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शुक्रवार 24 मई की प्रात: दिल्ली से 80 किलोमीटर दूर भिवाड़ी (हरियाणा) में निवास के दौरान एक के बाद एक तीन मित्रों-रामदास पांडे, राम बहादुर राय और शिवकुमार गोयल ने फोन किया कि हम सबके अग्रज बालेश्वर अग्रवाल ने कल रात 9 बजे एक निजी अस्पताल में शरीर त्याग दिया। यह सूचना पाकर मैं शोक से टूट नहीं गया बल्कि बालेश्वर जी की 92 वर्ष लम्बी जीवन यात्रा आंखों के सामने घूमने लगी। उसे देखकर गर्व हुआ कि बालेश्वर जी का जीवन एक राष्ट्रभक्त, ध्येयनिष्ठ, सृजनात्मक प्रतिभा की राष्ट्रजीवन के अनेक क्षेत्रों में कर्मठ योगदान का सार्थक प्रेरणादायी उदाहरण है।
इंजीनियर स्वयंसेवक
मुझे स्मरण आया कि सन् 1945 में बालेश्वर जी से मेरा पहला परिचय तब आया जब मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बीएससी में प्रवेश लिया और बालेश्वर जी उसी वर्ष चार वर्ष की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके डालमिया नगर में इंजीनियर की नौकरी करने लगे थे। वे बीच-बीच में विश्वविद्यालय आते थे। विभिन्न छात्रावासों में घूम-घूमकर नये-पुराने स्वयंसेवकों से भेंट व परिचय करते। विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद वे संघ की शाखा पर नियमित रूप से जाने लगे थे और अपनी पढ़ाई के अंतिम वर्ष में इंजीनियरिंग शाखा के कार्यवाह की जिम्मेदारी संभालने लगे थे। उन दिनों कोई इंजीनियर संघ की शाखा चलाये यह चर्चा का विषय बन गया था। बालेश्वर जी और शाखा का प्रभाव सब ओर दृष्टिगोचर था।
उनके डालमिया नगर में रहते हुए ही फरवरी 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा। बालेश्वर जी भी गिरफ्तार कर लिये गये। पर जेल से बाहर आते ही उन्होंने इंजीनियरिंग से संन्यास ले लिया और संघ के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता की भूमिका अपना ली। उन दिनों इंजीनियर की नौकरी को लात मारना कोई छोटी बात नहीं थी। यदि वे इंजीनियर बने रहते तो पता नहीं कहां के कहां पहुंचते। किंतु उनका राष्ट्रभक्त अंतकरण इंजीनियर की नौकरी को लात मारकर राष्ट्र साधना में जुट गया। वे पूरा जीवन अविवाहित रहे, संघ के प्रचारक की कर्म-कठोर जीवनशैली अपनायी। उनकी सृजनात्मक प्रतिभा दैनिक शाखा की परिधि से बाहर निकलकर अनेक दिशाओं में कल्पना और संगठन कौशल के बल पर सफलता के नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने लगी। पहले प्रतिबंध काल में भूमिगत रहते हुए उन्होंने पटना में चन्द्रगुप्त प्रकाशन की स्थापना की, प्रवर्त्तक नामक साप्ताहिक पत्र चलाया। 1948 में दादा साहेब एवं बापूराव लेले के संयुक्त प्रयासों से स्थापित 'हिन्दुस्थान समाचार' नामक पहली हिन्दी भाषी समाचार एजेंसी के पटना कार्यालय का दायित्व संभाला और फिर उसके अ.भा.