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पिछले कुछ समय से 'न्यूयार्क टाइम्स' में जो समाचार प्रकाशित हो रहे हैं उनसे आशंका होने लगी है कि इस्लाम के दोनों पंथों (शिया, सुन्नी) की लड़ाई तीसरे विश्व युद्ध की शक्ल न ले ले। मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों की यह लड़ाई विस्तार लेने लगी है। इस्लाम के उद्भव के साथ ही अरबस्तान की पुरानी लड़ाई, जो कल तक अरब और अजम के नाम पर लड़ी जाती थी, शिया और सुन्नी संघर्ष में बदल गई। मुस्लिम देशों पर जब तक यूरोपीय ताकतों का दबदबा बना रहा तब तक उक्त संघर्ष स्थानीय स्तर पर चला करता था। लेकिन राष्ट्र संघ की स्थापना और फिर मुस्लिम राष्ट्रों में खनिज तेल का उत्पादन प्रतिस्पर्धा का कारण बनता चला गया तो धरती के नीचे दबा शिया सुन्नी विवाद करवटें बदलने लगा। दुनिया के अन्य देशों का भले ही शिया-सुन्नियों से कोई सम्बंध न हो तब भी खनिज तेल एवं इस क्षेत्र की राजनीतिक स्थिति विश्व की अन्य बड़ी ताकतों को इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य कर देती है।
तेज होती प्रतिस्पर्धा
पिछले दिनों मध्य-पूर्व के इस्लामी देशों में अपनी हुकूमतों में बदलाव लाने का जो आन्दोलन चल पड़ा वह भी भीतर से इसी भावना को व्यक्त कर रहा था। लेकिन जब इस आन्दोलन की हवा सीरिया, लेबनान, जोर्डन और यमन से निकल कर अरब प्रायद्वीप की ओर बढ़ी तो फिर उससे शिया-सुन्नी की गंध निकलने लगी। जो छोटे-बड़े देश सऊदी अरब के प्रभाव में हैं उनके यहां सुन्नी हितों की रक्षा की बात चल पड़ी। जबकि जो ईरान से प्रभावित थे वे शिया आस्था पर राग अलापने लगे। अफगानिस्तान में भी अलग-अलग गुटों का बंटवारा शिया और सुन्नी के नाम पर हो गया। इससे पाकिस्तान भी वंचित नहीं रहा। पाकिस्तान में हजारा मुसलमान शिया पंथी हैं इसलिए उनके विरोध में बहुत पहले से ही सुन्नी मुसलमानों ने लश्करे झंगवी नामक संगठन तैयार कर लिया। मुशर्रफ से पूर्व जब नवाज शरीफ का शासन था तो उन्होंने लश्करे झंगवी को हर प्रकार की सुविधा और सुरक्षा दिलवाई। इसलिए इस समय पाकिस्तान में इन समाचारों ने एक बार फिर से जोर पकड़ लिया है कि नवाज शरीफ के आशीर्वाद से पाकिस्तान में एक बार फिर सुन्नी-शिया विवाद जोर पकड़ सकता है। कुल मिलाकर इस क्षेत्र में शिया-सुन्नी प्रतिस्पर्धा तेजी से बढ़ने वाली है।
फूट डालने की कोशिश
ईरान में अयातुल्ला खुमैनी के शासन से शिया सम्प्रदाय ताकतवर बना है। ईरान ने इस मामले में सऊदी अरब जैसे बड़े और अमरीका की ताकत रखने वाले देश से भी टक्कर ली है। हज यात्रा का समय हो या फिर अरब-स्तान में कोई भी मसला अब वह शिया-सुन्नी रंग में देखा जाता है। जब से अहमदी निजाद राष्ट्रपति बने हैं उन्होंने परमाणु शक्ति को आधार बनाकर ईरान का कद दुनिया में ऊंचा करने की नीति अपनाई है। इस्रायल को ईरान की चुनौती इस कड़ी का महत्वपूर्ण अंग है। ईरान ने अमरीका को दबाव में लाने के लिए फिलीस्तीन के मसले को नया रूप देकर इस्लामी जगत में अपनी महत्वपूर्ण स्थिति बना ली है। वास्तविकता तो यह है कि इस्लामी देशों में सुन्नी-शिया के नाम पर अलगाव पैदा करके पश्चिमी राष्ट्र अपनी राजनीतिक धार तेज करना चाहते हैं। लेकिन इस बात को भी नाकारा नहीं जा सकता है कि निजाद ने शिया ताकत को मजबूत कर जहां सुन्नी देशों में फूट डालने की कोशिश की है, वहीं फिलीस्तीन को यह विश्वास दिलाया है कि यही वह समय है जब इस मामले को सुलझाया जा सकता है। इस्रायल अपने अस्तित्व के लिए अमरीका के साथ इस क्षेत्र में शिया-सुन्नी विवाद की खाई को अधिक चौड़ा करना चाहता है लेकिन इस समय शिया लॉबी इतनी भारी पड़ रही है कि अमरीका भी उनके सामने बेबस है।
