राजनीतिक मुद्दा है अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का भेद
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राजनीतिक मुद्दा है अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का भेद

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May 18, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 May 2013 13:42:44

दुनिया में ऐसा एक भी देश नहीं होगा  जहाँ कोई न कोई जनसमूह अल्पसंख्यक नहीं होगा। संयुक्त राज्य अमरीका में काले वर्ण के लोग अल्पसंख्यक हैं तो ज्यू भी अल्पसंख्यक हैं। वहाँ कैथोलिकों की संख्या 24 प्रतिशत है। ब्रिटन में भी कैथोलिक अल्पसंख्यक हैं तो उधर आयरलैण्ड में प्रोटेस्टैंट अल्पसंख्यक हैं। लेकिन किसी भी देश में अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार नहीं प्राप्त हैं। किसी भी देश में अल्पसंख्यकों के लिए अलग कानून नहीं है। यह दुर्भाग्य केवल हमारे भारत के ही हिस्से आया। इसके लिए केवल अल्पसंख्यक समूह ही जिम्मेदार हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। इस बीमारी में राजनीति और राजनीतिकों की मुख्य भूमिका है।

अंग्रेजों की विभेद नीति

इस दुर्भाग्य का एक इतिहास भी है। अंग्रेजों का हमारे देश में राज था। उस समय उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दुओं और मुसलमानों की एकजुटता देखी। दोनों समाज अंग्रेजों का राज समाप्त करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। इस एकजुटता से धूर्त अंग्रेज भयभीत हुए और उन्होंने मुसलमानों के मन में अलगाव के बीज बोये और उन बीजों को खाद-पानी देकर अंकुरित किया। काँग्रेस के जवाब में उन्होंने मुस्लिम लीग को खड़ा किया। अंग्रेजों ने कहा कि, हिन्दू-मुसलमान एक हों तो हम यहाँ से चले जाएंगे। काँग्रेस के नेता उस एकता की मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ पड़े। हमारी उपासना पद्धति, भाषा-भिन्न होते हुए भी, हम एक राष्ट्र थे और हैं, ऐसा चित्र निर्माण करने के बदले हमने मुसलमानों की खुशामद का रास्ता अपनाकर उनकी अलगाववादी वृत्ति को और अधिक मजबूत किया। 1916 में जनसंख्या के आधार पर सीटों के बंटवारे का मुद्दा सामने आया। 1920-21 के खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस ने हिस्सा लिया। तुकर्ीस्तान के बादशाह को खलीफा मतलब दुनिया के सब मुसलमानों का गुरू माना जाता था। पहले विश्वयुद्ध के बाद तुकर्ीस्तान में कमाल पाशा की सत्ता आई और उसने खलीफा का पद समाप्त किया। इन बातों से भारत का कोई संबंध नहीं था। कमाल पाशा के निर्णय के कारण मुस्लिम मानस आहत हुआ होगा, तो तुकर्ीस्तान या अन्य देशों के मुसलमानों ने यह विषय उठाना चाहिए था, कारण वह उनकी श्रद्धा का विषय था। राजनीति के लिए कांग्रेस को उसे नहीं उठाना चाहिए था। लेकिन गांधीजी ने, अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में मुसलमानों का साथ प्राप्त करने के लिए खिलाफत आंदोलन शुरू किया। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानों के कट्टरवाद को और अधिक बल मिला। वह अधिक उग्र हुए और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की बजाय और दूर हो गए।