सचिव बनकर दिल्ली आ गये। उनके सचिव काल में हिन्दुस्थान समाचार का इतना विस्तार हुआ, इतना प्रभाव बढ़ा कि कुछ लोग उन्हें ही हिन्दुस्थान समाचार का जनक मानने लगे थे। बालेश्वर जी की आंखें ऐसे युवा चेहरों को खोजती रहतीं जिन्हें वे हिन्दुस्थान समाचार से जोड़ सकें। उनके मार्गदर्शन में हिन्दुस्थान समाचार पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्र बन गया। देश के कितने ही मूर्धन्य पत्रकार-यथा- डा.नंद किशोर त्रिखा, राधेश्याम शर्मा, राम बहादुर राय, आलोक मेहता, रामशरण जोशी आदि-आदि 'हिन्दुस्थान समाचार' के रास्ते ही पत्रकारिता में आये और उभरे।
सहज–सरल, सहयोगी जीवन
मेरा नाम भी बालेश्वर जी की सूची में काफी वर्षों तक रहा। वे मेरे बड़े भाई की स्थिति में पहुंच गये थे। उनके स्नेह के प्रसाद स्वरूप पीठ पर घूंसा पाने का मैं अधिकारी बन गया था। मैंने उन्हें दिल्ली में कभी आसफ अली रोड, कभी शंकर मार्केट, कभी मंडी हाउस, कभी फायर ब्रिगेड के पीछे बाराखंभा रोड पर हिन्दुस्थान समाचार के कार्यालय में बैठे देखा। भगत सिंह मार्केट उनका स्थायी ठिकाना था। उन्होंने निवास और कार्यालय के लिए कई ठिकाने बदले होंगे, पर भगत सिंह मार्केट का ठिकाना कभी नहीं छोड़ा। 1959 में जब मैं लखनऊ पाञ्चजन्य कार्यालय में था, तब मेरी एक छोटी विवाहित बहन गंभीर बीमार पड़ी। उसे दिल्ली के इर्विन अस्पताल में भर्ती कराया गया। मेरी मां उसकी सुश्रुषा के लिए दिल्ली रहना चाहती थीं, पर इर्विन अस्पताल के पास उसके रहने की व्यवस्था कहां हो, यह समस्या लेकर मैं बालेश्वर जी से मिला। उन दिनों हिन्दुस्थान समाचार का कार्यालय इर्विन अस्पताल के सामने आसफ अली रोड पर जीवन बीमा निगम बिल्डिंग में था और वहीं बालेश्वर जी के निवास की व्यवस्था भी थी। उन्होंने कहा अम्मा जी को मेरे पास छोड़कर तुम लखनऊ चले जाओ। मैं उनकी चिंता करूंगा।
1964 में लखनऊ छोड़कर दिल्ली आ गया। एक कालेज में लेक्चरर के साथ-साथ पाञ्चजन्य का प्रतिनिधि बना तो बालेश्वर जी बहुत प्रसन्न हुए। बड़े उत्साह से मुझे भारत सरकार के 'प्रेस इंफोरमेशन ब्यूरो' के हिन्दी प्रमुख अशोक जी से मिलाने ले गये। अशोक जी लखनऊ से प्रकाशित स्वतंत्र भारत दैनिक के सम्पादक रह चुके थे और मैंने भी कुछ समय वहां काम किया था। बालेश्वर जी का प्रभाव देखिए कि उन्होंने तत्काल ही मुझे भारत सरकार का अस्थायी प्रेस मान्यता पत्र दिला दिया। उन दिनों यह मान्यता पत्र प्राप्त करना बड़ा कठिन था, क्योंकि वह मिलते ही आपका नाम सभी मंत्रालयों और दूतावासों की निमंत्रण सूची में जुड़ जाता था। वहां मुफ्त शराब और मांसाहार प्राप्त हो जाता था। एक दो बार ऐसे निमंत्रण पर जाने पर मैंने पाया कि युवा पत्रकार पहले 'बार' की ओर लपकते थे, फिर प्रेस कांफ्रेंस का 'हैंड आउट' लेते थे।
सात्विक पत्रकार
