित्री वहां आईं तो अपने स्थान पर दूसरी कन्या को बैठा देखकर क्रोधित हो गईं। इस घोर अपमान को सहन करते हुए उन्होंने ब्रह्मा को श्राप दिया- पुष्कर तीर्थ के अतिरिक्त देश के किसी भी भू भाग में कहीं पर पूजा अर्चना नहीं होगी।
इस अपमान से ग्रस्त होकर रत्नागिरि पर्वत पर सावित्री चली गईं, वहीं भूमि में समाधि लेकर सती हो गईं। पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर के पास ही सावित्री का मंदिर है, जहां उनकी चरण पादुकाएं बनी हैं।
ऐतिहासिकता का प्रमाण
यद्यपि ब्रह्मा मंदिर के वास्तविक निर्माण की तिथि अभी तक अज्ञात है लेकिन समय-समय पर इसके जीर्णोद्धार के प्रमाण उपलब्ध हैं। मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण सन् 1808 ई में ग्वालियर रियासत के मंत्री गोकुल चंद पारीक द्वारा एक लाख तीस हजार रु. की लागत से कराया गया था। इससे पूर्व जयपुर रियासत के सवाई जयसिंह के कार्यकाल में आमेर के राजपुरोहित गिरधर दास की पुत्री फूंदी बाई ने सन् 1719 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। मंदिर का स्वर्ण कलश नीमच नरेश उम्मेद सिंह ने पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में वि.सं. 1991 में बनवाया था।
कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहांगीर आत्मशांति के लिए 15 बार इस लोक तीर्थ की यात्रा पर आया। उसने अपनी आत्मकथा 'तुजके जहांगीर नामा' में उस समय (17वीं शताब्दी) पुष्कर को उत्तर भारत का प्रमुख मेला एवं लोक संस्कृति का केन्द्र माना था।
आध्यात्मिक चेतना का केन्द्र
कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर झील में दीपक तैराने का दृश्य अनुपम छटा लिए हुए होता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो आकाश गंगा का लघु रूप पृथ्वी पर दिखाई दे रहा है। यहां के प्रमुख मंदि२ों में श्रीराम बैकुण्ठ मंदिर, रामानुज सम्प्रदाय का रंगनाथ मंदिर सहित कई मंदिर हैं।
विदेशी पर्यटक
विदेशी पर्यटकों के मनोरंजन के लिए पर्यटक विभाग द्वारा कई कार्यक्रम आयेाजित किए जाते हैं। ऊंटों व घोड़ों का नाच, ग्रामीण खेल तमाशे तथा विदेशी पर्यटक एवं भारतीय पुरुषों एवं महिलाओं की रस्साकशी की प्रतियोगिता में पर्यटक विशेष रुचि लेते हैं।
पशु मेला
पशु धन के क्रय विक्रय के लिए किसान वर्ष भर इस मेले की प्रतीक्षा करते हैं।
विकृत होता स्वरूप
पुष्कर मेले की धार्मिक आस्था पर प्रश्न चिन्ह तब लगता है जब इसे सरकार ने पशु मेले एवं पर्यटक मेले का स्वरूप प्रदान किया। आज इसका प्राचीन स्वरूप बदल गया है। धार्मिक महत्व को समाप्त कर इसे सांस्कृतिक महत्ता प्रदान कर इसकी अस्मिता को जन मानस में धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है। आज इस मेले को पशु मेले और पर्यटक मेले के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि पुष्कर मेला जो कि भारतीय जन मानस में लोक चेतना एवं आस्था का जीवंत प्रतीक था उसकी रक्षा की जाए। उसके मूल स्वरूप को बहाल किया जाए ताकि जगद् पिता ब्रह्मा के पवित्र स्थान को पुन: धार्मिक आस्था का स्थान मिल सके। विवेक त्रिवेदी
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