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मनुष्य स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु या मित्र होता है

by
Sep 28, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Sep 2013 13:49:19

  पिछले दिनों केन्या की राजधानी नैरोबी और पाकिस्तान के पेशावर में जिहादी हमले हुए। उन हमलावरों की नजर में वे जो कर रहे हैं वही उन्हें इस जीवन से मुक्त करेगा। किन्तु जीवन की सच्चाई यह है कि मनुष्य जैसा कर्म करेगा वैसा फल जरूर भोगेगा। इसी प्रसंग को स्वामी विवेकानन्द ने आज से 113 वर्ष पूर्व वेदान्त सोसायटी, न्यूयार्क में रखा था। यहां स्वामी जी के विचारों को पढ़ें।

भारत के विभिन्न सम्प्रदाय, द्वैत या अद्वैत की केन्द्रीय धारणा से उद्भूत हुए हैं। वे सभी वेदान्त के अन्तर्गत हैं और सबकी व्याख्या उनके द्वारा की गयी है। उनका अन्तिम सार एकत्व या अद्वैत की शिक्षा है। यह जिसे हम अनेक के रूप में देखते हैं, ईश्वर है। हम भौतिक द्रव, जगत तथा विविध संवेद्यों का प्रत्यक्ष करते हैं। किन्तु है केवल एक ही सत्ता।
ये विभिध  नाम, उस एक ही अभिव्यक्ति में केवल परिमाण की भिन्नता को प्रकट करते हैं। आज का कीट कल का ईश्वर है। ये भिन्नताएं, जिनसे हम इतना प्रेम करते हैं, एक असीम तथ्य के अंश हैं और उनमें भिन्नता केवल अभिव्यक्ति के परिमाण में ही है। वह एक असीम तथ्य है-मुक्ति की उपलब्धि।
प्रणाली के विषय में हम चाहे जितनी भूल में क्यों न हों, हमारा सारा संघर्ष वास्तव में मुक्ति के लिए है। मनुष्य की अतृप्त पिपासा का रहस्य यही लक्ष्य है। हिन्दू कहता है, बौद्ध कहता है कि मनुष्य पिपासा की एक जलती हुई अतृप्ति तथा अधिकाधिक के लिए है। आप अमरीकी लोग सदैव अधिक सुख, अधिक भोग की खोज में रहते हैं। आप सन्तुष्ट नहीं किए जा सकते, यह सत्य है, पर अंतराल में, जो आप खोजते हैं, वह मुक्ति ही है।
कामना का यह विस्तार वास्तव में मनुष्य की अपनी ही असीमता का चिह्न है। चूंकि वह असीम है, इसलिए वह केवल तभी संतुष्ट किया जा सकता है, जब उसकी कामना असीम हो और उसकी परितुष्टि भी असीम हो।
तब मनुष्य को क्या संतुष्ट कर सकता है? स्वर्ण नहीं। भोग नहीं। सौन्दर्य नहीं। उसे केवल एक असीम ही संतुष्ट कर सकता है और वह असीम वह स्वयं है। जब वह यह अनुभव कर लेता, तभी मुक्ति मिलती है।
‘यह बांसुरा, जिसके सुरों के छेद इन्द्रियां है, अपनी समस्त उत्तेजनाओं, प्रत्यक्षों और गीतों में केवल एक ही वस्तु गा रही है। वह उस लकड़ी में पुन: जाना चाहती है, जिससे वह काटी गयी थी। तू अपना अपने ही द्वारा उद्धार कर। अरे, तू अपने को डूबने न दे। क्योंकि तू स्वयं ही अपना सर्वोत्तम मित्र है और तू ही अपना महत्तम शत्रु।’
असीम की कौन सहायता कर सकता है! वह हाथ भी, जो तुम्हारे पास अन्धकार के बीच से आएगा, तुम्हारा अपना ही हाथ होगा।
इन सबके दो कारण, भय और कामना हैं और कौन उनकी सृष्टि करता है? हम स्वयं। हमारा जीवन केवल एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न को जाना ही तो है। असीम स्वप्नद्रष्टा मानव ससीम स्वप्न देख रहा है। अहा, उसकी महिमा है कि कुछ भी बाह्य वस्तु शाश्वत नहीं हो सकती! जिनके हृदय यह सुनकर हिल जाते हैं कि इस सापेक्ष संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता, उनका आशय क्या है, यह वे बहत कम जानते हैं। मैं असीम नीलाकाश हूं। मेरे ऊपर से ये विभिन्न रंगों के बादल निकलते हैं, एक क्षण रहते हैं, अंतर्धान हो जाते हैं। मैं वही शाश्वत नील हूं। मैं द्रष्टा हूं, सबका वही शाश्वत द्रष्टा। मैं देखता हूं, इसलिए प्रकृति का अस्तित्व है। मैं नहीं देखता, इसलिए उसका अस्तित्व नहीं है। यदि यह असीम एकता एक क्षण के लिए भी भंग हो जाय तो हममें से एक भी देख और बोल नहीं पाएगा।
