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माह महादेव का!

by
Aug 3, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Aug 2013 16:00:41

 

सावन में प्रकृति धरती को पानी से नहलाती है और शिवभक्त भगवान भोलेनाथ के जलाभिषेक हेतु उमड़ते हैं- बिल्कुल सावन के मेघों के ही समान। उनकी भक्ति भावना गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों के जल का रूप लेकर महादेव पर जल सरसाती है। यूं तो सभी नदियों का जल शिव-जलाभिषेक के लिए प्रयोग किया जा सकता है, पर गंगावारि की बात ही अलग है। विष्णु के चरणों से निकली गंगा को स्वयं शिव ने जटाओं में धारण किया। इसीलिए गंगावारि को ब्रह्मवारि भी कहा गया। गंगा जल लेकर सैकड़ों और कई बार हजार से भी ज्यादा किलोमीटर पैदल चलकर विभिन्न शिवालयों, ज्योतिर्लिंगों पर कांवड़िये जलाभिषेक करते हैं। यह परम्परा आज की नहीं, सदियों पुरानी है।

शिव के विषपान से प्रारम्भ

पुराणों व अन्य ग्रंथों में समुद्र मंथन का उल्लेख है। अमृत-प्राप्ति की लालसा से देवों-असुरों ने मिलकर सागर मथा। पर अमृत से पूर्व हलाहल विष प्रगट हुआ। सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव ने उसे अपने कण्ठ में धारण किया। इस उग्र विष के प्रभाव से उनका गला नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये। विष के कारण ही भगवान के शरीर में गर्मी का प्रकोप हुआ। तब देवताओं ने उनका जलाभिशेक किया ताकि वह असह्य उष्णता शांत हो। शिव के शीश पर विराजमान गंगा-व चंद्रमा- दोनों शीतलतादायक हैं, अत: शंकर जी को प्रिय हैं।

सावन में क्यों?

यूं तो पूरे वर्ष शिव के निराकार स्वरूप-शिव पिंडी पर जल चढ़ाना शुभ है- फाल्गुन मास में पड़ने वाली महाशिवरात्रि, जब शिव-पार्वती विवाह सम्पन्न हुआ, भी अति महात्म्य पूर्ण है, पर सावन मास में समुद्र मंथन एवं शिव द्वारा हलाहल-पान होने के कारण यह शिवरात्रि जलाभिषेक की दृष्टि से विशेष हो जाती है।

समुद्र मंथन सतयुग की घटना है। माना जाता है, तब से ही शिव को जल चढ़ाना प्रारम्भ हुआ था। त्रेता युग में भगवान परशुराम द्वारा पुरा महादेव (जिला बागपत) में तथा श्रीराम द्वारा रामेश्वरम् में जलाभिषेक के वर्णन आते हैं।

संत एकनाथ द्वारा अनोखा तर्पण

महान संत एकनाथ (1533-1599 ई.) की कांवड़ यात्रा उल्लेखीय है। वे अपने साथियों के साथ प्रयाग (संगम) से पवित्र गंगाजल की कांवड़ लेकर रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाने जा रहे थे। मार्ग में प्यास से तड़पते एक गधे को उन्होंने अपनी कांवड़ का पूरा जल पिला दिया। मंडली द्वारा आश्चर्य व्यक्त करने पर उन्होंने कहा था  कि गधा भी शिव का ही एक रूप है। उधर रामेश्वरम् के पुजारी ने भगवान की ध्वनि का श्रवण किया- 'एकनाथ द्वारा गधे को पिलाया जल मुझे मिल गया है'।

कांवड़ यात्रा–एक कठोर तप

'कांवड़ यात्रा' नामक पुस्तिका के विद्वान लेखक तथा इस विषय पर गहरा अनुसंधान करने वाले पं. सुमंत्र आचार्य कहते हैं कि कांवड़ यात्रा एक संकल्प है, एक अनुष्ठान तो है ही, हठयोग का एक सोपान भी है। यह शिवधर्म पालन का व्रत है। शिवपुराण में शिव-धर्म के पांच अंग बताये गये हैं। कांवड़िये इन सब के पालन का प्रयास करते हैं-

