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सप्ताह का साक्षात्कार– हरविन्दर सिंह फूलका
दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील हरविन्दर सिंह फूलका शुरू से 1984 के सिख कत्लेआम के मामलों को देख रहे हैं। दशकों लंबी न्याय की इस लड़ाई पर पाञ्चजन्य ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश
29 साल बाद भी अपराधियों को सजा क्यों नहीं मिल पाई?
इस नरसंहार को लेकर अब तक 2 आयोग और 8 समितियां गठित हुई हैं। 1985 में मिश्रा आयोग और 2000 में नानावती आयोग का गठन हुआ था। फिर वेद मरवाह समिति, जैन-बनर्जी समिति, पोर्टी-रोशिया समिति, जैन-अग्रवाल समिति, कपूर-मित्तल समिति, आहूजा समिति, नरूला समिति और ढिल्लोन समिति बनी। अधिकतर समितियों ने कहा है कि इस नरसंहार में पुलिस भी शामिल थी। पुलिस लोगों को उकसा रही थी। 48 घंटे तक यह नरसंहार चला। दिल्ली की सड़कों पर हर मिनट पर एक सिख की बड़ी बर्बरता के साथ हत्या हुई। जो लोग पुलिस के पास गए उनकी न शिकायत दर्ज की गई, न 'डेली डायरी' लिखी गई और न ही प्रथम सूचना रपट लिखी गई। इस वजह से दंगाइयों के खिलाफ आसानी से सबूत नहीं मिल पाते हैं।
इतने बड़े नरसंहार की जांच किसी बड़ी जांच एजेंसी से क्यों नहीं करायी गयी?
यह तो सरकार बतायेगी। पर एक अजीब बात है कि जिस पुलिस ने दंगाइयों का साथ दिया उसे ही इस मामले की जांच सौपी गई। कुछ पुलिस वालों ने कुछ दंगाइयों के विरुध्द आरोप पत्र भी तैयार किया किन्तु उन आरोप पत्रों को अदालत तक नहीं पहुंचने दिया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने इन आरोपपत्रों को दबा दिया। मिसाल के तौर पर सज्जन कुमार को ले सकते हैं। नागलोई थाने के एक मामले (एफआईआर 67/87) को लेकर सज्जन कुमार के खिलाफ एक आरोप पत्र 8 अप्रैल 1992 को तैयार हुआ था। किन्तु इस आरोपपत्र को आज तक अदालत में पेश नहीं किया गया है। इस आरोपपत्र में साफ-साफ लिखा है कि सज्जन कुमार के खिलाफ सबूत तो हैं पर उनको गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है क्योंकि कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है।
जिन पुलिस अधिकारियों ने आरोपपत्रों को दबाया उनकी शिकायत नहीं की गयी?
लोग कहां और किनसे शिकायत करें? पूरा सरकारी तंत्र अपराधियों को बचाने में लगा है। सज्जन कुमार के आरोपपत्र को दबाने वाले दिल्ली पुलिस के तत्कालीन डीसीपी राजीव रंजन को पदोन्नति देकर प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठाया गया है। इस हालत में किसी दंगाई को सजा कैसे मिल सकती है।
पीड़ितों को न्याय नहीं मिलना क्या न्यायिक प्रक्रिया पर ही सवाल खड़ा नहीं करता है?
यह सच है कि अदालत ने भी इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। न्यायमूर्ति शिवनारायण ढींगरा ने जरूर इस मामले को गंभीरता से लिया था। किन्तु बाद में इस मामले को साधारण मामलों की तरह ही लिया गया, जबकि यह मामला बिल्कुल अलग है। इसकी सुनवाई जल्दी हो तो पीड़ितों में न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास बढ़ेगा।
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