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लोकतंत्र की लहर पर सवार पाकिस्तान
पाकिस्तान में एक बार फिर क्षितिज पर लोकतंत्र का सूर्य उगा है। लोगों ने मतदान के जरिए एक बार फिर नवाज शरीफ को सत्ता सौंप दी है। इससे पूर्व चुनाव शांतिपूर्वक सम्पन्न होंगे या नहीं इसकी शंका हर कोई व्यक्त कर रहा था। लेकिन पाकिस्तान के चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में जो अथक प्रयास किये उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है। चुनाव की घोषणा के साथ ही जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान लौट आए उस समय ऐसा लगता था कि पाकिस्तान की सेना इस मामले में कहीं खलनायक की भूमिका तो नहीं निभाएगी? अमरीका अपने हित और अहित पर विचार कर इस देश को एक बार फिर से मार्शल ला के युग में तो नहीं धकेल देगा? लेकिन इन सभी झंझावातों के बावजूद 11 मई को चुनाव सम्पन्न हो गए। नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज 126 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। 272 सीटों के सदन में उनकी पार्टी बहुमत से सिर्फ 11 कदम दूर रह गई। आतंकवादियों की ओर से कोई बड़ी उठापटक नहीं हुई तो चंद दिनों में बनने वाली नवाज सरकार चलेगी भी।
…क्या किया जाए?
समय की बलिहारी कहिये कि 1999 में जिस परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को अपदस्थ कर सऊदी अरब में निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर कर दिया था, आज वही मुशर्रफ जेल की हवा खा रहे हैं। प्रधानमंत्री बन जाने के पश्चात मुशर्रफ से नवाज शरीफ सवाल कर सकते हैं- बोल तेरे साथ
क्या किया जाए? दो माह बाद जनरल अश्फाक कयानी सेवानिवृत्त हो रहे हैं। इसलिए मुशर्रफ के सामने और भी कठिनाइयां आ सकती हैं। मुशर्रफ इस समय सबसे बड़े अपराधी हैं लेकिन पाकिस्तान की सेना और उसके वर्तमान जनरल यह भी नहीं चाहेंगे कि उनके ही एक जनरल के साथ किसी प्रकार का भद्दा व्यवहार किया जाए। नवाज शरीफ मुशर्रफ से जितना प्रतिशोध लें वह कम है, क्योंकि बदले की भावना उन्हें बुरी तरह सता रही होगी। लेकिन मुशर्रफ से बदला लेने का अर्थ पाकिस्तान की सेना का अपमान नहीं होना चाहिए यह उन्हें देखना होगा। यह एक सामान्य बात है कि पाकिस्तान की सेना का अगला जनरल कौन होगा इसमें नवाज शरीफ और उनकी सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इसलिए नवाज शरीफ की सत्ता के सूर्योदय से पाक सेना में बैठे मार्शल ला की मानसिकता वाले जनरलों पर दबाव आना स्वाभाविक बात है। पाकिस्तान के फौजी जनरलों ने समय-समय पर वहां की न्यायपालिका पर भी जो हथौड़े चलाए हैं उस पर भी अब उन्हें सोच-विचार कर काम करना होगा। क्योंकि जनता के दबाव के कारण पाक सेना अब वहां की न्यायपालिका के साथ उछृंखलता के साथ पेश नहीं आ सकती। पाकिस्तान की सेना जब चाहे बैरक से निकल कर इस्लामाबाद में आ धमकती थी वह अब इतनी आसानी से नहीं हो सकेगा। पाकिस्तान की सरकार और सेना के लिए सबसे अधिक चुनौती भरा समय तब होगा जब 2014 में अमरीका की सेना अफगानिस्तान से स्वदेश लौट जाएगी। पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि कोई अन्य देश उस समय अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाए। यह काम सरकार अकेले नहीं कर सकती है इसलिए उसे हर स्थिति में अपनी सेना के माध्यम से ही इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा। सेना और सरकार दोनों को ही एक-दूसरे के साथ बेहतर तालमेल बैठाना होगा तभी पाकिस्तान में स्थायित्व आ सकेगा।
पंजाब पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है। इस राज्य पर शरीफ बंधुओं का हमेशा से दबदबा रहा है। चूंकि शरीफ बंधुओं के पिताजी एक बड़े उद्योगपति थे इसलिए जब इस खानदान ने राजनीति में प्रवेश नहीं किया था उस समय भी उनकी तूती बोलती थी। पंजाब पाकिस्तान का धड़कता दिल है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार जब एक ही पार्टी की हो तो प्रशासन चलाने और काम करने में अधिक सरलता रहती है। इसलिए शरीफ बंधुओं का पाकिस्तान की राजनीति में दबदबा रहना एक स्वाभाविक बात है। पाकिस्तान के हर प्रदेश में कोई न कोई मुस्लिम लीग है, लेकिन इसके बावजूद शरीफ बंधुओं की मुस्लिम लीग सम्पूर्ण पाकिस्तान में अपना वर्चस्व रखती है। सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने के कारण अन्य राज्यों पर भी उसका अपना प्रभाव है। इसलिए शरीफ बंधुओं की राजनीति में सबसे बड़ी पकड़ उनकी अपनी पार्टी के कारण है। इसलिए वे अपने आपको मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग का उत्तराधिकारी बताएं तो कोई आपत्ति नहीं उठा सकता है।
सबसे बड़ा हथियार