सत्य, एकमात्र सत्य अद्वैतवादियों का लक्ष्य है। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पथा विततो देवयान: ‘सत्य ही की विजय होती है, मिथ्या को कभी विजय नहीं मिलती, सत्य से ही देवयान मार्ग की प्राप्ति होती है।’ (मुण्डकोपनिषद्, 3/1/6) सत्य की पताका सभी उड़ाया करते हैं, किन्तु यह केवल दुर्बलों को पद दलति करने के लिए। तुम अपने ईश्वर विषयक द्वैतवदात्मक विचार लेकर किसी बेचारे प्रतिमापूजक के साथ विवाद करने जा रहे हो, सोच रहे हो, तुम बड़े युक्तिवादी हो, उसे अनायास ही परास्त कर सकते हो, यदि वह उल्टे तुम्हारे ही वैयक्तिक ईश्वर को उड़ा दे-उसे काल्पनिक कहे तो फिर तुम्हारी क्या दशा हो?’ तब तुम धर्म की दुहाई देने लगते हो, अपने प्रतिद्वन्द्वी को नास्तिक नाम से पुकार कर चिल्ल-पों मचाने लगते हो, और यह तो दुर्बल मनुष्यों का सदा ही नारा रहा है-जो मुझे परास्त करेगा वह घोर नास्तिक है! यदि युक्तिवादी होना चाहते हो तो आदि से अंत तक युक्तिवादी ही बने रहो, और अगर न रह सको तो तुम अपने लिए जितनी स्वाधीनता चाहते हो, उतनी ही दूसरे को भी क्यों नहीं देते? तुम इस तरह के ईश्वर का अस्तित्व कैसे प्रमाणित करोगे? दूसरी ओर, वह प्राय: किया जा सकता है। ईश्वर के अस्तित्व के सम्बंध में रंचमात्र प्रमाण नहीं, बल्कि नास्तित्व के सम्बंध में कुछ अति प्रबंल प्रमाण है भी। तुम्हारा ईश्वर, उसके गुण, द्रव्यस्वरूप असंख्य जीवात्मा, प्रत्येक जीवात्मा का एक व्यष्टि भाव, इन सबको लेकर तुम उसका अस्तित्व कैसे प्रमाणित कर सकते हो? तुम व्यक्ति हो किस विषय में? देह के सम्बंध में तुम व्यक्ति हो ही नहीं, क्योंकि इस समय प्राचीन बौद्धों की अपेक्षा तुम्हें और अच्छी तरह मालूम है कि जो जड़राशि कभी सूर्य में रही होगी, वही तुममें आ गयी है, और वही तुम्हारे भीतर से निकलकर वनस्पतियों में चली जा सकती है। इस तरह तुम्हारा व्यक्तित्व कहां रह जाता है? तुम्हारे भीतर आज रात एक तरह का विचार है तो   कल सुबह दूसरे तरह का। तुम उसी रीति से अब विचार नहीं करते जिस रीति से बचपन में करते थे, कोई व्यक्ति अपनी युवावस्था में जिस ढंग से विचार करता था, वैसे वृद्धावस्था में नहीं करता। तो फिर तुम्हारा व्यक्तित्व कहां रह जाता है? यह मत कहो कि ज्ञान में ही तुम्हारा व्यक्तित्व है- ज्ञान अहंकार मात्र है और यह तुम्हारे प्रकृत अस्तित्व के एक बहुत छोटे अंश में व्याप्त है। जब मैं तुमसे बातचीत करता हूं, तब मेरी सभी इन्द्रियां काम करती रहती है, परन्तु उनके सम्बंध में मैं कुछ नहीं जान सकता। यदि वस्तु की सत्ता का प्रमाण ज्ञान ही हो तो कहना पड़ेगा कि उनका (इन्द्रियों का) अस्तित्व नहीं है, क्योंकि मुझे उनके अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता। तो अब तुम अपने वैयक्तिक ईश्वर सम्बंधी सिद्धान्तों को लेकर कहां रह जाते हो? इस तरह का ईश्वर तुम कैसे प्रमाणित कर सकते हो? और चूंकि हम कमजोर, अपवित्र और संसार में अत्यन्त हेय और अधम हैं, इसलिए इस काल्पनिक सत्ता के सामने घुटने टेककर बैठ जाना चाहिए? दूसरी ओर, बौद्ध, तुमसे कहेंगे, तुम अपने को इस तरह कहकर केवल झूठ ही नहीं कहते, किन्तु तुम अपनी सन्तानों के लिए घोर पाप का संचय कर रहे हो क्योंकि स्मरण रहे, यह संसार एक प्रकार का सम्मोहन है, मनुष्य जैसा सोचते हैं, वैसे ही हो जाते है।

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