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भारत को चुनौतियां

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Jan 19, 2013, 12:00 am IST
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भारतीय अनुभूति के तेजपुञ्ज

दिंनाक: 19 Jan 2013 09:37:52

 हृदयनारायण दीक्षित 

ख के अनेक उपकरण हैं, लेकिन आनंद अनुभूतिजन्य है और इसका उपकरण है 'विवेक'। प्राचीन वाङ्मय में सार व असार के बोध को विवेक कहा गया है। विवेक में ही वास्तविक आनंद है। विवेक-आनंद यानी विवेकानंद निपट भारतीय अनुभूति है और स्वामी विवेकानंद हैं इस अनुभूति के अंतरराष्ट्रीय तेजपुञ्ज। विवेकानंद ने सारी दुनिया को भारत के विशेष राष्ट्र होने का मतलब समझाया। राष्ट्रजीवन के विशेष लक्ष्य, भिन्न जीवन प्रणाली, दर्शन दिग्दर्शन और विज्ञान से जुड़ी आकाश छूती जिज्ञासा से युक्त भारतीय राष्ट्र की प्रकृति भी बताई। सैन फ्रांसिस्को में उन्होंने 26 मई 1900 ई0 के दिन एक भाषण में कहा, 'उपनिषद् भारत के बाइबिल हैं। उपनिषदों के अन्तर्गत लगभग 100 पुस्तकें हैं। प्राचीन संस्कृत के उद्भव का समय 5000 ई. पू0 है। उपनिषद् इससे 2000 वर्ष पूर्व के हैं। कोई निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे कितने प्राचीन हैं।' उपनिषद् दर्शन ग्रन्थ हैं। स्वामी जी ने बाइबिल के प्रति आस्थावान जनसमूह के बीच उपनिषदों का इतिहास बताया। फिर बताया कि उपनिषद् मानते हैं कि 'तुम सब कर्मवाद से आबद्ध हो किन्तु वे बाहर निकलने का मार्ग भी घोषित करते हैं।' उन्होंने कहा 'मैं केवल उपनिषदों की शिक्षा देता हूं। उपनिषद् विश्वदर्शन का स्वर्णिम आकाश है। उपनिषद् के ऋषि भारत को एक पुरुष देखते थे। पुरुष प्रतीक ऋग्वेद में है, उपनिषदों में हैं और गीता में भी है। स्वामी विवेकानंद का बोला और लिखा बहुत बड़ा साहित्य है यहां। इस आलेख में स्वामी जी के विचार 'अद्वैत आश्रम' कोलकाता से प्रकाशित विवेकानंद साहित्य से लिए गये हैं।

पश्चिम और भारत का अंतर

स्वामी जी ने भारत को जीवमान सत्ता बताया और कहा, 'मैं भारत को एक सजीव प्राणी के रूप में देखता हूं। यूरोप भी सजीव और युवा है लेकिन यूरोप की दृष्टि और जीवन प्रणाली भिन्न हैं'। पश्चिम भौतिक उपकरणों में सुख खोजता है, यह सुख अस्थायी है। भारत का राष्ट्रजीवन अन्त: बोध में सत्य पाता है। सत्य चेतना ही सत् चित् आनंद अर्थात सच्चिदानंद है। स्वामी जी ने कहा 'पश्चिम का सामाजिक जीवन एक अट्ठहास है किन्तु भीतर से रुदन है। उसका अंत सिसकी में है। समस्त आमोद-प्रमोद सतह पर हैं। पर यहां (भारत) बाहर से दुख है भीतर निश्चिंतता और आह्लाद है। स्वामी जी ने उपनिषद् दर्शन का 'निर्भय तत्व' समझाया। उन्होंने कहा, 'उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है-उपनिषद् कहते हैं, हे मानव, तेजस्वी बनो, वीर्यवान बनो, दुर्बलता को त्यागो। मनुष्य प्रश्न करता है, क्या मनुष्य में दुर्बलता नहीं है? उपनिषद् कहते हैं, अवश्य है, किन्तु अधिक दुर्बलता द्वारा क्या यह दुर्बलता दूर होगी? क्या तुम मैल से मैल धोने का प्रयत्न करोगे? पाप के द्वारा पाप अथवा निर्बलता द्वारा निर्बलता दूर होती है? उपनिषद् कहते हैं, हे मनुष्य, तेजस्वी बनो, वीर्यवान बनो, उठकर खड़े हो जाओ। जगत् के साहित्य में केवल इन्हीं उपनिषदों में 'अभी:' (भयशून्य) यह शब्द बार-बार व्यवहृत हुआ है और संसार के किसी शास्त्र में ईश्वर अथवा मानव के प्रति 'अभी:'- 'भयशून्य' यह विशेषण प्रयुक्त नहीं हुआ है। 'अभी:' यानी              निर्भय बनो।'

