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मध्य-पूर्व की धरती पिछले दो वर्ष से खून से लथपथ है। इसकी शुरुआत उत्तरी अफ्रीका के ट्यूनीशिया, मोरक्को और अल्जीरिया से हुई, जिसे 'अरब वसंत' की संज्ञा दी गई। कुछ ही सप्ताह में यह आन्दोलन मिस्र की धरती पर पहुंच गया। अंत में विजय क्रांतिकारियों की हुई और हसनी मुबारक की सरकार ढह गई। क्रांति की यह लहर पड़ोसी देश लीबिया और सीरिया में पहुंची। कर्नल गद्दाफी का तो तख्ता जनता पलट देने में सफल हो गई, लेकिन सीरिया में आज भी यह भीषण लड़ाई जारी है। अब समाचार मिले हैं कि तुकर्ी भी इससे नहीं बच पाया है। तुकर्ी यूरोप महाद्वीप में है, लेकिन मजहब के मामले में वह मध्य-पूर्व के इस्लामी देशों से जुड़ा हुआ है। एक समय था कि तुकर्ी में कमाल पाशा ने ऐसा कमाल किया था कि जिससे प्राचीन रूढ़िवादी मुस्लिम सत्ता हिल गई थी। कमाल पाशा का जादू चारों ओर देखने को मिला। जिसका परिणाम यह हुआ कि आस-पास के इस्लामी देशों में परिवर्तन की लहर दौड़ गई। लेकिन दूसरे महायुद्ध के पश्चात् जब दुनिया दो महाशक्तियों के बीच बंट गई उस समय तुकर्ी इतना पिछड़ा और गरीब देश हो गया कि उसे 'यूरोप के बीमार' की संज्ञा दी जाने लगी। मुस्लिम ब्लाक और तेल की रेलपेल ने यहां भी चमत्कार किया और तुकर्ी में भी मुस्लिम राष्ट्रवाद के गीत गाए जाने लगे। इस परिवर्तन में तुकर्ी को आर्थिक लाभ तो बहुत नहीं हुआ लेकिन वहां भी मिस्र और सीरिया की इखवानुल मुस्लिमीन का प्रभाव बढ़ता चला गया। कुछ वर्ष पूर्व तैयब अरदगान के नेतृत्व में जो सरकार बनी थी वह इखवानुल की ही छाया है। दो आम चुनाव जीत जाने के बाद भी अरदगान तुकर्ी की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को नहीं बदल सके। अब पड़ोसी मुस्लिम देशों में परिवर्तन की जो हवा बह रही है वह तुकर्ी तक पहुंचती दिख रही है।
घमासान युद्ध
इसकी शुरुआत एक छोटे से आन्दोलन के रूप में हो चुकी है। इसकी शुरुआत भी एक चौक से ही हुई है जिसका नाम तकसीम चौक है। पाठकों को याद होगा कि मिस्र में जो क्रांति हुई वह तहरीर चौक से हुई थी। तहरीर का अर्थ होता है लिखा हुआ लेकिन तकसीम का अर्थ होता है विभाजन। अब तक तुकर्ी के लोग यह नहीं समझ पाए हैं कि क्रांतिकारी किस चीज का बंटवारा चाहते हैं, देश का या सत्ता का। उक्त विवाद तकसीम चौक के आसपास 'प्रोगेसिव प्रोजेक्ट' के अन्तर्गत वृक्षों के काटे जाने का था। गाजी पार्क के 600 वृक्ष काट कर एक मस्जिद, एक शॉपिंग मॉल एवं सैनिकों के बैरक बनाने का काम प्रारम्भ होते ही युवाओं की भीड़ ने एक हंगामा खड़ा कर दिया। नवयुवकों की टोली का कहना था कि इस्ताम्बुल (देश की राजधानी जिसका पुराना नाम कुसतुनतुनिया था) में हरियाली अत्यंत कम है। इस चौराहे पर जो नगर का एक हरा-भरा क्षेत्र है उसके पेड़ हम किसी कीमत पर काटने नहीं देंगे। बस इतनी सी बात पर वहां की पुलिस और युवाओं के बीच घमासान युद्ध छिड़ गया। इस्ताम्बुल के जिस किसी नागरिक ने यह समाचार सुना वह भी युवकों के साथ इस आन्दोलन में जुड़ गया। पुलिस के पश्चात् सेना भी शहर के अनेक भागों में युवाओं के साथ मारपीट करने लगी। फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार दस लोग इस हिंसा के शिकार हो गए। पेड़ काटे जाने के आक्रोश को लेकर युवा इतने क्रोधित हो गए कि सरकार के विरुद्ध मोर्चा बन गया। तैयब अरदगान पिछले दस वर्षों से प्रधानमंत्री हैं। उनके विरुद्ध कभी किसी ने आवाज बुलंद नहीं की। इसलिए यह समझा जा सकता है कि वे तत्व जो कभी कमाल पाशा की रूढ़िवादी विरोधी गतिविधियों के समर्थक थे वे पुन: राजनीति में सक्रिय हो गए हैं। पेड़ काटना तो मात्र एक बहाना था उन्हें तो मिस्र जैसी क्रांति का उद्घोष करना था इसलिए लोग सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए।
अरदगान के विरोधी
