|
मां भारती के आंगन में युवा शक्ति की अद्भुत गूंज विश्व सुन रहा है। नई-पुरानी पीढ़ी से परिवर्तन के पुरोधा अनुपम-अनूठे अभियानों का बिगुल फूंक चुके हैं। पर्यावरण बचाने, बेसहारा बच्चों को दुलारने, सफलता के नए शिखर छूने के इन अभियानों में समाज भी उनके साथ बढ़ चला है। छोटी-छोटी पहल हैं जिनके कारण देश के सामने संभावनाओं का अनन्त आकाश खुला पड़ा है।
बात 1998 की है। उत्तराखंड तब बना नहीं था। खबर मिली कि कार्बेट नेशनल पार्क के पार दूर-दुर्गम पहाड़ों में एक अनोखा काम हुआ है। राम नगर से डौटियाल और वहां से सराईखेत। इसके आगे तब सड़क नहीं हुआ करती थी। कंधे पर पिट्ठू बैग टांगे कच्चे पहाड़ी रास्ते तय करता मैं चला जा रहा था। तीखी धूप, पहाड़ी चढ़ाई, सूखी चट्टानें, पसीने से तर शरीर और सूखता गला, मगर एक मोड़ पर सारा दृश्य बदल गया। मिट्टी में नमी, हवा में घुली मीठे पानी की महक और पेड़ों की पत्तियों से टपकती पानी की बूंदों की आवाज, साथ में टरर्ाते मेंढक और पक्षियों का कलरव। उजड़ते पहाड़ की सूरत संवारने का यही वह कमाल था जिसकी खबर दिल्ली तक जा पहुंची थी। दूधातोली के उस इलाके में सच्चिदानंद भारती नामक शिक्षक ने पानी बचाने की अनोखी मुहिम छेड़ रखी थी। ढलानों पर रिसते, बहते, बरसते पानी की एक-एक बूंद को बचाने की परम्परागत तकनीक को उन्होंने फिर जीवन दे दिया। छोटी नांद से लेकर कमरे के आकार तक के हजारों तालाब, लाखों पेड़ पहली बार मुझे किसी एक व्यक्ति द्वारा लिए संकल्प की अतुलनीय शक्ति का अनुभव हुआ। एक गुमनाम से व्यक्ति के पर्वत से संकल्प ने पहाड़ के जनजीवन में नई जान फूंक डाली। अब तो सारा समाज भारती के साथ खड़ा था। दैड़ा गांव में तारों की छांव में भारती का नाम लोकगीतों में सुना। मैंने स्वयं से पूछा, 'ठान लें तो हम क्या नहीं कर सकते?' तब से यह उदाहरण मुझे शक्ति और दिशा देता रहा है।
वर्ष प्रतिपदा विशेषांक की योजना के समय यही सवाल और गढ़वाल की घाटियों में गूंजता वही जवाब याद आया।
वैसे भी, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, विक्रमी नव संवत्सर का प्रारम्भ, नए उत्साह से भरकर नव प्रण करने का ही तो अवसर है। सो, यह विशेषांक परिवर्तन का पहिया घुमाने में जुटे एकल संकल्प के धनी भारतीयों के नाम। ऐसे लोग जिन्होंने सहायता के लिए दूसरों का मुंह नहीं देखा, संसाधनों की कमी का रोना नहीं रोया, किसी से कोई शिकायत किए बिना स्वयं पहल की और बदलाव के साक्षी ही नहीं अपितु सारथी बने।
छोटी-छोटी जगहों से परिवर्तन की ऐसी कहानियां जुटाना और उन्हें एक सूत्र में पिरोकर प्रस्तुत करने का यह अवसर तो है ही, मगर इससे भी बड़ी बात यह कि इस समय ऐसा करना बहुत आवश्यक है। जब देश की व्यवस्था में लगा घुन सामने दिखने लगा हो, राष्ट्र के मानस में घुटन, छटपटाहट और थकान पैठने लगे तब बदलाव के अंकुरों को सामने लाने, सहलाने की जरूरत है। व्यवस्था को कोसते, भ्रष्टाचार से कराहते समाज के सामने चेतना जगाती इन कहानियों को न सिर्फ कहना होगा, बल्कि अनुभव कराना होगा कि हम सब इन कहानियों के केन्द्रीय पात्रों की सी ताकत रखते हैं।
सो, संवत् का पहला दिन उन प्रेरक पात्रों और पवित्र संकल्पों के नाम, जो समाज और व्यक्तिगत जीवन को नई ऊर्जा, नई दिशा दे सकते हैं। अच्छा हो अगर इस दिन हम स्वयं कुछ संकल्प लें। स्वास्थ्य ठीक रहे, इस हेतु कुछ समय तन को देने का संकल्प, विचार ठीक रहें, इस हेतु कुछ समय मन और मनन को देने का संकल्प, और सब ठीक रहे इसलिए समाज को उसका देय लौटाने का, स्वयं परिवर्तन का बीज बनने का संकल्प।
…और अंत में याद दिलाना चाहूंगा कि संकल्प की इस राह में कोई भय है तो स्मरण करो उज्जैन के महाकाल का, क्योंकि उस भूमि पर ही विक्रमी संवत् का श्रीगणेश हुआ। कोई तुम्हारी गति रोके है तो क्षिप्रा के तीव्र वेग का स्मरण करो, क्योंकि अंजुरी में जल भर सम्राट विक्रमादित्य ने वहीं राष्ट्र जीवन में परिवर्तन लाने की प्रतिज्ञा ली थी। साधन सीमित और बाधाएं बड़ी लग रही हैं तो उस विक्रमी शौर्य का स्मरण करो जिसकी आंच में पिघलकर शक साम्राज्य का दर्प भारतीय संस्कृति के समुद्र में ऐसे मिल गया जैसे कभी था ही नहीं। …यदि ठान लो तो क्या नहीं बदल सकता।
हम बनें बदलाव का बीज
नव संवत्सर पर एक प्रश्न हमें स्वयं से पूछना चाहिए। हमारा उद्धार हो, इसका जिम्मा किसी नेता, नारे, नीति, पार्टी, महापुरुष, अवतार, संस्था, सम्प्रदाय के हवाले करने से हमारी नाव पार लगेगी क्या? नहीं न… फिर परिवर्तन लाएगा कौन? काम की शुरुआत के लिए कब तक हम ठेकदारों का मुंह ताकते रहेंगे? …बाधाओं की जमीन से बदलाव का अंखुआ यूं ही नहीं फूटता, किसी को तो बीज बनकर बिछना ही होता है। किसी को तो परिवर्तन का संकल्प लेना ही होता है।
(हितेश शंकर)
टिप्पणियाँ