कांग्रेस ने जनादेश ठुकराया

हमारा दुर्भाग्य यह कि गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन की असफलता से कोई सबक नहीं सीखा। उनकी मुसलमानों की खुशामद करने की नीति जारी रही। इतनी कि उसके लिए उन्होंने देश का विभाजन भी स्वीकार किया। 1946 में हुए असेम्बली के चुनाव में प्राप्त जनादेश का अपमान कर उन्होंने विभाजन को मान्यता दी। इस चुनाव के लिए काँग्रेस की घोषणा अखंड भारत की थी, तो मुस्लिम लीग की घोषणा थी पाकिस्तान के निर्माण की। जिन प्रदेशों का पाकिस्तान बनना था, वहाँ के मुसलमानों ने विभाजन की मांग करने वाली मुस्लिम लीग को बहुमत जितने मत नहीं दिये। इसके विपरीत उन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के पक्ष में मत दिए जो पाकिस्तान नहीं जाने वाले थे, भारत में ही रहने वाले थे। उस समय मुसलमानों के लिए आरक्षित मतदान केन्द्र थे। लेकिन एक वर्ष से भी कम समय में काँग्रेस इस जनादेश को भूल गई और 1947 में विभाजन को मान्यता दे दी। मुसलमानों को उनका राज मिला।

संविधान रखा ताक पर

कई लोगों को ऐसा लगता था कि देश के विभाजन से मुसलमानों के झंझट की समाप्त हुई। लेकिन वस्तुत: वह समाप्त नहीं हुई। कारण वह समस्या समाप्त हो, ऐसी हमारे नेताओं की इच्छा ही नहीं थी। वैसा होता तो सब नीतियां मुसलमानों को मुख्य राष्ट्रीय प्रवाह से जोड़ने के लिए बनाई जातीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत उनकी अलग पहचान बनाए रखने की ही नीति अपनाई गई। जिन 15 प्रतिशत मुसलमानों ने अखण्ड भारत के पक्ष में मतदान किया, उनकी शक्ति और संख्या बढ़ाने के बदले, विभाजन के लिए आतुर मानसिकता के बहुसंख्यक मुसलमानों के एकजुट मतों के लिए स्वार्थी और संकुचित राजनीति से अलगाव की भावना को संजोना शुरू किया गया। यहाँ तक कि सबके लिए समान आपराधिक कानून है, फिर भी समान नागरिक कानून नहीं है। संविधान में कहा गया है-

”The State shall endeavour to secure for the citizens a uniform civil code, throughout the territory of India.”

अर्थ स्पष्ट है कि भारत के प्रदेश में रहने वाले सब नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने के लिए सरकार प्रयत्नशील रहे। यह सच है कि इस धारा को अमल में लाने के लिए नागरिक न्यायालय में नहीं जा सकते, लेकिन इसका अर्थ उसकी उपेक्षा करें, ऐसा नहीं होता। संविधान की धारा 37 भी यही बताती है। वह इस प्रकार है-

”The provisions contained in this Part shall not be enforceable by any court, but the principles therein laid down are nevertheless fundamental in the governance of the country and it shall be the duty of the State to apply these principles in making laws.”

अर्थात इनमें शामिल तत्त्व न्यायालय द्वारा अमल में लाने के नहीं हैं, फिर भी वे हमारे प्रशासन के लिए मूलभूत हैं और कानून बनाते समय उन तत्त्वों का विनियोग किया ही जाना चाहिए।

धारा 30 का दुरुपयोग

धारा 44 में राज्य ने समान नागरिक कानून बनाने की दृष्टि से प्रयत्न करना चाहिए, ऐसा बताया गया है। लेकिन इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया। समान नागरिक कानून की बात छोड़ दें तो विवाह और तलाक के लिए समान कानून हो, ऐसा भी राज्य करने वालों में से किसी को नहीं लगता। बहुपत्नी प्रथा अच्छी बात होगी तो वह सब के लिए होनी चाहिए, कुछ के लिए अच्छी तो अन्य के लिए अपराध, यह कैसा न्याय है?

