गांव की बेटी, सबकी बेटी
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गांव की बेटी, सबकी बेटी

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Jan 12, 2013, 12:00 am IST
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गांव की बेटी, सबकी बेटी

दिंनाक: 12 Jan 2013 12:46:15

मृदुला सिन्हा

दादी अपने जीवन में छुआछूत का विशेष व्यवहार करती थीं। दरवाजे और आंगन, खेत-खलिहाल में काम करने वाली महिला-पुरुषों को कभी अपना शरीर नहीं छूने देतीं। पर उनसे मुहब्बत भी बहुत करती थीं। गांव में किसी जाती की बेटी का ब्याह हो, वे हम बहनों को लेकर पहुंच जातीं। देर से ही सही, विवाह देखतीं, गीत गातीं। उनकी आंखें बार-बार भर आतीं। बेटी विदा होते समय तो खूब रोतीं। तब मुझे उनके रोने का मतलब नहीं समझ आता था। लेकिन मैं भी उनके साथ रोती। वे मुझे चुप कराने के लिए स्वयं चुप हो जातीं। घर आकर मैं उनसे पूछती-'आप क्यों रोईं?' वे कहतीं-'अभी नहीं, बड़ी होकर समझ जाओगी।'

दादी कहा करती थीं-'तिरिया जनम में दु:ख ही दु:ख है। पर यही दु:ख उसके सुख का कारण है।' दादी का एक और अटल मत था-'नारी जाति का यह सौभाग्य है कि उसे दो घर मिलते हैं। मायका और ससुराल, एक आंगन से उखाड़कर दूसरे आंगन में उसका प्रत्यारोपण होता है। दो आंगनों के संस्कारों में बहुत भिन्नता होती है। जीवन पर्यंत उसे उस भिन्नता को पाटने में तकलीफें सहनी पड़ती है। जिन दो परिवारों को अपने अंदर संभाल कर वह रखती है, उन्हीं के कारण दु:ख भी सहती है।'

स्त्री जाति के बारे में बड़ी गहरी सोच थी दादी की। एक बार हम हरिद्वार गए थे। पूरी यात्रा में उन्हें स्मरण था कि अमुक दिन एक ग्रामीण लड़की की शादी है। वे मेरे पिताजी से कहतीं-'उसकी शादी से एक दिन पहले गांव पहुंचना है।' गाड़ी के विलंब से चलने से ऐसा संभव नहीं हुआ। शाम होते ही वे रोने लगीं। मैंने पूछा-'क्या हुआ दादी?'

वे झल्लाईं-'होगा क्या, इस समय सलेहिया की बारात आई होगी। सुबह वह विदा हो जाएगी। मैं इस बार उस गांव की बेटी को विदा भी नहीं कर पाऊंगी।'

दादी फट पड़ीं। पर मेरा ध्यान 'गांव की बेटी' पर अटक गया। दादी जब चुप हुई, मैंने पूछा-'दादी, सलेहिया तो पलटन मांझी की बेटी है, आपने उसे गांव की बेटी क्यों कहा?'

दादी बोलीं-'बड़ी होकर समझ जाओगी।' ऐसा ही हुआ। उम्र के साथ बात समझ में आने लगी कि गांव की बेटी, सबकी बेटी होती थी। बेटे नहीं। बेटी, किसी भी जाति की हो, उसकी सुरक्षा के लिए सब जाति के लोग तत्पर होते थे। ऐसा नहीं कि बेटियों के साथ पुरुषों द्वारा दुराचरण नहीं होता हो, लेकिन पकड़े जाने पर उन्हें सजा भी गांव वाले ही देते थे। समाज बहिष्कार की सजा। हुक्का-पानी बंद करने की सजा। जो मृत्युदंड से भी दर्दनाक होती थी।

दादी स्त्री को पुरुष की 'इज्जत' कहती थीं। वे हमारे भाइयों को सिखातीं-'बहनें तुम्हारी इज्जत हैं। तुम्हें राखी का धागा बांधती हैं। इनके ऊपर कोई विपत्ति आए तो तुम्हें इनकी रक्षा करनी है।' एकबार एक लड़की के साथ जंगल में ही दुर्व्यवहार हो गया। एक ग्रामीण नौजवान ने देखा और दौड़कर गांव वालों को सूचित करने गांव आ गया। दादी ने उसे फटकारते हुए कहा-'लानत है तुम्हारी मर्दानगी को। घुन लग गया तुम्हारी जवानी को। तुम्हारे गांव की बेटी की इज्जत लूटी जा रही थी, और तुम भागकर यहां आ गए। वहीं निपट लेते उस दुराचारी से। तुम्हारी जवानी किस काम की। मर भी जाते तो क्या, स्त्री की रक्षा में मरने वाले पुरुष स्वर्ग ही जाते हैं।'

दादी बेटियों की सुरक्षा के लिए पुलिस दरोगा की बंदूक की ताकत में विश्वास नहीं करती थीं। वे लोकगीतों के भावों में डूबती उतराती थीं, जिसमें पुरुष को स्त्री का रक्षक माना जाता था-

'आही घून लगतौ हे स्वामी नाथ बाहीं घून लगतौ हे, तोहरे अछइते भैंसुर बाट रोकल रे की।'

पानी लाने के लिए नदी किनारे जा रही है। उससे भैंसुर (जेठ) राह में छेड़छाड़ करता है। वह घर आकर अपने पति को ललकारती है-'तुम्हारे रहते मेरे जेठ ने मेरा रास्ता रोक लिया। तुम्हारी बाहों में घुन लगा है क्या?'