भारत ने मनुष्य चेतना को शाश्वत, अजर, अमर बताया था। वैदिक दर्शन और उपनिषद् अनुभूति ने इसी अमरतत्व को वाणी दी लेकिन विवेकानंद ने उसे जीकर दिखाया। उन्होंने ऐसे अनुभव का शब्द चित्र खींचा 'मेरे मन में अतीत काल के उस पाश्चात्य सम्राट सिकन्दर का चित्र उदित होता है और देख रहा हूं वह महाप्रतापी सम्राट सिन्धु नदी के तट पर खड़ा होकर अरण्यवासी, शिलाखंड पर बैठे हुए वृद्ध, नग्न, हमारे ही एक संन्यासी के साथ बात कर रहा है। सम्राट संन्यासी के अपूर्व ज्ञान से विस्मृत होकर उसको अर्थ और मान का प्रलोभन दिखाकर यूनान देश में आने के लिए निमंत्रित करता है। वह व्यक्ति उसके प्रलोभनों पर मुस्कुराता है और अस्वीकार कर देता है। सम्राट ने अपने अधिकार-बल से कहा, यदि आप नहीं आयेंगे तो मैं आपको मार डालूंगा।' यह सुनकर संन्यासी ने खिलखिलाकर कहा, 'तुमने इस समय यह कैसा मिथ्या भाषण किया, मुझको कौन मार सकता है? जड़ जगत् के सम्राट, तुम मुझको मारोगे? कदापि नहीं। मैं चैतन्यस्वरूप, अज और अक्षय हूं। मेरा कभी जन्म नहीं हुआ और न कभी मेरी मृत्यु हो सकती है।'

उपनिषद जीवन का प्रवाह

उपनिषद् आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों के बोध से परे एक आनंदमग्न देश का भव्य चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा बड़ी गजब की है। स्वामी जी ने कहा है, 'उपनिषदों की भाषा ने नया रूप धारण किया, उपनिषदों की भाषा एक प्रकार से 'नेति' वाचक है, स्थान स्थान पर अस्फुट है, मानो वह तुम्हें अतीन्द्रय राज्य में ले जाने की चेष्टा करती है, वह केवल तुम्हें एक ऐसी वस्तु दिखा देता है, जिसे तुम ग्रहण नहीं कर सकते, जिसका तुम इन्द्रियों से बोध नहीं कर पाते, फिर भी उस वस्तु के सम्बन्ध में तुमको साथ ही यह निश्चय भी कराता है कि उसका अस्तित्व है। संसार में ऐसा स्थल कहां है जिसके साथ इस श्लोक की तुलना हो सके? – 'न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्।/नेता विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।।' – वहां सूर्य की किरण नहीं पहुंचती, वहां चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते, बिजली भी उस स्थान को प्रकाशित नहीं कर सकती, इस सामान्य अग्नि का तो कहना ही क्या? कठोपनिषद् के इस मंत्र का प्रशंसापूर्ण उल्लेख मार्क्सवादी चिन्तक डा. रामविलास शर्मा ने भी किया है।