1965 से 1972 तक अ.भा.समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन (एआईएनईसी) के वार्षिक सम्मेलनों में गुवाहाटी, पंचमढ़ी, शिमला, श्रीनगर, कश्मीर आदि स्थानों पर बालेश्वर जी को निकट से देखने का अवसर मिला। सम्मेलन के प्रतिनिधियों का ध्रुवीकरण दो केन्द्रों में हो जाता था। एक कांग्रेसी खेमा था (स्व.) जगप्रवेश चंद्र का और दूसरा बालेश्वर जी का। इस ध्रुवीकरण का आधार वैचारिक से अधिक जीवनशैली में निहित था। 1965 में यह अधिवेशन गुवाहाटी में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन की समाप्ति पर सब प्रतिनिधियों को पूर्वोत्तर भारत और विशेषत: चीनी आक्रमण के पश्चात पहली बार सम्पादकों को रणक्षेत्र बोमडिला तक घुमाने की सरकारी योजना थी। बसों में सवार होकर हम लोग यात्रा पर निकले। गर्मी बहुत थी, प्यास से गला सूख रहा था। शिलांग में बस रुकी और सभी प्रतिनिधि जल्दी जल्दी एक लम्बी कतार में खड़े हो गये। मैं भी प्यास बुझाने के लिए उस कतार में खड़ा हो गया। दूर से जगप्रवेश चंद्र ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा कि क्या तुम भी बालेश्वर जी का साथ छोड़कर इधर आ गये? तब मुझे ध्यान आया कि वह लम्बी कतार शराब के लिए थी। मैं शर्मा कर वहां से भागा, पानी की खोज में। उसी क्रम में रक्षा मंत्रालय हमें बोमडिला नामक स्थान पर ले गयी। वहां कड़ाके की ठंडे पड़ रही थी और हम लोगों को सैनिक जीवन का अनुभव कराने के लिए रात्रि में बंकरों में सोने की व्यवस्था की गयी। वहां की ठंड से परेशान होकर कुछ मित्रों ने आपद् धर्म के रूप में शराब या बीयर का सेवन किया, पर बालेश्वर जी अपनी आन पर अड़े रहे थे। पत्रकारिता के शिखर पर पहुंच कर पूरे भारत और विदेशों का भ्रमण करने, दूतावासों और मंत्रियों की दावतों में सम्मिलित होने के बाद भी बालेश्वर जी प्याजरहित शाकाहारी भोजन के अपने स्वभाव पर अड़िग रहे। चाय और काफी से भी दूर रहे। कभी-कभी हम लोग मजाक करते थे कि क्या चाय के बिना कोई पत्रकार बन सकता है। पर बालेश्वर जी ने एक सफल पत्रकार बनकर भी बहुत संयमित जीवन जिया।
वैश्विक दृष्टिकोण
एक समाचार एजेंसी के रूप में हिन्दुस्थान समाचार के संगठन का विस्तार करते हुए भी उनका मस्तिष्क अन्य अनेक दिशाओं में कर्म की पगडंडिया बनाता रहा। उन्होंने हिन्दुस्थान वार्षिकी का प्रकाशन आरंभ किया। युगवार्ता नाम से एक फीचर सिंडिकेट आरंभ किया। इसी कालखंड में उन्होंने नेपाल, मॉरिशस और फिजी में घनिष्ठ सम्बंध स्थापित किये। नेपाल में राजमहल से लेकर तुलसीगिरि आदि जननेताओं से उनके मैत्रीपूर्ण संबंध थे। एक समय वे नेपाली राजनीति के मार्गदर्शक माने जाते थे। उन्होंने भारत-नेपाली मैत्री संघ आरंभ किया। नेपाल के घटनाचक्र की जानकारी देने के लिए एक नियमित बुलेटिन का प्रकाशन किया। राष्ट्रसंघ के खाद्य एवं कृषि अधिकारी डा. विद्यासागर गुप्ता की श्रीलंका में नियुक्ति के दौरान वहां रामकथा से संबंधित पुरातात्विक एवं साहित्यिक सामग्री के शोधपूर्ण संकलन पर एक पुस्तिका प्रकाशित की। विद्यासागर जी के द्वारा दक्षिण पूर्वी एशिया एवं द.अफ्रीका में भारतीय मूल के प्रवासियों के बारे में अनेक पुस्तिकाएं प्रकाशित कीं। 'गोपियो' नामक संस्था की कल्पना उनके मन में उपजी।
