शिक्षा का अमृत-तत्व
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हिन्दू विचार-दर्शन में पंच प्रकार का बहुत महत्व है। पांच तत्वों से ब्रह्मांड बना, पंच भूतों की कल्पना विकसित हुई, पंचों को परमेश्वर कहा गया, पंचबद्री, पंच केदार के दर्शन का महात्म्य है तो पूजा के वाद पंचामृत और गोवंश के पंचगव्य का आर्थिक महत्व भी है। लम्बे कालखण्ड तक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे श्री लक्ष्मी नारायण भाला ने पंचतव्य के इस महत्व को जाना-परखा और शिक्षा के विभिन्न सोपानों को पांच भागों में विभक्त किया और नाम दिया-शिक्षा पंचामृत। अपनी कृति को सरस्वती शिशु मन्दिर योजना के प्रथम आचार्य डा. शंकर शरण श्रीवास्तव की स्मृति को समर्पित करते हुए 'लक्खीदा' कहते हैं, 'औपचारिक शिक्षा में पुस्तकों और उपकरणों की प्रधानता होती है जबकि अनौपरिचारिक शिक्षा अनुभव-जन्य ज्ञान की प्रधानता से प्राप्त होती है। दोनों के अपने-अपने महत्व को ध्यान में रखकर हम समग्रता में विचार करें तो औपचारिक शिक्षा के प्रारूप में भी अनौपचारिक शिक्षा के स्वरूप को समाहित करना अनिवार्य लगता है।' इन दोनों को समाहित करते हुए वे शिक्षा को पाठ्यक्रम, पाठचर्या, परीक्षण, प्रबंधन एवं प्रशिक्षण में विभक्त करते हुए, उनके गुण धर्म की प्रधानता बनाए रखते हुए, उनके बीच सामंजस्य कैसे बैठाएं, यह बताते हैं।
शिक्षा की मनोविज्ञान समझाते हुए लक्खीदा कहते हैं-विद्यार्थियों को पढ़ाइये मत, बस उन्हें पढ़ने के लिए प्रवृत कीजिए। यही है, शिक्षकों के लिए उनके शिक्षण कार्य को रोचक, आकर्षक, प्रभावी एवं छात्रोपयोगी बनाने का मूल मंत्र। अध्यापन कार्य को अधिगम में परावर्तित करने का सूत्र भी यही है। यद्यपि इस बात को लिखना जितना सहज है, प्रत्यक्ष व्यवहार में लाना उतना ही कठिन है। क्योंकि पढ़ाना आसान है, पढ़ने के लिए प्रवृत करना कठिन है, घोड़े को पानी के पास ले जाना आसान है परन्तु उसे पानी पीने के लिए प्रवृत करना तभी हो पाएगा जब उसे प्यास लगी हो। अत: स्पष्ट है कि छात्र के मन में जानने, समझने एवं पढ़ने की प्यास निर्माण करना या जगाना यही वास्तव मेंे अधिगम प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है। हर विषय को जानने की पिपासा कक्षा-कक्ष में बढ़ती रहे एवं कक्षा से बाहर जाने के बाद भी उस पिपासा को मिटाने एवं बढ़ाने का प्रयास विद्यार्थी निरन्तर करता रहे, यही वास्तव में आदर्श स्थिति है। भाषा, विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र आदि विषयों में जिसकी जिसमें रुचि होगी वह उसी विषय का पिपासु होगा।'
