करूं क्या आस निरास भयी…
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विजय कुमार
मुझे बड़ी आशा थी कि कम से कम इस बार तो दुनिया नष्ट हो ही जाएगी। कई दिन से अखबार और टी.वी. वाले कह रहे थे कि माया कैलेंडर के अनुसार 21 दिसम्बर, 2012 पृथ्वी के जीवन का अंतिम दिन है, पर कुछ नहीं हुआ। जैसी दुनिया कल थी, वैसी ही आज है। बल्कि कल से कुछ बदतर ही है। सोचिये, यदि दुनिया नष्ट हो जाती, तो मेरा कितना लाभ होता ? आप समझने का प्रयास करें।
मैंने दो महीने पहले शर्मा जी से पांच हजार रु0 उधार लिये थे। वे कई दिन से उसे लौटाने की जिद कर रहे थे, पर मुझे पता था कि 21 दिसम्बर को सब कुछ नष्ट हो जाएगा। फिर कहां होंगे शर्मा जी और कहां उनका उधार ? बल्कि मुझे तो दुख इस बात का हो रहा था कि मैंने उनसे पांच की बजाय दस हजार रु0 क्यों नहीं लिये ? पर अब तो उन्हें पैसे देने ही पड़ेंगे।
मैंने अपने मकान मालिक चंदूलाल जी को पिछले छह महीने से किराया नहीं दिया। वे कई बार प्यार से और फिर गुस्से से भी कह चुके हैं। एक बार तो वे सामान फेंकने की धमकी देने लगे, पर मैं चुप था। मुझे आशा थी कि 21 दिसम्बर के बाद न चंदूलाल जी रहेंगे और न उनका मकान, पर पूरा दिन बीत गया, कुछ नहीं हुआ। अब उनका किराया भी चुकाना ही होगा।
21 दिसम्बर की सुबह मेरे एक मित्र की मौसी का देहांत हो गया। 11 बजे उनका फोन आया कि मैं शमशान में हूं। कार्यालय कुछ देर से आऊंगा। मैं ठहरा मुंहफट आदमी, मैंने कह दिया कि मौसी जी के दाह संस्कार के बाद भी वहीं रहना, वरना दुबारा ले जाने में पैसे खर्च करने पड़ेंगे।
इससे नाराज होकर वे गाली देने लगे। मैंने कहा, 'दे लो भाई, जितनी चाहे गाली दे लो। यह अरमान भी मन में न रह जाए।' पर शाम तक वे कार्यालय में आ गये। कई साल की मित्रता एक ही दिन में समाप्त होने का संकट पैदा हो गया। बड़ी मुश्किल से बात को संभाला। सोचिये, दुनिया नष्ट न होने से मेरी कितनी हानि हुई ?
जनवरी में मेरी पत्नी जी को धरती पर बोझ बने 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। वे पिछले कई महीने से कह रही थीं कि इसे धूमधाम से मनाएंगे। दिन में कथा–कीर्तन और रात में सभी मित्र, परिचितों और रिश्तेदारों का भोजन। बच्चे भी उनके समर्थन में थे, पर इससे मैं बीस–तीस हजार के नीचे आ जाऊंगा, इसका उन्हें ध्यान ही नहीं था।
मैंने बात को टालने के लिए हां कर दी, क्योंकि मुझे 21 दिसम्बर का ध्यान था। उसके बाद कैसी पत्नी और कैसा जन्मदिन ? पर भगवान ने मुझ पर दया नहीं की। अब उनका जन्मदिन मनाना ही पड़ेगा। उन्होंने और बच्चों ने मिलकर 200 लोगों की सूची के साथ–साथ दावत का 'मीनू' भी बना लिया है। अब मेरे पास जेब ढीली करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।
मेरी कविताओं की एक पुस्तक कई साल पहले प्रकाशित हुई थी। मैं उसे नि:शुल्क बांट–बांटकर थक गया, पर आज तक उसे किसी संस्था ने सम्मान तो दूर, समीक्षा के योग्य भी नहीं समझा। इससे झल्लाकर मैंने अपने मित्रों को बताया कि भारत में हिन्दी कविता के कदरदान ही नहीं हैं। इसलिए मैंने उसे नोबेल पुरस्कार की चयन समिति को भेज दिया है। उनकी ओर से 2013 में सम्मानित करने की सूचना भी आ गयी, पर मुझे क्या पता था कि 21 दिसम्बर को कुछ नहीं होगा। अब मेरी सारी पोल–पट्टी खुल जाएगी।
ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें सुन कर आप हंसेंगे। मैंने यह सोचकर दो दिन और प्रतीक्षा की, कि शायद भगवान कहीं और व्यस्त हों, पर कुछ नहीं हुआ। बहिन मायावती की तरह माया कैलेंडर ने भी धोखा दे दिया। कबीरदास जी ने माया को महाठगिनी ठीक ही कहा है।
अब मुझे हर दिन की तरह पत्नी के ताने सुनने ही होंगे। बच्चों की इच्छाएं पूरी करनी ही होंगी। पड़ोसी से झगड़ना और कार्यालय में अकड़ना ही होगा। दूध की लाइन में लगना और बेटी की शादी के लिए भटकना ही होगा। बेटे की नौकरी के लिए रिश्वत देनी और उसकी पूर्ति के लिए रिश्वत लेनी ही होगी। अर्थात वह सब करना होगा, जो अब तक कर रहा था।
लोग 21 दिसम्बर बीतने के बाद भले ही खुश हों, पर मैं बहुत उदास हूं। मुझे आपकी संवेदना की बहुत जरूरत है। प्लीज।
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