अरदगान के पक्षधर यह कह रहे हैं कि पिछले दस वर्षों में अरदगान के कार्यकाल में तुकर्ी ने जो प्रगति की है उसे ये लोग भुला देना चाहते हैं। तुकर्ी और अरदगान के विरोधी अनेक मुस्लिम देशों में फैले हुए हैं। एक समय था कि तुकर्ी यूरोप का देश होने के कारण उसका पूर्ण रूप से पाश्चात्यकरण हो चुका था। लेकिन इस्लामी चिंतन ने इसका कायाकल्प करके तुकर्ी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से वह इस्लामी देशों का नेतृत्व कर सकता है। यूरोप को इस बात का भय हो गया है कि इस्लामीकरण की हवाएं यूरोप के अन्य देशों में भी फैल सकती हैं। यूरोप में मुस्लिम कट्टरवादी और वहां की यूरोपीय संस्कृति वाली सरकारों में टकराव चल रहा है। फ्रांस, इटली और यूनाइटेड किंगडम में मुस्लिम जनता का जो आक्रोश बढ़ रहा है उसे देखते हुए अब तुकर्ी को माध्यम बनाकर मुस्लिम कट्टरवाद सारे यूरोप में फैल सकता है। इसलिए यूरोप और अमरीका मिलकर तुकर्ी में चल रही इस्लामीकरण की आंधी को किसी तरह से रोकना चाहते हैं। तुकर्ी अब यूरोपीय यूनियन की सदस्यता की दावेदारी करने लगा है। जबकि यूरोप के देश किसी कीमत पर अपने यहां इस्लामी कट्टरवाद को घुसने नहीं देना चाहते हैं। अरदगान की सरकार ने पिछले दस वर्षों में मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कार्फ और बुर्के को अनिवार्य कर दिया। अरदगान ने तुकर्ी के संविधान में अनेक परिवर्तन कर दिए हैं। अगले वर्ष यहां अध्यक्षीय प्रणाली प्रारम्भ हो जाएगी। इसका सीधा अर्थ होगा कि अरदगान राष्ट्रपति बनकर तुकर्ी के और भी कद्दावर नेता बन जाएंगे। अरदगान ने अपने यहां पिछले 30 वर्षों से चली आ रही कुर्दों की बगावत को भी समाप्त कर दिया है। कुर्द अरब प्रायद्वीप के चार देशों में फैले हुए हैं। यदि उनकी बगावत समाप्त हो जाएगी तो इससे यूरोप और अमरीका के हितों को भारी नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए तुकर्ी किसी भी तरह से अस्थिर रहे यह पश्चिमी राष्ट्रों की पहली आवश्यकता होगी। इसी के अनुरूप पश्चिमी राष्ट्र अपनी नीति पर चलते रहेंगे। अंकारा से मिले समाचारों के अनुसार रज्जब तैयब अरदगान अपने विरोधियों से बातचीत करने के लिए तैयार हो गए हैं। उन्होंने गाजी पार्क में होने वाले परिवर्तन पर रोक लगा दी। इतना ही नहीं इस पूरे मामले को वहां की अदालत को सुपुर्द कर दिया है। उनका कहना है कि अदालत जब तक फैसला नहीं सुनाती वहां कोई निर्माण कार्य नहीं होगा। अदालत ने गाजी पार्क में सेना को तैनात कर दिया है और सख्ती से कहा है कि एक भी पेड़ नहीं काटा जाए। जो पेड़ काट दिए गए हैं उनके स्थान पर तुरन्त दूसरे पेड़ लगाने की कार्रवाई शुरू कर दी गई है। तकसीम इत्तिहाद नामक संगठन ने प्रधानमंत्री के इस फैसले को स्वीकार कर लिया है। लेकिन उसने यह भी कहा है कि सेना के साथ-साथ उनके लोग भी गाजी पार्क में पहरा देंगे क्योंकि सरकार और सेना के फैसलों पर उनका भरोसा नहीं है। सरकार ने जो आयोग बनाया है उसमें तकसीम इत्तिहाद ग्रुप के दो सदस्यों भी शामिल हैं।
इखवानुल की ताकत
इस्ताम्बुल के सरकारी अखबार ने लिखा है कि तकसीम इत्तिहादियों को यह समझ लेना चाहिए कि अरदगान हसनी मुबारक नहीं हैं। वे अपने निर्णय से पीछे हटने वाले नहीं हैं। उनका मत है कि तकसीम इत्तिहादी अरदगान के साथ हसनी मुबारक जैसा व्यववहार करना चाहते हैं। उन्हें पद से हटा करके वे तकसीम चौक पर तुकर्ी सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं। फाइनेंशियल टाइम्स का विश्लेषण है कि कमाल पाशा के समर्थक तुकर्ी को पुराने रूप में देखना चाहते हैं। वे इस्लामी कानून के विरोधी हैं। उनका कहना है कि सियासत और मजहब दो अलग-अलग चीजें हैं। इसलिए तुकर्ी को उसके पुराने इतिहास में लौटा देना चाहिए।
तुर्किस्तान में जबसे अरदगान की सरकार आई है उससे प्रभावित होकर कट्टरवादी दल इखवानुल मुस्लिमीन को ताकत मिल गई है। यह दल हसनी मुबारक और हाफिज असर का घोर विरोधी रहा है। उनकी सत्ता पलट देने के पश्चात् ही इन देशों में इस्लामी लहर पैदा हुई है। मध्यपूर्व की वर्तमान राजनीति पश्चिमी राष्ट्रों के लिए बड़ी चुनौती है। क्योंकि इस्लाम के नाम पर मुस्लिम देश खनिज तेल पर अपना प्रभुत्व जमा लेना चाहते हैं। ऐसा करने में वे सफल होते हैं तो उनकी अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचेगी। अरब देश मिलकर उनका बहिष्कार कर देते हैं तो उनका कारोबार ठप ही नहीं होगा, बल्कि उनके घरों में अंधकार भी छा सकता है। मुजफ्फर हुसैन
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