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कहते हैं कि पेड़-पौधे भी संगीत प्रिय होते हैं। सूखे पत्तों वाले पेड़ में भी संगीत सुनने से हरियाली आ जाती है तो गाय-भैंस भी संगीत सुनकर अधिक दूध देने लगती हैं। मनुष्य जीवन की शुरुआत भी गीत सुनकर ही होती है। ये गीत सुनाने वालों ने संगीत का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया होता है। ये तो अपने बचपन में मां या दादी-नानी से सुने हुए गीत होते हैं, जो हर महिला की जुबान पर तिरने लगते हैं, जब उसकी गोद में बच्चा आ जाए। शिशु को सुलाने या खिलाने के लिए माताएं जो स्वर और शब्द गुनगुनाती रही हैं, उन्हें लोरी कहा जाता है। हर बोली और भाषा में लोरी होती है, पर उनके भाव और विषय एक ही होते हैं। लोरी गाते-गाते मां कभी-कभी तो स्वयं ही नींद लेने लगती है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोरी के स्वर, भाव और शब्दों में सुख शांति लाने के कितने तत्त्व होते हैं।
जीवन का पहला पाठ शिशु अपनी मां की स्नेहिल गोद में, हथेलियों की मधुर थाप और मां के कंठ स्वर से अनायास निकले गीतों से ग्रहण करता है। तभी तो वह बड़ा होकर भी संगीत प्रेमी ही होता है। कोई विरले ही होगा जिसे संगीत सुनना सुखद न लगता हो। शायद ही कोई महिला हो जिसकी जिह्वा पर अपने या दूसरों के बच्चों को सुलाने के लिए लोरियां न तिरती हों। अक्सर लोग लोरी का आशय बच्चों को सुलाने वाले गीतों से लगाते हैं, पर यह सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि शिशु खाते, उठते, बैठते, नहाते और सोते हुए गीत सुनने का अभ्यासी हो जाता है। वह नहाने, सोने या खाने से भागता है, पर मां जब लोरी या कोई कहानी सुनाने लगती है तो उसका ध्यान लोरी के स्वर में डूब जाता है। इस बीच मां उसे नहला, खिला या सुला देती है। रोते हुए बच्चे को चुप कराने में लोरी के शब्द कारगर साबित हुए हैं।
पिछले दिनों मेरी बेटी को एक बेटी हुई। वह अमरीका में है। एक दिन उसने फोन पर सुनाया। वह अपनी बेटी को सुला रही थी और गा रही थी-
सुतु सुतु बबुनी, सुपली में ढ़ेउआ
बाप गेले नौकरी, मतारी असगरुआ
बबुनी (बेबी) सो जाओ। तुम्हारा पिता नौकरी करने गया है और मां अकेली है। इस गीत का भाव है कि मां को घर-गृहस्थी के काम करने हैं, शिशु सो जाएगा तो वह अपने काम निपटाएगी। यह भी तथ्य है कि मां अपने बच्चे के शैश्वावस्था से ही अपनी समस्या बताने लगती है। देखा जाता है कि गीत के स्वर और स्नेहिल हाथों की मधुर थाप से बच्चा मां की गोद में सो भी जाता है।
इन लोरियों मे मां, ममहर (ननिहाल), नाना-नानी, मामा-मामी का अधिक प्रयोग होता है। मामा का इतना विस्तृत व्यक्तित्व होता है कि चांद भी मामा है, तो बाघ भी मामू है। प्रसिद्ध लोरी हम-सब गुनगुनाते हैं-
चन्दा मामा दूर के पुए पकाए गुड़ के,
आप खाएं थाली में मुन्ना को दें प्याली में।
यह लोरी अकसर खाना खाने या दूध पीने से मना करते समय शिशु को सुनाई जाती रही है। एक और प्रसिद्ध लोरी है-
चन्दा मामा, आरे आब
पारे आब, नदिया किनारे आब,
सोना के कटोरिया में,
दूध भात लेले आब,
बबुआ के मुंह में घुटूक