उपनिषद् संसार विरोधी नहीं हैं। ईशावास्योपनिषद् में त्याग और भोग एक साथ हैं 'काम करते हुए सौ वर्ष जिएं। यह सब ईश्वर का है ऐसा जानते हुए त्याग करें और उसका प्रसाद जानकर भोग करें।' स्वामी जी ने बताया 'कुछ पुरोहित कहते हैं कि सब संन्यासी हो जाएं। उपनिषद् कहते हैं -नहीं धरती के श्रेष्ठतम उच्चतम, सद्यतम फूल ही वेदी पर रखे जायें। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ बुद्धि वाले बलशाली युवा ही सत्य के लिए संघर्ष करें।' 'स्वामी जी ने बिल्कुल ठीक कहा है। कठोपनिषद् के ऋषि ने सत्य खोजी की पात्रता बताई है 'नायेनात्मा बलहीनलभ्यो- यह परमसत्य बलहीन को ही मिलता।' 'शक्ति जरूरी है। स्वामी जी ने बताया कि 'पुरोहित को दोष देने से पहले स्वयं को दोष दो। तुम केवल उसी प्रकार की सरकार, धर्म और पुरोहित प्राप्त कर सकते हो, जिसके तुम पात्र हो। अच्छी सत्ता भी योग्य समाज को ही  मिलती है।

उपनिषद् भारत की मेधा के पराग हैं और गीता उपनिषदों का सरल समन्वय। स्वामी जी ने कहा 'गीता पुष्पमाला के सर्वोत्तम चुने हुए फूलों के एक गुलदस्ते के समान है। उपनिषदों में श्रद्धा की विवेचना है किन्तु भक्ति का उल्लेख अल्प ही है। गीता में भक्ति की अन्तर्निष्ठ भावना चरम उत्कर्ष पर है।' गीता पर स्वामी जी के विचार पठनीय हैं लेकिन गीता के दूसरे अध्याय के पहले, दूसरे व तीसरे श्लोकों का उल्लेख स्वामी जी का केन्द्रीय विचार है। अर्जुन विषादग्रस्त था। सामने युद्ध के लिए तत्पर गुरुजन, परिजन थे। कृष्ण ने कहा कि यह विचार तुम्हारे मन में कहां से आया। यह आर्य आचरण नहीं है। फिर तीसरा श्लोक है 'क्लैव्यं मा स्म- कायर, नपुंसक मत बनो। हृदय की दुर्बलता छोड़ो और उठो।' स्वामी जी ने इस श्लोक पर अतिरिक्त जोर दिया और कहा, 'क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपयद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप – पढ़ें तो सम्पूर्ण गीता-पाठ का लाभ होता है, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।' उन्होंने युवकों से कहा, 'यदि दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते – तो ये सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जायें। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जायेंगे। इस समय सर्वत्र  है-भय के स्पंदन का यह प्रवाह। प्रवाह को उलट दो, उलटा स्पंदन लाओ। तुम सर्वशक्तिमान हो- तोप के मुंह तक जाओ, जाओ तो, डरो मत।'

भारत के सामने तमाम चुनौतियां हैं। अंग्रेजी सत्ता चली गई लेकिन अंग्रेजी साम्राज्यवादी सभ्यता का हमला है। रोटी, दाल, नमक, तेल में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होने लगा है। मतान्तरण पर अरबों डालर बह रहे हैं, राष्ट्रान्तरण के घटिया प्रयास हो रहे हैं। अल्पसंख्यकवाद और राष्ट्रवाद के बीच युद्ध है। जिहादी आतंकी हथियारबंद हैं, माओवादी सशस्त्र युद्धरत हैं? जम्मू-कश्मीर स्वायत्तता की मांग प्रधानमंत्री के वार्ताकारों ने भी बढ़ाई है। असम जब-तब जल उठता है। पूर्वोत्तर अशान्त है। आंतरिक सुरक्षा तार-तार है। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को खतरा है। स्वामी जी का संदेश है 'क्लैव्यं मा स्म' कायर न बनो। 'प्रबुद्ध भारत' के प्रतिनिधि ने 1898 में स्वामी जी से पूछा था 'आपके कार्यक्रम की सबसे खास बात क्या है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, 'आक्रमण'। 'आक्रमण' ही श्रेष्ठतम आत्मरक्षा है। प्रतिनिधि ने पूछा 'भारत के सम्बन्ध में आपके आन्दोलन की कार्यपद्धति क्या है?' स्वामी जी ने कहा 'हिन्दू धर्म के व्यापक आधारों को प्राप्त करना और उनके प्रति राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करना।' यह पत्रकार वार्ता लम्बी है लेकिन अन्तिम वाक्य ध्यान देने योग्य है 'भारत में विश्वास करो, भारतीय धर्म में विश्वास करो, शक्तिशाली बनो, आशावान बनो, संकोच छोड़ो और याद रखो कि यदि हम बाहर से कोई वस्तु लेते हैं तो संसार की किसी अन्य जाति की तुलना में हिन्दू के पास उसके बदले में देने को अनन्त गुना अधिक है।'

