बंगलादेश में हिन्दुओं पर अत्याचारों का अंतहीन सिलसिलालेकिन कट्टर मजहबियों के डर से खामोश है मीडियामौन है सरकार-आलोक गोस्वामी
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बंगलादेश में हिन्दुओं पर अत्याचारों का अंतहीन सिलसिलालेकिन कट्टर मजहबियों के डर से खामोश है मीडियामौन है सरकार-आलोक गोस्वामी

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Dec 15, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 15 Dec 2012 15:45:59

बंगलादेश '71 में बना। उससे पहले वह पूर्वी पाकिस्तान था। पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौजी जुल्म ढाते आ रहे थे, हिन्दुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया जाता था। मजहबी परिवर्तन जो करना था। उनकी नजर में 'काफिर' थे, सो मजहब के उन्मादी उन्हें रास्ते से हटाना 'फर्ज' मानते थे। सैकड़ों-हजारों को मौत के घाट उतारा गया। '71 में युद्ध हुआ। भारत ने पाकिस्तान को करारा तमाचा मारा। 93 हजार पाकिस्तानी फौजी अपने कमांडर जनरल नियाजी की अगुआई में हथियार जमीन पर रखकर हाथ बांधे खड़े हो गए। भारत ने रहम किया, शिमला समझौता किया, युद्धबंदी छूट गए। उधर बंगलादेश की नींव पड़ी, पाकिस्तान के सीने में शूल चुभे, भारत के प्रति नफरत में तेजाबी तेजी आई। बंगलादेश बना तो भारत को लगा, वहां बड़ी तादाद में रह रहे हिन्दुओं को अब सुकून नसीब होगा। लेकिन '71 में पूर्वी पाकिस्तान की मुस्लिम फौज के हाथों लगातार 9 महीने तक रोंगटे खड़े कर देने वाले अत्याचार सह चुकी हिन्दू आबादी आशंकित थी। तब जो हुआ था उसकी बानगी सुप्रसिद्ध स्तंभकार सुजित दास के आलेख 'ह्यूमेनिटी एसेसिनेटिड : एथनिक क्लिंजिंग आफ माइनोरिटीज इन बंगलादेश' में मिलती है। अनेक पुस्तकों के हवाले से दास लिखते हैं, 'दमन के 80 प्रतिशत शिकार हिन्दू ही हुए थे। एक करोड़ हिन्दू पलायन करके भारत आ गए। 2 लाख महिलाओं का बलात्कार किया गया। हिन्दुओं के पड़ोस में रहने वाले मुसलमान हिन्दुओं के घरों के बाहर पीले रंग से 'एच' लिख देते थे ताकि दमनकारी फौजियों को अपने निशाने पहचान में आ जाएं।'

ऐसी यातना से गुजरी बंगलादेश की हिन्दू आबादी के मन में शंका थी, होनी ही थी। कैसा होगा आजाद बंगलादेश का शासन? क्या उनके अधिकारों और अस्मिता की रक्षा होगी? '72 में वहां बने संविधान की धारा 12 सेकुलरिज्म के सिद्धांत की व्याख्या करती थी, 'सेकुलरिज्म' की बात करती थी। लेकिन '77 में उस धारा को निकाल दिया गया। बाद में जनरल जियाउर रहमान ने 'सेकुलरिज्म' शब्द ही हटा दिया। उसकी जगह शब्द जोड़े- 'अल्लाह में निष्ठा'। धारा 8 (1) में बदल करके लिखा गया- 'अल्लाह में पूरा यकीन और वफा ही हर काम का आधार होनी चाहिए।' जनरल इरशाद कुर्सी पर आए तो 8वां संशोधन हुआ। इस्लाम शासन का मजहब घोषित हुआ। वैसे धारा 44 मौलिक अधिकारों की गारंटी देती है।

