फटा पोस्टर, निकला जीरो
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फटा पोस्टर, निकला जीरो

by
Oct 5, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Oct 2013 15:46:54

बहुत दिनों से प्रतीक्षा हो रही थी कि पोस्टर फटे और हीरो निकले, पर पोस्टर फटा, तो जो निकला, उसे देखकर सबको हंसी आ गयी। अरे, ये तो अपने राहुल बाबा हैं। न जाने कहां गायब हो गये थे, पता नहीं देश में थे या विदेश में, मैडमश्री तो अमरीका में जांच पड़ताल और स्वास्थ्य लाभ कर लौट आयीं, पर बाबा वहीं रुक गये थे। और अब आये हैं, तो बिल्कुल क्रांतिकारी छवि के साथ। 
  अब तो बेचारे कम्यूनिस्ट इतिहास की वस्तु होते जा रहे हैं, पर किसी समय उनकी चमक देखने लायक हुआ करती थी। चेहरे पर आठ-दस दिन पुरानी घास-पात, अंगूठे से टूटी हुई नयी चप्पल, राजेश खन्ना कट कुर्ता और पैंट, कंधे पर थैला, उंगली में रेड एंड वाइट की आधी सिगरेट देखकर दूर से ही समझ आ जाता था कि ये आदमी नहीं कम्यूनिस्ट है। नवयुवक उनकी इस विद्रोही छवि की ओर सहज ही आकर्षित हो जाते थे।
  हमारे परम मित्र शर्मा जी भी उन दिनों सोते-जागते विद्रोह की ही बात सोचते थे। कई बार तो इसका सिर-पैर भी समझ में नहीं आता था। लोग गरमी में छत पर सोते थे, तो वे नीचे कोठरी में। सरदी में कई बार वे बाहर सोये मिलते थे। पूछने पर कहते थे कि परम्पराएं तोड़ना ही विद्रोही का काम है। एक बार किसी ने उन्हें पैरों की बजाय हाथ से चलने को कहा, तो उन्होंने कुछ देर ऐसा भी करके दिखा दिया। हां, खाना उन्होंने मुंह से ही जारी रखा। इस परम्परा को वह चाहकर भी बदल नहीं सके।
पर धीरे-धीरे नून तेल लकड़ी के चक्कर में उनके विद्रोह की हवा निकल गयी। वे समझ गये कि फैशन के लिए तो कुछ दिन विद्रोही होना ठीक है, पर जीवन की गाड़ी इससे नहीं चलती, लेकिन राहुल बाबा को यह कौन समझाये ? वे तो मुंह में सोने का चम्मच लेकर ही इस धरा पर आये हैं। नून तेल लकड़ी के लिए कष्ट तो उनके पुरखों को भी नहीं करना पड़ा। इसलिए उनका विद्रोही स्वर अभी विद्यमान है। यह बात दूसरी है कि उसकी राख को बहुत फूंकना पड़ता है, तब जाकर उसमें कुछ देर को चिन्गारी उठती है।
पिछले दिनों जब भाजपा वालों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया, तो लोगों ने समझा कि अब बाबा के चूल्हे में से भी कुछ धुआं निकलेगा, पर वहां तो लकडि़यां ही नदारद थीं। चेलों और चमचों ने यहां-वहां से लकड़ी जुटाई, मिट्टी का तेल डाला, घंटों फूंक मारी, पर सब व्यर्थ।
  लेकिन पिछले दिनों जब कांग्रेस और उनकी सरकार ने दागी नेताओं को चुनाव लड़ाने वाला विधेयक अध्यादेश के द्वारा पारित कराना चाहा, तो न जाने कहां से राहुल बाबा नमूदार हो गये। उन्होंने  भरी प्रेस वार्ता में इस बकवास अध्यादेश को फाड़कर फेंकने को कहा। इस विद्रोही छवि से पत्रकार भी सकपका गये, पर जब उन्होंने कुछ प्रश्न पूछे, तो बाबा को सांप सूंघ गया। क्योंकि वे तो केवल उतने ही नाटक का अभ्यास करके आये थे। इससे आगे के डायलॉग या तो उन्हें लिखे हुए नहीं मिले, या फिर वे उन्हें भूल गये। जो भी हो, पर कुछ देर में ही इस क्रांतिकारी चादर की धूल झड़ गयी।
  अब लोग राहुल बाबा से पूछ रहे हैं कि यदि तुम्हारा इस कानून से इतना विरोध है, तो जब सारी सरकार इसे स्वीकार कर रही थी, तब तुम और तुम्हारी मम्मीश्री कहां थे ? क्या तुम्हारी 'बिल्ली' इच्छा के बिना म्याऊं कर सकती है?
  लेकिन अब क्या करें ? डेढ़ साल पहले उ़प्र. की एक चुनावी सभा में भी उन्होंने ऐसे ही कुर्ते की बाहें चढ़ाकर एक कागज फाड़ा था। सोचा था जनता इससे प्रभावित होगी, पर लोगों ने कुर्ते की बाहें ही आधी कर दीं। जितने सांसद पिछले लोकसभा चुनाव में जीते थे, विधायकों की संख्या उससे भी कम रह गयी। अब दूसरी बार उन्होंने ऐसा ही क्रांतिकारी कदम उठाया है। राम जी भली करें।
  कुछ लोग इस कवायद को ह्यखोदा पहाड़ और निकला चूहा़.़ह्ण या ह्यबहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का़.ह्ण आदि बता रहे हैं। वे चाहे जो कहें; पर मैं तो इस फटे पोस्टर से अपने पप्पू की कापी की जिल्द बनाऊंगा। पोस्टर से भले ही जीरो निकला हो, पर उसका कागज बहुत सुंदर है, इसमें कोई संदेह नहीं। विजय कुमार

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