असद की क्रूरता44 हजार लोग मरे
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असद की क्रूरता
44 हजार लोग मरे
मुजफ्फर हुसैन
21 वीं शताब्दी में भी इनसान रोटियों के लिए गोली का निशाना बनाया जाता है। जब दुनिया क्रिसमस मना रही थी ठीक उसी दिन सीरिया की राजधानी दमिश्क से कुछ दूर स्थानीय बेकरी पर लोगों की भीड़ रोटियों के लिए तरस रही थी। उन्हें रोटी तो नहीं मिली लेकिन जानलेवा गोलियां जरूर मिल गईं। भूखों की इस भीड़ पर हवाई हमला किया गया जिसमें 300 लोग हताहत हो गए। भूखे बच्चों को रोटी के दर्शन नहीं हुए लेकिन अपने बाप और भाई की रक्तरंजित लाशें अवश्य दिखाई पड़ीं। इतिहास में ऐसी घटनाएं रूस और फ्रांस में अवश्य हुई थीं लेकिन सीरिया में यह घटना उस दिन हुई जिसे इतिहास में 'बड़ा दिन' कहा जाता है। सेंटा क्लोज तो नहीं आया लेकिन बशरूल असद की सेना मौत बनकर अवश्य उपस्थित हो गई। सीरिया में अब तक करीब 44 हजार लोग मारे गए हैं।
2012 में घटित घटनाओं को जब याद किया जाएगा तब मिस्र की क्रांति को इतिहास भुला नहीं सकता। इस क्रांति को वसंत की उपमा दी गई थी। इस्रायल के विरुद्ध मुस्लिम देशों ने संगठित होकर तीन युद्ध लड़े लेकिन उनका कोई परिणाम नहीं निकला। बाद में मिस्र ने अपनी नई नीति के अनुसार इस्रायल से दोस्ती कर ली। इस बात को लेकर इस्लामी देश मिस्र से नाराज होते चले गए। अनवर सादात और बाद में हुसनी मुबारक तो एकदम अलग-थलग पड़ गए। मिस्र में 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक से ही इखवानुल मुस्लिमीन नामक एक कट्टर मजहबी संगठन अस्तित्व में आ गया। मिस्र प्रारंभ में रूस के साथ था। इसलिए वहां समाजवाद की हवाएं चलने लगीं। इसका प्रभाव मिस्र के निकट बसे सीरिया पर भी बहुत हुआ। वहां क्रांति के पश्चात् हाफिज असद के हाथों में सत्ता आ गई। मिस्र और सीरिया दोनों निकट थे इसलिए एक समय ऐसा आया कि समाजवाद के प्रभाव से इन दोनों देशों ने आपस में मिलकर एकता के सूत्र में बंधने के लिए एक राजनीतिक आधार भी तैयार कर लिया। किंतु दोनों में एक बड़ा अंतर यह था कि मिस्र सुन्नी विचारधारा वाला देश है, जबकि सीरिया में शिया आस्था वाले हाफिज असद की सरकार थी। हाफिज असद अलवी सम्प्रदाय के हैं लेकिन सीरिया सुन्नी बहुल देश है। आज भी वहां जो असंख्य टकराव हैं उनमें मौलिक अंतर शिया और सुन्नी का ही है। मिस्र की तरह सीरिया की राजधानी दमिश्क में भी इखवानुल मुस्लिमीन का दबदबा बढ़ता चला गया। इसलिए बहुत शीघ्र सीरिया भी क्रांति का घटक बन गया।
निरंकुश तानाशाह
मिस्र में तो इखवान ब्रदरहुड बहुत ताकतवर सिद्ध हुई लेकिन सीरिया में वह अपना प्रभाव नहीं दिखा सकी। इस बीच सीरिया के ताकतवर नेता हाफिज असद ने अपनी सत्ता अपने बेटे बशरूल असद को सौंप दी। पुत्र के हाथों में सत्ता आते ही वे निरंकुश तानाशाह के रूप में काम करने लगे। इसका प्रमुख कारण यह था कि सीरिया की सीमाओं से लगा हुआ लीबिया देश है। कर्नल गद्दाफी के विरुद्ध जो आंदोलन चला उससे पाठक भली प्रकार परिचित हैं। गद्दाफी और उसके बेटे ने अपने विरोधियों का सफाया करने में कोई कसर शेष नहीं रखी। पाठकों को बता दें कि मिस्र, सीरिया और लीबिया ये तीनों देश किसी समय में साम्यवादी गुट के थे। लेकिन तीनों ने जिस प्रकार का तानाशाही रवैया अपनाया वह अमरीका के लिए उस समय वरदान साबित हुआ जब रूस का दूसरी महाशक्ति के रूप में पतन हो गया। शनै: – शनै: तीनों पर अमरीका ने अपना फौलादी शिकंजा कस दिया। अमरीका का आशीर्वाद मिलते