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यों तो सभी लोग इस नश्वर जगत में पैदा होते हैं, जीते हैं, और अन्त मेंमर जाते हैं, पर उन्हीं का जीना और मरना सार्थक मालूम होता है, जो देश, जाति और धर्म के लिए जीते और मरते हैं। वास्तव में ऐसे ही मनुष्य सच्चे वीर हैं और वे ही अमृत पीकर इस संसार में आते हैं, क्योंकि उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अमर कीर्ति, उनकी शहादत, जाति कभी नहीं भुलाती। वे अपना खून देकर जातीय वृक्ष की जड़ ऐसी सींच जाते हैं कि उसका कभी विनाश नहीं होता। वे स्वयं मरकर जाति को अमर कर जाते हैं।
ऐसे ही वीरात्मा शहीदों में बालक हकीकत राय का भी नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इस वीर बालक ने अपनी जान धर्म के लिए कुर्बान कर दी, पर धर्म हाथ से न जाने दिया। यह क्षत्रिय कुलभूषण सम्वत् विक्रमी 1790 में वागमल वंश में माता कौराल से जन्मा था। इस वीर बालक ने बाल्यकाल से ही धार्मिक शिक्षा खूब पायी थी। ग्यारह वर्ष की आयु में वह फारसी पढ़ने के लिए एक मौलवी के यहां गया।
जब जिस जाति का राज्य होता है, तब वह जाति अपने धार्मिक सिद्धान्तों को ही सर्वोत्तम समझती है। उस समय इस अभागे देश भारत में गोभक्षी मुसलमानों का शासन था, जो अपने इस्लाम मत को ही सबसे अच्छा और मुक्तिदाता समझते थे। निरीह शान्तिप्रिय हिन्दू लोग जबर्दस्ती तलवार के बल से मुसलमान बनाये जाते थे और जो मुसलमान नहीं बनते थे, वे बड़ी ही निर्दयता के साथ मार डाले जाते थे। मुसलमान बनने वालों के लिए बड़े-बड़े प्रलोभन थे कि मरने के बाद बिहिश्त में हूर और गुलाम लोग आनन्दभोग के लिए मिलेंगे। इसके अतिरिक्त यह भी कि मुसलमान होने पर अच्छी-अच्छी सरकारी नौकरियां मिलेंगी। इन प्रलोभनों में भी जो हिन्दू नहीं फंसते, वे फिर मार डाले जाते थे।
वीर बालक हकीकत राय के सामने भी यही समस्या उपस्थित थी। एक दिन मुसलमान बालकों से कुछ ऐसा ही मजहबी विवाद छिड़ गया, जिसमें उसे श्रीरामचन्द्रजी और श्रीकृष्ण जी का अपमान सुनना पड़ा। श्रीराम और श्रीकृष्ण के परमभक्त वीरवर हकीकत राय से वह निन्दा न सुनी गई और उसने भी साहसपूर्वक मुसलमानों को वैसा ही उत्तर दिया। उसी समय कई क्रूर मुल्ला लोग भी वहां आ गये। हकीकत राय के मुख से इस्लाम की निन्दा सुनकर वे बड़े क्रुद्ध हुए, यहां तक कि उसकी जान लेने के लिए उतारू हो गए।
उस समय के न्यायाधीश (काजी) के सामने हकीकत राय का मामला पेश हुआ। काजी ने मौलवियों से परामर्श करके कहा कि 'इस लड़के 'हकीकत राय' ने रसूल और कुरान की तौहीन की है, इसलिए अगर यह अपनी भूल के लिए पश्चाताप करके दीन इस्लाम कबूल कर ले, तो इसे माफी दी जा सकती है, नहीं तो शरीअत के मुताबिक इसके प्राण लिये जायेंगे।' यह मामला सियालकोट में हुआ था।
हकीकत राय ने अविचलित धैर्य से वह दण्ड-आज्ञा सुनी, पर उसके माथे पर शिकन तक नहीं पड़ी। उस समय उस वीर बालक की माता वहां रोती हुई पहुंची और उसे बहुत समझाया कि-'हाय बेटा! क्या तुझे इसी दिन के लिए पैदा किया था, कि तू कत्ल किया जाये? अरे बेटा! तू माफी मांग ले और मुसलमान होकर ही जीवित रह जिससे मैं कभी-कभी तुझे देखकर अपनी आंखें तो ठंडी कर लूंगी।'