शिक्षा क्षेत्र की चुनौती कितनी गंभीर है, यह लेखक अच्छे से जानते हैं। उन्हें स्मरण है कि 160 वर्ष पहले अपने पिता को लिखे एक पत्र में लार्ड मैकाले ने कहा था, 'अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित कोई भी हिन्दू अपने धर्म-संस्कृति से निष्ठा के साथ जुड़कर नहीं रह सकेगा।' वे जानते हैं कि भारत के शिक्षा-आकाश पर पश्चिमी चिन्तन के घने काले बादल मंडरा रहे हैं। इसी कारण भारत का स्वदेशी स्वरूप बिगड़ रहा हैं और वह अपना स्वभाव खोता जा रहा है। इस चुनौती को निराकरण करने के लिए उनका सुझाव है- 'भारतीय शिक्षाकाश पर मंडराते पश्चिमी बादलों को हटाने की, भारत की त्यागमयी संस्कृति के भगवा रंग को बदलने न देने, भारतीय रक्त के आध्यात्मिक गुण-धर्म को बिगड़ने न देने की चुनौती को स्वीकार करने वाले तथा भारतीय शिक्षा का युगानुकूल विकल्प प्रस्तुत करने की आंकाक्षा रखने वाले शिक्षाकर्मी तैयार करना, आज शिक्षा क्षेत्र की प्रथम आवश्यकता है।' लक्खीदा जानते हैं कि सरकारी शिक्षा केन्द्र या सरकार से अनुदान प्राप्त विद्यालय जैसी शिक्षा दे रहे हैं, वह उद्देश्यपरक नहीं है, क्योंकि शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य तो मनुष्य का निर्माण है। पर वर्तमान शिक्षा केन्द्र सिर्फ नौकर बनाने वाला 'प्रमाण-पत्र' देने के केन्द्र बन गए हैं। ऐसे में भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित और मनुष्य बनाने वाली शिक्षा के केन्द्र चलाने वाले रामकृष्ण मिशन, डी.ए.वी. शिक्षा संस्थान और विवेकानंद केन्द्र आदि संगठनों को जो कठिनाइयां झेलनी पड़ी वे तो हैं हीं, सेकुलरवादियों के निरन्तर विरोध के बावजूद विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान की प्रगति और प्रयासों को लेखक ने स्तुल्य बताया है। मां, मातृभाषा और सरस्वती की वर्तमान अवस्था को चिंतनीय बताते हुए भी लक्खीदा आश्वस्त हैं कि विदेशी भाषा एवं आचरण के प्रभाव में लाने के षड्यंत्र में लगे मैकाले-पुत्रों और सांस्कृतिक प्रदूषण के द्वारा भारतीय संस्कृति के प्रति अश्रद्धा निर्माण करने में व्यस्त मार्क्स-पुत्रों को भ्रम है कि वे भारत को बदल देंगे। भले आज सेकुलरवाद के मायाजाल से भारत-पुत्रों को भ्रमित करने का प्रयास हो रहा हो परन्तु 2-3 प्रतिशत मैकाले और मार्क्स के पुत्र 95 प्रतिशत भरत-पुत्रों को गलत रास्ते पर नहीं ले जा सकते। भारत करवट बदल रहा है। सर्वस्पर्शी और सर्वव्यापी शिक्षा समाज को अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले जाएगी। भारतीय शिक्षा पद्धति से निकला नवनीत हमें वर्तमान को बदलने का संबल देगा।
लक्खीदा ने इस पुस्तक के अंत में भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक सुंदर सारणीबद्ध खाका भी दिया है जिससे अनेक गंभीर विषय एक ही दृष्टि में सामने आ जाते हैं। इसके साथ ही एक पंचामृत तालिका, जिसमें 50 पंच तत्वों के नाम दिए गए हैं, बहुत ज्ञानवर्धक है। 25 वर्ष तक विद्याभारती अ.भा. शिक्षा संस्थान से जुड़े रहे लक्खीदा ने वस्तुत: एक गंभीर शोध किया है लेकिन इसे बताया बोध है। भारतीय शिक्षा पद्धति के आदर्शों और मूल्यों का बोध कराने वाली यह पुस्तक शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हर उस व्यक्ति को चिंतन और मनन करने के लिए प्रवृत्त करेगी जो उसे व्यावहारिक धरातल पर भी साकार होते देखना चाहता है। जितेन्द्र तिवारी