इस तुष्टीकरण नीति का और एक उदाहरण देखने लायक है। संविधान की धारा 30 ही हमारे नागरिकों को एक स्तर पर लाने में बाधक है। संविधान की धारा 14, 15 और 16 ने सब नागरिकों को समान अधिकार की गारंटी दी गई है। लेकिन संविधान ने अल्पसंख्यक का दायरा निश्चित करने के लिए दो मानक तय किये है। 1) भाषा और 2) धर्म या उपासना पंथ। भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा कोई देशव्यापी समस्या निर्माण नहीं हुई है। लेकिन धारा 30 ने उन्हें अपनी शिक्षा संस्था की स्थापना करने का विशेष अधिकार दिया है। यह धारा नही होती तो मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय अपने शिक्षा संस्थानों की स्थापना नहीं कर पाते। लेकिन इस विशेष धारा से उन्हें विशेष अधिकार मिलने के कारण सर्वसामान्य शिक्षा संस्थाओं को लागू होने वाले नियम और प्रतिबंध इन संस्थाओं को लागू नहीं होते। ये संस्थाएँ अपने पंथ या मजहब की रक्षा या प्रचार के लिए स्थापित हुई हैं ऐसा कहें, तो उनमें अधिकांश विद्यार्थी अन्य पंथ-संप्रदायों के होते है। नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज या सेंट फ्रांसिस डिसेल्स कॉलेज के उदाहरण ध्यान देने योग्य हैं। हिस्लॉप कॉलेज प्रोटेस्टैंट पंथीय 'चर्च ऑफ स्कॉटलैण्ड' ने स्थापित किया है। इसमें 10 प्रतिशत विद्यार्थी भी ईसाई नहीं है। 'सेंट फ्रांसिस' कॉलेज रोमन कैथोलिकों का है। लेकिन वहाँ भी अधिकांश विद्यार्थी कैथोलिक नहीं हैं। फिर इन संस्थाओं को किस मानक पर अल्पसंख्यक संस्थाएं कहें? फिर इनमें अन्य शिक्षण संस्थाओं को लागू होने वाले नियम, उदाहरण, सेवा शर्तों, प्रवेश या नौकरी में आरक्षण के नियम क्यों लागू नहीं हैं? इन दोनों शिक्षण संस्थाओं में कभी भी ईसाई के अलावा अन्य कोई आज तक प्राचार्य के पद पर नहीं बैठ सका है।

हम सब 'एक जन'

मुसलमानों का बड़ा वोट बैंक होने के कारण, उनकी विशेष खुशामद की जाती है। सच्चर समिति की रपट उसका एक उदाहरण है। अब मुसलमान अपराधियों के लिये अलग न्यायालय का प्रस्ताव सामने आया है। सही मायने में हमारे देश में पारसी सबसे छोटा अल्पसंख्यक समूह है। पर उन्हें अपने अस्तित्व, भविष्य और उनके विशेष धर्म के अनुसार आचरण के संदर्भ में, बहुसंख्यकों की ओर से कभी खतरा अनुभव नहीं हुआ। उनकी ऐसी कोई मांग नहीं होती। वे तो विदेश से आये हैं जबकि मुसलमान और ईसाई तो मूलत: यही के हैं। आवश्यकता इस बात की है कि शासनकर्ता और सब राजनीतिक पार्टियों को देश एकात्म, एकरस और एकसंघ रहे, ऐसा मन से लगना चाहिए। इसके लिए उन्हें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक भेद की भावना अपने विचार और मानसिकता से निकाल देनी चाहिए। हमारे संविधान में उचित स्थानों पर संशोधन कर हमें यह घोषित करना चाहिए कि 'यह भारत देश एक है। यहाँ रहने वाले सब एक जन है। यहाँ एक संस्कृति मतलब एक मूल्य-व्यवस्था है और इस कारण यह एक राष्ट्र है।' हमारा संविधान मूल अंग्रेजी में लिखा है, इसलिए यही विचार मैं अंग्रेजी में प्रस्तुत करता हूँ।

”India that is Bharat is one country, with one people, one culture i.e. one value-system and therefore one Nation.”

भाषा, पंथ, सम्प्रदाय ऐसे अनेक भेद होते हुए भी हम सब भारतीयों को एकात्म, एकरस और एकसंघ राष्ट्रजीवन की तरह जीना आना चाहिए। यहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं और उन्हें अनेकता में एकत्व देखने की बहुत पुरानी आदत है। इस कार्य के लिए भी उनकी ही पहल होनी चाहिए। मा.गो. वैद्य

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