तप– कांवड़ यात्रा में शारीरिक तप- पद यात्रा- ब्रह्मचर्य, सादा आहार, धूप-वर्षा सहन की जाती है।

कर्म– पूजन, अर्चन, अभिषेक, भजन, नर्तन, कीर्तन किया जाता है।

जप– ँ़ नम: शिवाय, बम-बम, हर-हर आदि का निरंतर मानसिक अथवा वाणी द्वारा जप होता है।

ध्यान– सोते, जागते, चलते, शिव का ध्यान करते हैं।

ज्ञान– साधु सत्संग, चर्चा द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

कांवड़ियों के कठोर नियम

अनेक प्रकार की कांवड़ चलन में हैं। पर सबके लिए कठोर नियम हैं। 'खड़ी कांवड़' का जल गंगा में खड़े होकर भरा जाता है, और फिर शिवालय तक पहुंचने से पहले इसे कहीं रखा या लटकाया नहीं जा सकता। दिनभर अपने कंधे और रात्रि विश्राम के समय किसी साथी के कंधे पर ही इसे रखना होता है। बैठी कांवड़ को मार्ग में विश्राम के समय रखा जा सकता है, लेकिन सदा अपने से ऊंचे व स्वच्छ स्थान पर ही, अन्यत्र कदापि नहीं। झूला कांवड़ विश्राम के समय झूले के समान लटकायी जा सकती है। समूह में चलने वाले कांवड़िये बड़ी सामूहिक कांवड़ और डाक कांवड़ भी लाते हैं। पर चाहे किसी भी प्रकार की कांवड़ लायी जाये, पवित्रता का भाव तथा कठोर नियमों का पालन एक सा रहता है।

प्रमुख अभिषेक स्थल

मेरठ के निकट बागपत जिले का पुरा महादेव मंदिर अति प्राचीन मान्यता वाला शिवपीठ है। यहां स्वयं भगवान परशुराम ने गंगाजल लाकर शिवाभिषेक किया था। हर साल शिवरात्रि पर लगभग 20 लाख कांवड़िये यहां जल चढ़ाते हैं। मेरठ नगर में औघड़नाथ शिवमन्दिर भी बड़ा प्राचीन है। यह 1857 की क्रांति का उद्गम भी माना जाता है। यहां पर 6 से 8 लाख कांवड़िये जलार्पित करते हैं। मेरठ नगर से हर सावन में साठ लाख से अधिक कांवड़िये अन्यत्र जल चढ़ाने हेतु गुजरते हैं। ये लोग पश्चिम उत्तर प्रदेश के अन्य नगरों, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान के शिवालयों में शिवरात्रि पर जलाभिषेक करने पहुंचते हैं।

इस वर्ष उत्तराखण्ड में जल-प्रलय के कारण आशंका थी कि कांवड़ियों की संख्या कम रहेगी। पर शिवरात्रि से ठीक एक सप्ताह पूर्व, 30 जुलाई को प्रशासन द्वारा जानकारी दी गई कि 62 लाख कांवड़िये उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर चुके थे। अब तक यह संख्या 75 लाख से ऊपर पहुंच गई है। यानी गत वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष लगभग 10 लाख अधिक कांवड़िये शिवभक्ति की इस कठिन यात्रा पर निकलेंगे।

इस विराट मानव श्रृंखला में केवल युवक ही नहीं, वृद्ध, किशोर और 12 वर्ष से कम आयु के बालक भी हैं। ऐसी महिलाएं भी हैं जो अपने गोद के शिशु को साथ लेकर चल रही हैं। उनकी हिम्मत अद्भुत है। शिशु की आवश्यकताएं पूरी करने के साथ-साथ अपनी मंजिल की ओर भी निरंतर बढ़ना होता है ताकि शिवरात्रि (5 अगस्त) पर अपने अभीष्ट शिवालय में पहुंच जायें। n मेरठ से अजय मित्तल

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