पति कहता है-

'जइबो में हाजीपुर, लइबो में शंका छूरा

छूरवा उठाइए भैया बध करव रे की।'

अपनी पत्नी द्वारा पत्नी की सुरक्षा में पति के कर्त्तव्य स्मरण दिलाने पर पति क्रोधित हो जाता है और भाई की हत्या करने का निर्णय कर लेता है।

घर से बाहर जाने वाली बहू-बेटियों को डोली पर बैठाकर ले जाया जाता था। डोली में बैठी 'इज्जत' (बेटी) की सुरक्षा के लिए दो पुरुष लाठी लिए संग-संग चलते थे। चार कहार डोली लेकर। डोली पर किसी का आक्रमण हुआ तो छ: पुरुष अपनी जान पर खेलकर भी बहू की रक्षा करते थे।

स्त्री को अपनी इज्जत समझने वाले समाज में उन्हें विशेष सुरक्षा भी दी जाती रही है। स्त्री और पुरुष कभी बराबरी के दंगल में नहीं आए। स्त्रियों को भले ही औपचारिक शिक्षा नहीं दी जाती थी, पर उन्हें घर चलाने, मेहमानों का सम्मान करने आदि की शिक्षा अवश्य दी जाती थी। दरिंदों से अपनी सुरक्षा की शिक्षा भी। यह मानकर चला जाता था कि वह परिवार की धुरी होगी। पुरुष उसका सहयोगी होगा, पर घर की वागडोर उसी के हाथों में होगी। तभी तो कई पुरुष भी अपनी पत्नियों को 'मालकिनी' कहकर ही पुकारते थे। घर से ही लड़कों को भी स्त्री का सम्मान करने की शिक्षा मिलती थी।

ऐसा नहीं कि उन दिनों लड़कियों के साथ छेड़छाड़, बालात्कार और घरों में उत्पीड़न की घटनाएं नहीं घटती थीं, पर समाज ही दंडित भी करता था। सामाजिक बंधन में बंधे लोगों के मन में समाज भय था।

इधर सारे बंधन टूट गए। यह भी कहा जाता रहा कि 'ऐसा तो पहले भी होता था'। संस्कृति सूत्र एक भाव है। 'यत्र नार्यीस्तु पूज्यंते', 'मातृवत् पर दारेषु' संस्कृति के सूत्र हैं। हमारी परंपराओं में इन सूत्रों को पिरो रखा था। परंपराएं बदलती रहतीं हैं। देश, काल पात्र के अनुसार परंपराएं बदली हैं। पर संस्कृति सूत्र नहीं बदलते।

'गांव की बेटी, सबकी बेटी' की धारणा बदलने से बहुत कुछ बदला-बदला सा दिख रहा है। हम सब महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार की घटनाओं के कारण ढूंढ़ रहे हैं। स्त्री-पुरुष, समाज, सरकार एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं। कारण का पता नहीं लग रहा है। 'रोपा पेड़ बबूल का, आम कहां से होए'। 'गांव की बेटी, सबकी बेटी' तथा 'बिटिया है विशेष' जैसी धारणाओं पर अमल करना ही होगा, तभी बेटियां सुरक्षित और सम्मानित होंगी। औपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम और पारिवारिक व्यवहारों में स्त्री को सम्मान करना सिखाना होगा। बेटी जन्में भी और शान-सम्मान से जिएं भी।

'जननी को जन्मने दो, जन्मी को जीने दो।'

काश! आज दादी जिन्दा होतीं। इस बड़े गांव (नई दिल्ली) के सभी पुरुषों के लिए गालियां निकालतीं। उन्हें कापुरुष कहतीं। स्त्री को सम्मान और सुरक्षा देने में अक्षम पुरुषों को पाप लगने का भय दिखातीं। मुझे ऐसा लगता है कि अंत में अपना ही सिर धुनतीं-'हमने लड़कों को लड़कियों की सुरक्षा करना और लड़कियों को अपना बचाव करना सिखाया ही नहीं, दोष किसे दें।'

सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़कर दादी स्त्री जीवन के लिए विलखती रहतीं। लेकिन हिम्मत नहीं हारतीं। अपने घर में पोतियों के जनम पर दु:खी होती थीं दादी। लेकिन उनके पालने-पोषने में लड़कों से अधिक ध्यान देती थीं। उन्हें ही आगे चलकर मां बनना था। मां ही अपने बच्चों को सही-गलत की पहचान कराती है। इसलिए बेटी को विशेष मानकर विशेष शिक्षा देती थीं दादी। विशेष सुरक्षा और सम्मान भी। फिर आज उसी दादी (पिछली पीढ़ी) के आंगन में बेटियां असुरक्षित क्यों? किससे कहां भूल हो रही है? संपूर्ण समाज को दादी की तरह आत्मनिरीक्षण करना है। अपना दोष ढूंढ़ना है। दूसरों की ओर उंगली उठाते-उठाते यह नियति आ गई कि बेटियां कहीं सुरक्षित नहीं। इस स्थिति को बदलना होगा।

'बेटी का सम्मान करें हम

जन्में तो अभिमान करें हम'

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