संस्कृत भारत का प्राण

संस्कृत भारत की अन्त: प्रज्ञा से उगी। लेकिन पश्चिमी विद्वान संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं मानते। पश्चिमी विचारों से प्रभावित अनेक भारतवासी भी संस्कृत को लोकभाषा नहीं जानते। स्वामी विवेकानंद ने 31 जनवरी 1900 के दिन कैलीफोर्निया में कहा 'यद्यपि आज दो सहस्त्र वर्षों से संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं है पर उसकी साहित्य सरिता आज तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित हो रही है।' उन्होंने 'रामायण' (वाल्मीकि) को भारत का प्राचीनतम महाकाव्य बताया लेकिन यह भी कहा 'रामायण के पूर्व भी संस्कृत में काव्य का अभाव न था। वेदों का अधिकांश पद्यमय ही है किन्तु भारत में रामायण ही कविता का प्रारम्भ माना जाता है।' उन्होंने कैलीफोर्निया के श्रोताओं के मध्य रामायण का कथानक सुनाया और कहा 'यह है भारत का महान आदि काव्य। राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श हैं। सीता भारतीय आदर्श एवं भारतीय भाव की प्रतिनिधि हैं। मूर्तिमती भारत माता हैं।' यहां 'भारत माता' शब्द देने योग्य है। सीता सबकी माता हैं। स्वामी जी ने कहा, 'ऐसी अन्य कोई पौराणिक कथा नहीं है, जिसने सीता के चरित्र की भांति पूरे भारतीय राष्ट्र को आच्छादित और प्रभावित किया हो, उसके जीवन में इतनी गहराई तक प्रवेश किया हो, जो जाति की नस-नस में, उसके रक्त की एक-एक बूंद में इतनी प्रवाहित हुई हो। भारत में जो कुछ पवित्र है, विशुद्ध है, जो कुछ पावन है, उस सबका 'सीता' शब्द से बोध हो        जाता है।'

भारत आत्मबोध, तत्वबोध और आदर्श जीवन निष्ठा की पुण्यभूमि है। स्वामी जी ने मद्रास के भाषण में कहा था, 'यह वही प्राचीन भूमि है, जहां दूसरे देशों को जाने से पहले तत्व ज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनायी थी।' स्वामी जी भारतीय तत्व दर्शन के अंतरराष्ट्रीय स्वाभिमान थे। उन्होंने कहा 'यह वही भूमि है, जहां से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्वों ने समग्र संसार को बार-बार पल्लावित कर दिया और यही भूमि है, जहां से पुन: ऐसी ही तरंगें उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। यह वही भारत है जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत-शत आक्रमण और सैकड़ों आचार व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है। यूरोप के राष्ट्र राज्य राजनीतिक हैं और भारतीय राष्ट्रभाव सांस्कृतिक। स्वामी जी ने कहा, 'यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है, लेकिन एशिया में राष्ट्रीय एक्य का आधार धर्म है।'  फिर उन्होंने धर्म की व्याख्या की 'एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का धर्म नहीं जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं, हमारे विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धांत तथा दावे चाहे कितने ही विभिन्न क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ सिद्धांत ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं, उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें सम्पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है।'

भारत में बहुदेव उपासना है लेकिन अनुभूति में अद्वैत है। स्वामी जी ने भारत माता की आराधना को ईश्वर पूजा कहा 'आगामी पचास वर्ष के लिये यही जननी जन्मभूमि भारतमाता ही आराध्य देवी बन जाये। तब तक के लिये हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं। जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही न करें? जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे, तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।' भारत का भविष्य भारतीयता में ही है और विवेकानंद हैं भारतीय चेतना के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता। अनुकरणीय है उनका कृतित्व। करणीय है उनके |ɤÉÉävÉxÉ*l

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