आग लगाने वालों को नहीं सुहाते साज
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आग लगाने वालों को नहीं सुहाते साज

by
Sep 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Sep 2013 15:03:22

रागों से दुखती रग
दहशतगर्दी और अलगाववादी सोच में डूबे खुद को ह्यकश्मीरीह्ण बताने वाले सैयद अली शाह जिलानी इस कदर कश्मीरियत के खिलाफ हैं कि कश्मीर की मिट्टी के गीत संगीत से भी उन्हें चिढ़ है। उन्हें कश्मीर के इतिहास से भी चिढ़ है क्योंकि वह यहां की धरती के हिन्दू आस्था का एक प्रमुख केन्द्र होने की बात पुख्ता तरीके से रखता है। यहां कितने ही मंदिर थे जो सनातन धर्म के वास्तुशिल्प के आधार पर बने थे। यही वही धरती है जहां आदि शंकराचार्य के चरण पड़े थे और उन्होंने एक मंदिर स्थापित किया था। डल झील को निहारता बर्फ ढका हरि पर्वत है, तो क्षीर भवानी का सिद्घ पीठ भी है, जहां आतंकियों की धमकियों को नजरअंदाज करते हुए, नवरात्रि पर भक्तों की भारी भीड़ जुटती है।
बात शुरू करते हैं नई दिल्ली स्थित जर्मनी के राजदूतावास के संगीतमय आयोजन ह्यअहसास-ए-कश्मीरह्ण से। शालीमार बाग में इस कार्यक्रम में भारतीय मूल के दुनिया के जाने माने संगीतकार जुबिन मेहता के आर्केस्ट्रा और कश्मीरी लोक संगीत में माहिर ह्यसोज-ओ-साजह्ण मंडली के तकरीबन 20 कश्मीरी वादकों ने अपने संगीत के जरिए कश्मीर का अहसास कराने की बात सुनकर अलगाववादी भड़क गए। संतूर, रबाब और सारंग के स्वरों में श्रीनगर के रहने वाले संतूर वादक अभय सोपोरी की संगीत रचना की प्रस्तुति की कल्पना से खुश होने की बजाय वे जल-भुन गए। क्योंकि जिलानी नहीं चाहते कि घाटी के लोग अपने ही मूल संस्कारों, संस्कृति, संगीत, सरोकारों वगैरह से घुलें-मिलें। जिलानी ने उस दिन कश्मीर बंद का ऐलान किया था जबकि एक और अलगाववादी 'गुट कोएलीशन ऑफ सिविल सोसायटी इन कश्मीर' ने चिढ़कर शालीमार बाग से कुछ किलोमीटर के फासले पर लाल चौक पर उसी वक्त अपना ही ह्यहकीकते कश्मीरह्ण कार्यक्रम करने की ठानी थी। इस संस्था ने जुबिन मेहता वाले कार्यक्रम का यह कहते हुए विरोध किया था कि यह कश्मीर और दुनिया के लोगों को गुमराह करने की कोशिश है। जिलानी जैसों ने कार्यक्रम का विरोध करते हुए कहा था कि यह विवादित इलाका है जहां कैसी भी अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक, सांस्कृतिक या खेल संबंधी गतिविधि का गलत संदेश जाएगा। जिलानी ने इमामों और मौलवियों को भी उकसाया कि वे घाटी के लोगों को बताएं कि कैसे 'यह कार्यक्रम उनके लिए ठीक नहीं है।' वैसे भी, वादी में शोले भड़काए रखकर उसे अस्थिर बनाए रखते हुए सीमा पार के अपने आकाओं को खुश करना ही जिसकी जिन्दगी का मकसद हो उसे संगीत के स्वर क्यों कर सुहाएंगे। कश्मीरियों के नाम पर यूं दिखावटी आंसू बहाने वाले जिलानी की उस बात का एकदम सही जवाब दिया था कश्मीर के ही मशहूर संगीतकार वहीद जिलानी ने। उनका कहना था, कला, संस्कृति और नाटक वगैरह तो ऐसे खास क्षेत्र हैं जिन्हें सियासत से अलग रखा जाना चाहिए।   

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