डा. सुरेन्द्र कुमार चौहानछोटे मक्के से बड़ा मुनाफा
|
साल-दर-साल नीचे जाते पानी के स्तर से गांव के किसान इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या करें और क्या न करें। क्योंकि धान और गेहूं की खेती के लिए अधिक पानी की जरूरत थी। ऐसे में किसानों के लिए 'बेबी कॉर्न' की खेती वरदान साबित हुई। आज गांव का हर किसान खुशहाल है। गांव के युवाओं और महिलाओं को भी इसकी वजह से रोजगार मिला है। कुछ किसानों ने तो बाकायदा इसके उद्योग तक लगा लिए हैं। इस नई फसल ने किसानों एवं उनके परिवारों को इतनी खुशी दी कि आज यह गांव 'बेबी कॉर्न गांव' के नाम से जाना जाने लगा है।
सन् 1956 में अटेरना गांव में ही मेरा जन्म हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा भी मेरी यहीं से हुई। मन इस बात को लेकर विचलित होता था कि गांव के लोग जीवन-यापन को लेकर चिंतित हैं। जमीन के पानी का स्तर 20 मीटर से लेकर 100 मीटर तक चला गया था, जिसकी वजह से धान और गेहूं की खेती करना मुश्किल हो रहा था। गांव की खराब होती स्थिति के बीच फरवरी, 1998 में गांव में किसानों का एक सम्मेलन बुलाया गया। यहां किसानों को 'बेबी कॉर्न' की खेती के बारे में बताया गया। लेकिन पहले से ही खराब आर्थिक स्थिति से जूझ रहे किसानों ने इस नई फसल की खेती में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। फिर भी गांव के एक किसान कंवल सिंह ने 'बेबी कॉर्न' की खेती शुरू की। कंवल सिंह को मिली सफलता के बाद गांव के अन्य किसानों ने भी 'बेबी कॉर्न' की खेती करनी शुुरू कर दी। 1300 परिवारों वाले गांव में आज हर किसान 'बेबी कॉर्न' की खेती कर रहा है।
भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते धान और गेहूं की खेती करना अटेरना गांव के किसानों के लिए मुश्किल हो गया था। ऐसे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, दिल्ली में बागवानी विभाग में वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी डा. सुरेन्द्र कुमार चौहान किसानों के लिए वरदान साबित हुए। इसी गांव में जन्मे डा. चौहान ने किसानों को धान और गेहूं की खेती के विकल्प के रूप में 'बेबी कॉर्न' यानी छोटी मक्का की खेती करने का सुझाव दिया। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि आज पूरा गांव खुशहाल है।
बाजार में 'बेबी कॉर्न' की बढ़ती मांग के चलते गांव के ही कुछ किसानों ने खेती करने के साथ-साथ इसके उद्योग भी लगा लिए। इनमें गांव की महिलाओं और युवाओं को रोजगार मिल रहा है। यहां यह लोग 'बेबी कॉर्न' को डिब्बों में सुंदर ढंग से पैक कर बाजार में बेचने लायक बनाते हैं। इस तरह किसानों के साथ-साथ गांव की महिलाएं और वे लोग भी खुशहाल हो रहे हैं जिनके पास जमीन नहीं है। गांव में होने वाली 'बेबी कॉर्न' की खेती और उससे बढ़ने वाली किसानों की आय के बारे में जैसे-जैसे लोगों को पता चला यहां आने वालों का सिलसिला शुरू हो गया। अन्य देशों के लोग भी इस गांव के दौरे पर आ चुके हैं। इनमें नार्वे के कृषि मंत्री और जापान के प्रतिनिधि प्रमुख हैं।
'बेबी कॉर्न' की खेती की खासियत यह है कि जहां दूसरी फसल साल में दो उपज देती है, वहीं 'बेबी कॉर्न' की फसल तीन से चार उपज तक देती है। एक हेक्टेयर भूमि पर इसकी खेती से करीब 1400 किलो 'बेबी कॉर्न' और 40 टन चारा होता है, जिसका खर्चा करीब 34,205 रुपए है। इस तरह किसान एक हेक्टेयर भूमि पर एक साल में 3 उपज के जरिए 2, 82,750 रुपए तक प्राप्त करता है, जिसके लिए उसे सिर्फ 1,02,075 रुपए ही खर्च करने होते हैं। यदि किसान अधिक भूमि पर इसकी खेती करता है तो उसकी आय भी उसी अनुपात में बढ़ेगी।
विभिन्न विटामिनों और प्रोटीन से भरपूर 'बेबी कॉर्न' की खेती पूरी तरह जैविक खाद का इस्तेमाल करके की जाती है। किसी प्रकार के हानिकारक कीटनाशकों का इस्तेमाल इसमें नहीं किया जाता। सुपाच्य होने की वजह से यह बच्चों के लिए बहुत ही अच्छा है। इसमें मौजूद कैल्शियम के कारण यह हड्डियां मजबूत करने में भी मददगार है। इंसानों के लिए तो यह अच्छा है ही, पशुओं के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इसका चारा खाने से पशु 25-30 प्रतिशत अधिक दूध देते हैं। इंसानों और पशुओं दोनों के लिए फायदेमंद 'बेबी कॉर्न' से गांव के किसान भी खुशहाल हो रहे
प्रोटीन से भरपूर
'बेबी कॉर्न' में फारफोरस (73.5-167.5 मि.ग्रा./100 ग्राम), पोटेशियम (282.4-552.6 मि.ग्रा./100 ग्राम), आयरन (0.6-1.3 मि.ग्रा./100 ग्राम) और कैल्शियम (22.3-36.4 मि.ग्रा./100 ग्राम) है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 1.75-3.76 प्रतिशत तक है, जोकि लोगों की सेहत के लिए अच्छे माने जाते हैं। बढ़ते बच्चों के लिए यह बहुत ही लाभदायक है। कुपोषण के इलाज के लिए इसका उपयोग अच्छा माना गया है। 'बेबी कॉर्न' की खीर आंखों की रोशनी बढ़ाने और ह्दयरोग के मरीजों के लिए फायदेमंद है।
प्रस्तुति: तरुण सिसोदिया
टिप्पणियाँ