पाकिस्तान का निर्माण केवल मुस्लिम लीग की कट्टरता के कारण ही हुआ है। इसलिए शरीफ बंधुओं ने मजहब की कट्टरता को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया है। आज पाकिस्तान में जो मजहबी उन्माद और कट्टरता का वातावरण है वह इस्लाम के नाम पर है। मुस्लिम लीग और इस्लाम उनके लिये एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए इस समीकरण के आधार पर उनका अपना दबदबा है। अपनी कट्टरता को राजनीति में बनाए रखने के लिए उन्होंने पाकिस्तान के सबसे पुराने और खतरनाक आतंकवादी संगठन लश्करे झंगवी को अपनी परछाया बना कर उपयोग किया है। पाकिस्तान में पहले दिन से ही शिया सुन्नी विवाद जोरों पर रहा है। शिया और अहमदिया चूंकि बुद्धिजीवी थे और पाकिस्तान के प्रशासन पर उनकी पकड़ थी इसलिए सुन्नी लोगों से उनका हमेशा संघर्ष होता रहता था। इस लश्करे झंगवी को शरीफ बंधुओं ने हमेशा ही सहयोग दिया है। पाकिस्तान में जो शिया सुन्नी मारकाट होती है उसका जन्मदाता लश्करे झंगवी है। पाकिस्तान में सातवें दशक से मस्जिदों के भीतर जो रक्तपात चलता आ रहा है उसमें लश्करे झंगवी का सबसे अधिक योगदान है। लश्करे झंगवी चलती हुई नमाज के समय शियाओं की मस्जिदों में घुस जाते हैं और उन पर हमला करके भाग खड़े होते हैं। मस्जिदें रक्त से लथपथ हो जाती हैं। शियाओं ने अपनी रक्षा के लिए इसी प्रकार के संगठन बनाए। इस तरह से मस्जिदों में जो रक्तपात होता है वह शिया सुन्नी संघर्ष का सबसे भद्दा और घृणास्पद रूप है। सिंध और पंजाब की मस्जिदों में इस प्रकार के दृश्य आएदिन देखने को मिलते हैं। सिपाहे सहाबा भी इसी प्रकार का संगठन है। 'तकबीर' और 'जिंदगी' जैसे साप्ताहिक पत्र इन संगठनों के प्रवक्ता माने जाते हैं। जमाते इस्लामी पर भी इसी प्रकार के आरोप हैं। यद्धपि अब तो जमात पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टी है। पाकिस्तान का शिया सम्प्रदाय इस जीत से निश्चित ही भयभीत होने वाला है। वह अपनी सुरक्षा की व्यवस्था किस प्रकार से करता है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन शियाओं की संस्था तहरीके जाफरिया ईरान और इराक के संगठनों से सहायता लेती है, ऐसा भी पाकिस्तान में कहा जाता है। पाकिस्तान के बुद्धिजीवी वर्ग का मानना है कि नवाज शरीफ के शासनकाल में शिया सुन्नी संघर्ष यदि तेज हो तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं। मुस्लिम लीग के लिए सबसे बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान के सबसे बड़े राज्य पंजाब में भी उसकी सरकार बन गई। पिछले पांच वर्षों से नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ लाहौर में इस सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पंजाब नवाज शरीफ और मुस्लिम लीग का गढ़ है।
शराफत या आफत
इस चुनाव में सबसे बड़ी हार तो आसिफ जरदारी की हुई है। केन्द्र में उनका दल कोई प्रभावशाली ताकत नहीं दिखा सका। उन्हें केवल सिंध में अपनी सरकार पर संतोष व्यक्त करना पड़ा। जरदारी के दोनों प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी और राजा परवेज चुनाव हार गए। सिंध में बनने वाली उनकी सरकार कितनी टिकती है यह भी एक सवाल है। आसिफ जरदारी और बेटे बिलावल में प्रत्याशियों के टिकटों को लेकर जो विवाद उभरे उसने पार्टी की रही-सही गरिमा को भी मिट्टी में मिला दिया। सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का टूटना लगभग तय है। भुट्टो परिवार के लोग किसी भी तरह जरदारी के हाथों से पार्टी को निकाल लेना चाहते हैं। गत चार अप्रैल को जुल्फिकार अली भुट्टो की बरसी के अवसर पर लारकाना की गढ़ी कब्रिस्तान में जब भुट्टो परिवार के सदस्य मिले थे उस समय उन्होंने यह तय किया था कि अब समय आ गया है जब उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी उनके हाथों में आ जाना चाहिए। आसिफ जरदारी की गर्दन पर भ्रष्टाचार की तलवार अब भी लटकी हुई है। इस समय उनको बचाने वाला कोई नहीं है इसलिए लगता है सर्वोच्च न्यायालय अपना खेल खेलने में सफल हो जाएगा। केन्द्र में पीपीपी इस बार तीसरे नम्बर पर है। इमरान खान केन्द्र में कोई चमत्कार नहीं कर सके। बेचारे मौलाना ताहेरुल कादरी का तो नाम भी पढ़ने को नहीं मिल रहा है। ज्यादातर जगहों पर मुस्लिम लीग का ही डंका बजा है। शरीफ अपनी शराफत दिखाते हैं या फिर कट्टरवादी बोली में अपनी अलगाववादी आफत, यह अनुभव तो समय के साथ ही देखने को मिलेगा।
शरीफ के सामने चुनौतियां
l पाकिस्तान में सरकार पर फौज भारी पड़ती रही है। पूर्व जनरल मुशर्रफ जेल में हैं। निश्चित रूप से सेना अपने किसी जनरल को इस हालत में नहीं देखना चाहेगी। शरीफ अपनी सेना को काबू में कैसे रखेंगे, यह देखने वाली बात होगी।
l अमरीका 2014 में अफगानिस्तान पूरी तरह छोड़ देगा। इसके बाद तालिबान को संभालना नवाज के लिए मुश्किल हो सकता है।
l नवाज की पार्टी भी उन्मादियों को बढ़ावा देती रही है। विशेषज्ञ आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि पाकिस्तान में शिया-सुन्नी संघर्ष तेज हो सकता है।
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