ही यह तीनों नेता तानाशाह के रूप में अवतरित हो गए। जब जनता में इनकी तानाशाही और पारिवारिक निरकुंशता बढ़ने लगी तो इसका लाभ कट्टर इखवानुल मुस्लिमीन को मिल गया। मिस्र में जब सत्ता परिवर्तन में उसे सफलता मिल गई तो फिर सीरिया की ओर भी कदम बढ़ने लगे। सीरिया में बशरूल असद ने अब तक इखवानुल के सामने हथियार नहीं डाले हैं। अमरीका इखवानुल को बशरूल असद से भी अधिक खतरनाक मानता है। इसलिए उसे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर सहायता दे रहा है। बशरूल असद अकेले जनता से मुकाबला कर रहे हैं। उनकी सेना इतनी क्रूर है कि उसने चंगेज और हलाकू को मात कर दिया है। लगभग 21 माह से यह संघर्ष जारी है। इस अवधि में बशरूल असद ने 44 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। बशरूल असद किसी की बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वह तो किसी भी कीमत पर अपनी सत्ता छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। राष्ट्र संघ के नेतृत्व में प्रयास जारी हैं।
बशरूल असद की क्रूरता से सारी दुनिया दुखी है लेकिन उससे निपटा किस प्रकार जाए यह सबसे बड़ा सवाल है। जहां तक इस्लामी जगत द्वारा उन्हें समझाने का सवाल है तो इस्लामी देशों का सबसे बड़ा संगठन है आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज (ओआईसी) । दूसरा है गल्फ काउंसिल। लेकिन दोनों ही इस मामले में सक्रिय नहीं हैं। क्योंकि इस्लामी देशों में उनके पंथ की संकीर्णता हमेशा ही आगे आती है। अपने आपको इस्लामी कहने वाले हमेशा शिया-सुन्नी में बंटे रहते हैं। उसके अतिरिक्त भी अनेक आधार हैं जिनमें उनका तालमेल नहीं है। बशरूल असद को समझाने के अब तक अनेक प्रयास हुए हैं लेकिन वे टस से मस नहीं होना चाहते हैं। न तो वे लोकतंत्र की ताकत समझते हैं और न ही विश्व सभ्यताओं के उतार-चढ़ाव को मानते हैं। अपने हर समीकरण को वे हथियारों की पूर्ति और स्वयं के सीरिया में एकमात्र सत्ताधीश समझने से शुरू करते हैं।
सरकारी हिंसा
लेकिन पिछले दिनों कुवैत ने इस मारकाट को लेकर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की हिम्मत दिखाई है। पिछले दिनों बेरूत से मिले समाचारों के अनुसार कुवैत जनवरी 2013 में अपने यहां यह प्रयास करेगा। कुवैत के अमीर ने पिछले दिनों लेबनॉन में इस प्रकार की घोषणा की है। लेकिन बशरूल असद को आशा नहीं है कि इस प्रकार का कोई सम्मेलन सीरिया में चल रहे गृहयुद्ध को समाप्त करवा सकेगा। दमिश्क में अंतरराष्ट्रीय दूत अलखिजर बराहिमी ने असद से भेंट की है। उन्होंने बाद में वहां के विरोधी दलों से भी इस मामले में वार्तालाप किया है। लेकिन बशरूल असद के विरोधियों का कहना है कि जब तक सरकारी सेना सामान्य नागरिकों पर हमला करने और उन्हें मारने का आंदोलन बंद नहीं करती है तब तक कोई बातचीत नहीं की जा सकती है। बशरूल असद के विरोधियों का कहना है कि असद किसी कीमत पर अपने हाथों से सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं इसलिए उनसे बातचीत करें तो किस आधार और मुद्दे पर। जब तक सरकारी हिंसा बंद नहीं होगी तब तक बातचीत का कोई परिणाम नहीं आएगा। असद आम जनता को अपना दुश्मन मानते हैं इसलिए कत्लेआम के अतिरिक्त उनके पास कोई रीति-नीति नहीं है। दुनिया की ताकतें तमाशा देख रही हैं। यदि यह संघर्ष बंद नहीं होता है तो फिर सुन्नी-शिया और अरब-इस्रायल युद्ध किस समय फट पड़ेंगे, यह कहना कठिन होगा।
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