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जिस हिसाब से पानी खाद मिला
उस हिसाब से पौधे अधिक बढ़े
कुछ निश्छल न्योते थे सूरज के
कुछ जिद थी छू लेने की आकाश
कुछ पवनों से लड़ने का उनको
बचपन से ही खूब रहा अभ्यास
जिस हिसाब से फिसलन फैलाई
उस हिसाब से ऊंचे खूब चढ़े
भूलभुलैया भरमाती थी रोज
पर जिद थी हमको पथ पाने की
अंधियारा जितना फैला उतनी
बेचैनी भी दीप जलाने की
जिस हिसाब से महंगी हुई किताब
उस हिसाब से आखर बहुत पढ़े
राहजनों के पास रहे हथियार
तो अपना भी सीना था फौलाद
बस्ती जितनी जितनी उजड़े रोज
हम उतना करते जायें आबाद
जिस हिसाब से कटे जड़ों से पेड़
उस हिसाब से तनकर अधिक खड़े
आपत्तियां खड़ी कीं जितनी रोज
समाधान भी सक्षम हो निकले
हर निषेध के फाटक पर लड़कर
पार किए उनके दुर्भेद्य किले
उस हिसाब से ज्यादा दूर चले
जिस हिसाब से पग में शूल गड़े
यक्ष–प्रश्न के अवरोधों से भी
उत्तर अधिक चतुर हैं प्यासों के
दुर्वासा के उग्र शाप से भी
मौन अधिक दाहक नि:श्वासों के
उस हिसाब से कुछ ज्यादा महके
जिस हिसाब से खिलकर फूल झरे
–पंकज परिमल
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