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बात अधिक पुरानी नहीं है। शर्मा जी के मोहल्ले में एक जैसी सूरत की शर्म और बेशर्म नामक दो जुड़वां बहनें रहती थीं। उनका यह नाम माता-पिता ने क्यों रखा, ये आप उनसे ही पूछिये।
जुड़वां होने के कारण दोनों बदल-बदल कर एक दूसरे के कपड़े पहन लेती थीं। एक ही कक्षा में होने से पुस्तकों के एक ही जोड़े से दोनों का काम चल जाता था, पर इस जुड़वांपन से कुछ नुकसान भी थे। नाम के अनुरूप ही दोनों का स्वभाव था। शर्म सीधी-सादी थी, तो बेशर्म उच्छृंखल। प्राय: शरारत कर बेशर्म छिप जाती और डांट शर्म को खानी पड़ती। कभी-कभी बेशर्म खाना खाकर थोड़ी देर में फिर आ जाती और शर्म के हिस्से का खाना भी खा लेती। बेचारी शर्म को भूखा ही रहना पड़ता।
एक बार खेलते हुए बेशर्म पेड़ से गिर गयी। इससे उसके माथे पर चोट आ गयी। कुछ दिन में चोट तो ठीक हो गयी, पर माथे पर एक स्थायी काला निशान बन गया। इससे उनकी पहचान का संकट समाप्त हो गया। अब लोग आसानी से समझने लगे कि माथे पर काले धब्बे वाली का नाम बेशर्म है और दूसरी का शर्म।
कहते हैं कि लड़कियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ और उचित घर-वर देखकर उनके विवाह कर दिये गये। दोनों ससुराल जाकर घर-गृहस्थी के झंझटों में व्यस्त हो गयीं।
समय बीतने के साथ ही बातें और यादें पुरानी हो जाती हैं, पर पिछले दिनों शर्मा जी के घर गया, तो वहां बेशर्म बैठी मिल गयी। कई साल बाद मिली थी, तो सुख-दुख की बात होने लगी।
– कैसी हो तुम बेटी, बाल-बच्चे, बाकी घर वाले.. ?
– सब ठीक हैं चाचा जी।
– एक बात पूछूं, बुरा मत मानना। इस नाम के कारण तुम्हें ससुराल में कोई परेशानी तो नहीं होती ?
– बिल्कुल नहीं। आजकल शर्म को कौन पूछता है ? सब ओर बेशर्मी का ही जमाना है। मेरे मां-बाप ने यह नाम रखकर बहुत समझदारी का काम किया था। वैसे आप कभी मेरे पति से मिले हैं या नहीं ?
– विवाह में ही देखा था। मुझे तो उनका नाम भी ध्यान नहीं है।
– देखिये चाचा जी, नाम में आजकल कुछ नहीं रखा। मेरे पति की गति तो पवन जैसी है। जब चलते हैं, तो लगता है जैसे 'चंडीगढ़ एक्सप्रेस' पटरियों पर दौड़ रही हो। स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक हैं, इसलिए मुंह से बहुत कम खाते हैं। हां, भांजे-भतीजों को वे नहीं टोकते। उनके नाम पर वे चाहे जो खा लें। बच्चे मामा के राज में नहीं खाएंगे, तो फिर कब खाएंगे ? आखिर उनके खेलने-खाने और स्वास्थ्य बनाने के यही तो दिन हैं।
– पर यह सब देखकर उन्हें कुछ शर्म तो आती होगी ?
– आप भी कैसी बात करते हैं चाचा जी। शर्म की सीमा होती है, बेशर्मी की नहीं। वैसे तो वहां पुरखों के समय से खाने-पीने की यही बशर्म परम्परा चल रही है, पर मैंने वहां जाकर बची-खुची सीमा भी तोड़ दी है। अब तो सब तरफ खुला खेल फरुखाबादी है। पैसा फेंको, तमाशा देखो। इस हाथ दो, उस हाथ लो।
– सास-ससुर के अलावा घर में और कौन-कौन हैं ?
– और तो बस मेरा कानूनबाज देवर है। दिन भर कागजों पर लाल निशान लगाता रहता है। उससे भी मेरी खूब पटती है। उसकी अभी शादी नहीं हुई, पर उसका स्वभाव भी अपने भैया जैसा ही है। सो उसके लिए अपने से भी सुपर बेशर्म लड़की ढूंढ रही हूं। कोई आपकी नजर में हो तो बताएं। देसी न हो, तो विदेशी भी चल जाएगी।
– है तो, पर मैं तुम्हारे रिश्तेदारों से मिलूंगा कैसे ..?
– इसके लिए अधिक दूर नहीं जाना पड़ेगा। वे सब सत्ता के गलियारों में दलाली करते मिलते हैं। दिल्ली में रायसीना रोड से जनपथ तक हमारे ही बेशर्म खानदान का सिक्का चलता है। कोई भी बता देगा।
– पर मैं उन्हें पहचानूंगा कैसे ?
– यह भी बहुत आसान है। जो शर्म की पगड़ी पहने, बेशर्मी करता मिले, बस समझ लेना, वह मेरा ही रिश्तेदार है।
अब मेरे पास न पूछने को कुछ था और न उसके पास बताने को। यदि आपकी निगाह में कोई 'सुपर' या 'सुपर डीलक्स' बेशर्म कन्या हो, तो उनसे मिल लें। पता और पहचान तो उसने बताई ही है। विजय कुमार
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