पर वह वीर बालक अमरत्व का बीज अपनी आत्मा में धारण किए हुए मृत्यु का प्याला पीने को तैयार था। उसने निर्भीकतापूर्वक कहा- 'अरी माता! मैं धर्मक्षेत्र में खड़ा हुआ। धर्म की उपासना ही सदा करता रहा हूं। तूने ही मुझे प्राचीन पवित्र ऋषियों-मुनियों की गाथाएं सुनाकर धर्म के लिए तैयार किया था। अब मैं उस पवित्र धर्म के मार्ग से कदापि विचलित न होऊंगा। मैं इस्लाम कदापि स्वीकार न करूंगा। धर्म के लिए एक प्राण क्या यदि ऐसे हजारों प्राण भी मुझे बलि चढ़ाने पड़ें, तो भी मैं खुशी से उसके लिए तैयार रहूंगा।'
इसके बाद मामला लाहौर के नवाब के सामने आया। नवाब ने हकीकत राय को बड़े-बड़े प्रलोभन दिए। हूर और गिलमा का दृश्य दिखाया, फिर तलवार का भय भी दिखाया, पर उस धीर-वीर-गंभीर बालक ने अपना व्रत न बदला। नवाब, काजी और मुल्ला सबने ही इस्लाम और कुरान के बड़े गुण-गान किये, पर वह बालक घृणा के साथ उनका उपहास करता रहा। माता ने बालक को बहुत समझाया, पर उस हठीले बालक ने एक न सुनी। वह मुसलमानों और मुल्लाओं को अपना गला दिखाता और कहता कि 'जल्दी इसे काट लो, जिसमें तुम्हारा दीन इस्लाम अधूरा न रह जाए।'
माता के साथ बालक के सम्बंधी और हिन्दू लोग सभी रो रहे थे, पर वीर हकीकत राय प्रसन्नचित्त खड़ा होकर जल्लाद के वार की प्रतीक्षा कर रहा था। अन्त में वह दु:खदायी घड़ी भी आई, जब साक्षात् राक्षस की तरह भयानक जल्लाद अपनी तलवार उस बालक की कोमल गर्दन पर तौलने लगा। एक ही बार में उसका सिर कटकर गिर गया। सब तरफ त्राहि-त्राहि मच गई! उस निरपराध, अबोध बालक हकीकत राय को मारकर कट्टरवादियों ने अपने शासन का जनाजा तैयार करने में एक और कील ठोंकी।
'वाहे गुरु की फतह' कहता हुआ, बालक हकीकत राय अपने धर्म पर कुर्बान हो गया। मुसलमानों का अत्याचारी शासन भी अब न रहा, और न उनकी इस्लामी शरीअत अब किसी अदालत में मानी जाती है, पर धर्म के लिए बलिदान होने वाले हकीकत राय का नाम अब तक विद्यमान है, और जब तक इस पृथ्वी तल पर हिन्दू जाति जीवित है, तब तक उस राम-कृष्ण के प्यारे भक्त हकीकत राय का भी नाम अमर रहेगा।
बलिदान होने वाली वीरात्माएं जितनी संयमी और दृढ़ निश्चयी होती हैं, उतनी ही वे शुद्ध और पवित्र भी होती हैं। संयम और दृढ़ निश्चय के बिना आत्मिक शुद्धता और निर्मल पवित्रता नहीं आ सकती। सच्ची साधना भी तभी हो सकती है, इसलिए विवेकी और ज्ञानी पुरुष आत्मा की शुद्धता के लिए सदा आग्रह करते हैं। वही शुद्ध आत्मा वाला पुरुष सफल बलिदान कर सकता है, जिसने कभी संयम किया हो। देश, जाति और धर्म की पूर्ण सफलता तभी सिद्ध होगी, जब सहस्रों लक्ष्य संयमी आत्माएं हंसते-हंसते बलिदान के लिए तैयार हों! शहादत का प्याला पीना सभी के भाग्य में बदा है, यदि सब संयमी और दृढ़ विचार वाले हों।
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