पुस्तक का नाम – शिक्षा पंचामृत
लेखक – लक्ष्मी नारायण भाला
'अनिमेष'
प्रकाशक – साहित्य भण्डार,
57 बी, पाकेट-ए, फेस-2
अशोक विहार, दिल्ली-52
मूल्य – 300 रुपए
पृष्ठ – 105
सम्पर्क – (011) 27420386
ई–मेल – Satsahiyabhandar@gmail.com
लोक और परम्परा को अंतरंगता में समाहित करने वाली लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार मृदुला सिन्हा की सर्जनात्मकता के आयाम बड़े और उदात्त हैं। उनका लेखन सकारात्मकता को जीवन के परिप्रेक्ष्य में नई भंगिमाओं के साथ प्रस्थापित करता है। विशेष रूप से घर-परिवार, संस्कार-संस्कृति, व्यक्ति-समाज, जीवन-सौन्दर्य प्यार-करुणा जैसे विषयों को।
सीता पुनि बोली, घरवास, ज्यों मेंहदी को रंग, नई देवयानी, अतिशय आदि उपन्यास श्रृंखलाओं के क्रम में प्रस्तुत 'विजयिनी' उपन्यास विषय की लोकप्रियता के साथ पाठक को जोड़े रखने की अकूत क्षमता रखता है। इस उपन्यास का हाल ही में लोकार्पण हुआ था। यह उपन्यास स्त्री मुक्ति कामना का प्रपंच नहीं बल्कि प्रकृति और पुरुष के सहचर जीवन का ईमानदार, नैष्ठिक और अंतरंग भाव का अनुबंध रचता है और उसे अभियान पर निकलने का संकल्प भरा संवेदन प्रदान करता है। महाभारत की संक्षिप्त कथा को आत्मसात करके लेखिका ने उसे सामाजिक और सांस्कृतिक विस्तार दिया है।
'विजयिनी' में प्रेम को केन्द्र और आधार बनाकर सावित्री-सत्यवान की अमर गाथा बड़ी बारीकी से बुनी गई है और उसे विस्तार दिया गया है। सावित्री-सत्यवान की अमर गाथा की आधार भूमि प्रेम है- विजयिनी उपन्यास के कथा-विस्तार में अनायास ही यह प्रतिपादित हुआ है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास एक बड़ी लेखिका की संवेदना, सजगता तथा कथ्य संरचना को भी उजागर करता है। लेखिका ने युगानुरूप समाजोपयोगी तथा सांस्कृतिक प्रसंगों को प्रभावशाली ढंग से आकार दिया है। 'बेटी बचाओ सृष्टि बचाओ' जैसे नारों पर भारी पड़ने वाली यह औपन्यासिक कृति लोक-विश्रुत जन-सांस्कृतिक परिदृश्य की सुप्रसिद्ध गाथा के माध्यम से बेटी के मान-सम्मान और गौरव को आत्मविश्वासी और पूर्ण मानवी ढंग से रूपायित और व्याख्यायित करती है।
उपन्यास में पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का कुशल मिश्रण है। दाम्पत्य जीवन की सुदृढ़ता के अमृत तत्व हैं। उपन्यास में मर्म को भिंगो देने वाले कई प्रसंग और स्थल हैं। रोचक कथा-प्रवाह के बीच-बीच में अनेक सूक्तियां हैं। सावित्री में प्रगतिशीलता है मगर उसकी आधार भूमि समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। कथाकार का यह मत और प्रतिपादन कि सभी युगों में सावित्री अत्याधुनिक ही रहेगीं- सर्वथा स्वीकृत और मान्य है।
पुस्तक का नाम – विजयिनी
लेखक – मृदुला सिन्हा
प्रकाशक – भारतीय पुस्तक परिषद्,
मयूर विहार फेस-2
अशोक विहार, दिल्ली-91
मूल्य – 300 रुपए, पृष्ठ – 175
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