लोरी की एक और विशेषता होती है। इसमें बेटा-बेटी में भेद नहीं किया जाता। दोनों को लोरी सुनाई जाती है। एक ही प्रकार की लोरियां होती हैं। अभिप्राय यह कि बेटा हो या बेटी, शैशवावस्था में उसके लालन-पालन का एक ही तरीका रहा। दोनों के लिए चंदा मामा ही होते हैं। मामा और ननिहाल की प्रधानता वाली ये लोरियां माताएं अपने ससुराल में ही सुनाती हैं। लेकिन चन्दा की शीतलता और प्रकाश उन्हें अपने भाई की याद दिलाती है। चंदा की दूरी भी भाई-बहन के बीच की दूरी जैसी ही लगती है।
धुधुआ मन्ना, उपजे धन्ना
यही माहे अबइछत बबुआ के नाना
बबुआ के गढ़ा देतन कान दुनू सोना
गे बुढ़िया माई धएले रहिहे
बबुआ हमर जतऊ लाठी लेले,
एक रोटी देतऊ,
आधा रोटी खइहे, आधा रोटी खिअइहे
नयका घर उठे, पुराना घर गिरे
उपरोक्त पंक्तियों में भी शिशु को सिखाने के लिए जीवन संबंधित गूढ़ बातें कही गई हैं। बिछावन या चटाई पर सीधी लेटी हुई मां के दोनों मुड़े पांवों पर शिशु चिपककर बैठ जाता है। मां अपने पांवों को उठाती-गिराती है, शिशु भी उठता-गिरता खुश होता है। लोरी सुनने के लिए उसके कान खुले रहते हैं। वह सुनता है कि धान उपजेगा, उसके नाना आएंगे और उसके दोनों कानों में सोना गढ़वा देंगे। पुन: अपने पांवों के साथ बच्चे को पूरी ऊंचाई पर ले जाकर मां कहती हैं- 'नया घर उठे।' पांवों को गिराती हुई कहती हैं- 'पुराना घर गिरे।'
अर्थपूर्ण होती हैं ये लोरियां। दुनियादारी के ज्ञान के बीज डाल देती हैं। लम्बी-लम्बी लोरियों में तो गंगा-बालू, गाय-दूध, चील-पंख, भूंजा-चरवाहा, राजा-रजाई, भैया-घोड़ा, अनेकों पेड़-पौधे, रिश्तेदार का वर्णन होता है। शैशवावस्था में ही दुनिया को समझने और तदनुसार व्यवहार करने के भावों का बीजारोपण हो जाता है।
समय बदल जाए या जीवन स्थितियां पीढ़ियां बदलती हैं। कुछ बातें हैं जो नहीं बदलतीं। खाने, पीने, सोने, हंसने रोने की तरह शिशु का लोरी सुनना भी है। शिशु अपनी मां का प्यारा ही होता है। अपनी प्यारी चीज को देखकर मन प्रसन्न होना और प्रसन्न मन से गीत निकलते ही हैं। इसलिए तो लोरी मधुर भावों में लिपटी ही होती हैं।
लोरियों में जाति, मजहब, देश-विदेश या भाषा का भेद नहीं होता। राजा हो या रंक, मां अपने बच्चों को एक ही प्रकार की लोरियां सुनाती हैं।
कुछ लोरियां उस समय सुनाई जाती हैं जब बच्चा बैठने लगता है। उसकी नन्हीं हथेली पर मां अपनी हथेली से थाप देकर कर गाती है-
अटृा–पटृा, बबुआ के पांच बेटा
गइया में, बकरिया में, बिलइया में
खरबा खाइते पनिया पीते, खरबा खाइते पनिया पीते गुदगुद–गुदगुद, गुदगुद–गुदगुद
लोरियों में संपूर्ण व्यक्तित्व के गुणों के बीजारोपण के साथ शिशु का मनोरंजन भी होता है। शिशु हर्षित रहता है। वह बार-बार मां को इशारा भी करता है कि वह लोरी सुनाए।
मनुष्य को मनुष्य और सर्वजन हिताय बनाने के लिए उसके शैशवावस्था से ही सुनाई गई लोरियां जीवन-पर्यन्त मां, चंदा मामा और जीव-जंतुओं के प्रति सुखद और आत्मीय भाव ही रखता है। लोरियां सुनाने वाली मां भले ही लोरी का दूरगामी प्रभाव नहीं जानती हों, पर है तो यह शिक्षा का प्रारंभ ही। तभी तो मां प्रथम गुरु मानी जाती है।
निनिया अइलई बिरन वन से
बबुआ हमर अइलई ममहर से
आ आ गे निंदिया, बबुआ के सुता
नींद को निमंत्रण है- 'आओ! मेरा शिशु अपने ननिहाल से आया है, इसे सुला दो।'
मृदुला सिन्हा
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