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नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी.एंड ए.जी. अर्थात कैग) सरकार द्वारा नहीं, संविधान द्वारा स्थापित संस्था है। संविधान यह अपेक्षा करता है कि कैग सरकार द्वारा किए गए लेन-देन की जांच करे और यदि उसमें अनियमितता पायी जाती है तो उससे सरकार और संसद को अवगत कराए। पहले इस कार्य के लिए एकाउंटेंट जनरल (महा लेखाधिकारी) की व्यवस्था थी, पर संविधान में परिवर्तन कर उसे यह अधिकार सौंपे गए कि वह सिर्फ सरकारी लेन-देन का अंकेक्षण-परीक्षण न करे बल्कि यह विश्लेषण भी करे कि गड़बड़ी कहां हो रही है। इसीलिए भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक सरकारी योजनाओं के पूर्ण होने अथवा अपूर्ण रहने की स्थिति में भी में किए गए लेन-देन की जांच कर यदि कोई अनियमितता पाई जाती है तो उसे उजागर करता है, यही उसका कर्तव्य है।
संविधान के अनुसार यह संस्था नितांत स्वतंत्र होनी चाहिए। सरकार से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह कैग की रपट पर पूरा संज्ञान लेगी और उसके सुझावों पर अमल करेगी। इसीलिए यह आवश्यक है कि यह संस्था दलगत राजनीति के दल-दल में नहीं फंसनी चाहिए। कैग को वैसे भी दलों की राजनीति से कोई लेना- देना नहीं होता। यदि कैग दलों की राजनीति से प्रभावित होकर कोई रपट तैयार करेगा तो उसकी सार्थकता समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनहित को देखते हुए सरकारों को भी कैग की रपट का स्वागत करना चाहिए। यह नहीं समझना चाहिए कि कैग सरकार के विरुद्ध कोई संस्था है।
पर हो यह रहा है कि कैग यदि कुछ वित्तीय अनियमितताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करता है तो सरकार को लगता है कि वह उसके खिलाफ है, जबकि कैग सिर्फ अपना काम कर रहा है। सरकार द्वारा कैग कार्यालय को इसी बात के लिए वेतन और अन्य सुविधाएं दी जाती हैं। पर अगर इसके बदले कैग को सरकार का पिछलग्गू बनाने के प्रयास किए जाएंगे तो उसकी कोई सार्थकता ही नही रह जाएगी।
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