आपातकाल के समय हिन्दुस्थान समाचार इंदिरा जी की दमननीति का शिकार बन गया। अनेक वर्ष तक बालेश्वर जी उसकी रक्षा के लिए जूझते रहे, पर अंतत: उन्हें हिन्दुस्थान समाचार का दम सरकारी शिकंजे में घुटते हुए देखना पड़ा। किंतु उनकी सृजनात्मक प्रतिभा कर्म की नयी दिशाएं खोजती रहीं। उन्हीं दिनों अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद् की रूपरेखा उनके मन में उभरी। पर अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में जाने का अर्थ यह नहीं था कि वे अपनी जड़ों से दूर हो गये। अविवाहित जीवन बिताते हुए भी वे प्रतिवर्ष विजयादशमी के पर्व पर अपने परिवार के साथ पूजन करते। कुल से आगे बढ़कर अग्रवाल समाज के प्रति भी वे अपने कर्तव्य पालन से पीछे नहीं हटे। अग्रोहा विकास ट्रस्ट के महासचिव का दायित्व भी उन्होंने निष्ठापूर्वक निभाया। उसी प्रसंग में एक बार उनके साथ अग्रोहा जाने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ। उनके राष्ट्र समर्पित कर्मठ जीवन से अभिभूत अग्रवाल समाज ने उनका अभिनंदन करने और एक लाख रुपये की सम्मान राशि उन्हें भेंट करने का कार्यक्रम आयोजित किया। उस कार्यक्रम में मैं उपस्थित था। वहां बालेश्वर जी ने आयोजकों को फटकारते हुए कहा कि मेरे बार-बार मना करने पर भी यह कार्यक्रम रखा गया। मुझे इस पैसे का क्या करना है? आपकी भावनाओं का आदर करते हुए मैं इसे ग्रहण करता हूं, पर साथ ही इसे सार्वजनिक उपयोग के लिए समर्पित करता हूं।
कर्म–कठोर जीवन
कई बार आश्चर्य होता है कि अनेक स्तरों पर सक्रिय रहते हुए, देश-विदेश में सामान्य से प्रभावशाली लोगों तक सहज संबंध बनाने का कार्य बालेश्वर जी कैसे कर पाते थे। इसका कारण मुझे समझ में आया- उनकी समय योजकता और समय पालन की प्रवृत्ति। यदि आप निर्धारित समय पर नहीं पहुंचे तो बालेश्वर जी का क्रोध झेलना ही पडेगा। वे पूरे दिन का समय विभाजन करके चलते थे। एक बार वे मेरे रहते प्रयाग आये। आते ही उन्होंने बैग से इलाहाबाद का रोडमैप निकाला, जहां- जहां उन्हें जाना था सब स्थानों को उस नक्शे पर देखकर अपना कार्यक्रम बनाया।
जीवन के अंत तक वे अनेक पत्र- पत्रिकाएं पढ़ते रहे। पाञ्चजन्य में मेरे स्तंभ को पढ़कर टेलीफोन पर अपनी प्रतिक्रिया देते। एक बार प्रथम प्रवक्ता में संघ के बारे में मेरे लेख को पढ़कर उन्होंने फोन किया कि मैं तुम्हारे विचारों से पूरी तरह सहमत हूं। एक बार उनका फोन आया कि स्वामी अग्निवेश के अखबार में तुम्हारे विरुद्ध काफी कुछ छपा है। जीवन के अंतिम चरण में जब मैं उन्हें पंडारा रोड, साउथ एक्सटेंशन के धर्म भवन, भगत सिंह मार्केट और अंतत: प्रवासी भवन में उनसे मिलने गया तो मैंने उनके शरीर को क्रमश: क्षीण होने पर मन-मस्तिष्क को उतना ही जाग्रत देखा। उन्होंने ही भारत में प्रवासी दिवस के आयोजन की कल्पना विकसित की। उनकी कल्पना में से ही प्रवासी भवन का निर्माण संभव हुआ।
ऐसी ध्येयनिष्ठ, राष्ट्र समर्पित सृजनात्मक प्रतिभा के कर्मयोगी का जीवन भावी पीढियों के लिए दीप स्तंभ बन गया है। उनकी स्मृति को श्रद्धापूर्ण xɨÉxÉ* näù´Éäxpù स्वरूप
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