अमरीका ने शियाओं को अपने पक्ष में करने के लिए सद्दाम के बाद इराक में शियाओं को अपने निकट कर लिया था। इराक में 55 प्रतिशत शिया हैं और 45 प्रतिशत सुन्नी। इसके बावजूद इराक में हमेशा ही सुन्नी सरकार रही। सद्दाम ने शियाओं पर खूब अत्याचार किए। इसलिए इस शिया बहुमत वाले देश में सद्दाम को पद से हटा दिए जाने के बाद शिया नेतृत्व में ईरान की कठपुतली सरकार बनी। नूरूल मालिकी को वहां का राष्ट्रपति बनाकर अमरीका ने सुन्नी प्रभाव कम करने का प्रयास किया। अमरीका की यह नीति थी कि एक शिया सरकार के रहते वह ईरान की शिया सरकार को भी प्रभावित कर सकेगा। कुछ दिनों तक उसकी यह नीति सफल रही। लेकिन अब मालिकी ईरान के समर्थक हो गए हैं। इसलिए अमरीका को कोई लाभ होने वाला नहीं है। बल्कि देखा जाए तो सद्दाम के चले जाने के पश्चात् अमरीका ने शिया लॉबी को मजबूत कर दिया।
महायुद्ध की पृष्ठभूमि
ईरान के निशाने पर अब इस्रायल है। निजाद ने अपने नेतृत्व में शिया लॉबी को इतना संगठित कर लिया है कि वह अमरीका से दो-दो हाथ करने के लिए भी तैयार है। यही स्थिति तीसरे महायुद्ध की पृष्ठभूमि बन सकती है। एस समय था कि तुकर्ी अमरीका का सबसे निकट का मित्र था। आज तो तुकर्ी सहित अनेक सुन्नी देश भी इस बात के पक्षधर बनते जा रहे हैं कि इस्रायल का अस्तित्व ही इस्लामी सभ्यता पर कोढ़ की तरह एक घृणित दाग है। इसलिए उसे किसी न किसी प्रकार मिटा देना चाहिए। अब यदि अमरीका इस्रायल को बचाना चाहता है तो उसके सम्मुख शिया ताकतों के सामने लड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। यानी केवल और केवल तीसरा महायुद्ध।
शिया प्रारम्भ से ही अमरीका विरोधी रहे हैं। अब तक शिया आतंकवादियों को केवल ईरान का ही समर्थन मिलता था, लेकिन जबसे सीरिया में बशरूल असद के हाथों में सत्ता के सूत्र आए हैं तब से न केवल अमरीका, बल्कि सुन्नी ताकतें भी लाचार और मजबूर होती दिखाई पड़ रही हैं। हाफिज असद के समय सीरिया के तेवर इतने तीखे नहीं थे। सीरिया में मई- 2011 में बगावत ने जन्म लिया था। उन्हीं दिनों मिस्र और लीबिया में भी परिवर्तन की ज्वाला भड़की थी। उस समय यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जस्मिन क्रांति की आंधी बशरूल असद को कुछ ही महीनों में ले उड़ेगी। लेकिन दो साल बीत जीने के बाद भी बशरूल असद के पेट का पानी तक नहीं हिला है। वास्तविकता यह है कि जब तक बशरूल असद की सरकार को गिराया नहीं जाता है तब तक ईरान की ताकत समाप्त नहीं होगी। असद के विरोधियों की सहायता अलकायदा कर रहा है। इस उलझन को और अधिक पेचीदा इस्रायल के हमले ने कर दिया। इस्रायल का कहना है कि उसका निशाना तो सीरिया था क्योंंकि हिजबुल्ला को जो हथियारों की आपूर्ति हो रही है वह उसे रोकना चाहता था। यदि सीरिया जवाब में इस्रायल पर हमला करता है तो यह आग सारे क्षेत्र में फैल सकती है, क्योंकि तुकर्ी हो या सऊदी अरब, बहरीन हो या जोर्डन यह समूह यही चाहता है कि यह युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो जाना चाहिए। इस्रायल के बीच में आ जाने से अब यह स्पष्ट हो गया है कि बशरूल असद को अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। अब उसका सीधा टकराव अलकायदा से होगा। अलकायदा सुन्नी संगठन है जो सभी शिया देशों के लिए चुनौती है।
खुली चुनौती
सीरिया में बागियों ने जबसे रसायनिक हथियारों का उपयोग शुरू कर दिया है यह राष्ट्रसंघ को खुली चुनौती है। अमरीका, इस्रायल और सुन्नी देश यदि बशरूल असद के विरोध में हैं तो उसके पक्ष में रूस, चीन और ईरान हैं। इस्रायल हो या अरब देश इन सबकी दिली इच्छा यह है कि ईरान, सीरिया और हिजबुल्लाह (शियाओं का आतंकवादी संगठन) का गठजोड़ समाप्त हो जाए। यही कारण है कि बशरूल असद के विरोधियों को तुकर्ी, सऊदी अरब, अमीरात, कतर और जोर्डन से सहायता मिल रही है। अमरीका ने अपना 250 मिलियन डॉलर का बजट सहायता के लिए दुगुनी कर दिया है। यूरोप ने आर्थिक पाबंदियों को समाप्त कर तेल की खरीदी शुरू कर दी है। पश्चिमी राष्ट्र ईरान को कमजोर करने के लिए सीरिया को निशाना बना रहे हैं। पश्चिमी राष्ट्रों की यह रणनीति है कि सीरिया के बहाने यदि ईरान औंधे मुंह गिर पड़ता है तो उनका एक बड़ा स्पर्धी अपनी मौत आप मर जाएगा। मुजफ्फर हुसैन
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