लेकिन '71 से अब तक, कितनी ही सरकारें आईं, पर हिन्दुओं का उत्पीड़न जारी रहा। कुछ नहीं बदला। पुलिसियों का हिन्दुओं पर अत्याचारों से मुंह फेरना, हिन्दू महिलाओं से दुर्व्यवहार, बलात्कार के मामले दर्ज न करना, हिन्दुओं की दुकानों, घरों पर मुस्लिम कब्जे झुठलाना, मंदिरों पर जबरन मजहबी उन्मादियों का चढ़ बैठना, उन्हें तोड़ना, देव प्रतिमाएं भंग करना वगैरह उनकी चिंता का विषय न तब बनता था, न अब बनता है। दास आगे लिखते हैं कि बंगलादेश 'तालिबानिस्तान' बनने की राह पर है। इसके रास्ते में आने वाली रुकावटों को मजहबी राज्य बेदर्दी से कुचलने में शान समझता है। इस्लामी उग्रवादियों ने बंगलादेश में समानान्तर सरकार बना रखी है। जमाते इस्लामी की तूती बोलती है। बंगलादेश की सड़कों पर खुलेआम लिखा मिलता है, 'हम हैं तालिबान और बंगला बनेगा अफगान।' मीडिया मौन है, सरकार चुप है और दुनिया इस बारे में अंधकार में है।

2007 में प्रो.तथागत राय की किताब आई थी- 'ए सप्रेस्ड चैप्टर इन हिस्ट्री- द एक्सोडस आफ हिन्दूज फ्राम ईस्ट पाकिस्तान एंड बांगलादेश।' इसमें प्रो.राय ने बंगलादेश में हिन्दू उत्पीड़न की ऐसी ऐसी घटनाएं बयां की थीं कि पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएं। वे लिखते हैं-'अपहरण, विवाहिताओं और बच्चियों से बलात्कार, बच्चियों से जबरन निकाह, जजिया, जबरन मतांतरण और सामूहिक हत्याएं रोजमरर्ा की घटनाएं हैं। हिन्दू विधवा महिलाओं को अक्सर अपनी गाय खुद काटकर उसका मांस पकाकर खाने को मजबूर किया जाता है।'

बंगलादेश के अंग्रेजी अखबार द डेली स्टार में 3 जून, 2003 को एक खबर छपी थी- '(पुलिस थाने का) प्रभारी तुफज्जल हुसैन गहरी रात में उस भीड़ की अगुआई करता हुआ गया जिसने गोपालपुर में दो आश्रमों, मां काली के मंदिर और तीन घरों में तोड़फोड़ की और 7-8 लोगों की जमकर पिटाई की।'

यह सच है। पुलिस तब भी बर्बर थी हिन्दुओं के प्रति और आज भी उसका मिजाज हिन्दुओं को लेकर तुगलकी और बेरहम है। इसकी ताजा मिसाल दी बंगलादेश में हिन्दू उत्पीड़न के विरुद्ध निडर होकर आवाज उठाते आ रहे श्री रबिन्द्र घोष ने। पाञ्चजन्य से बात करते हुए उन्होंने बताया- '24 नवम्बर दोपहर की बात है। मैं रबिन्द्रनाथ बरल और दो अन्य, बिवेक और बिजय के साथ पुलिस अधीक्षक (जिला पिरोजपुर, बंगलादेश) अख्तरुज्जमां से मिलने उनके आफिस गया था। मैं वहां मोतबारिया उप जिले में हिन्दुओं की जमीनें कब्जाने, देवी–देवताओं की प्रतिमाओं के अपमान, बलात्कार सहित हिन्दू उत्पीड़न के कई अन्य मामलों पर क्या कार्रवाई हो रही है, इस पर बात करने गया था। वहां मुस्लिम तत्वों ने हिन्दू मंदिर पर कब्जा भी कर लिया था। लेकिन जैसे ही मैंने हिन्दुओं को सताए जाने और उन्हीं के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करने की बात की, अख्तरुज्जमां भड़क उठे। वे मुझे 'चुपकर', 'चुपकर', 'बकवास बंद कर' कहने लगे। उन्होंने अपने मातहत कांस्टेबलों को आवाज दी और हमारी पिटाई करने को कहा। वे मुझे धक्के देकर एक कमरे में ले गए और पैर से ठोंकरे मारीं। बाकी पुलिस वाले दूसरे कमरे में रबिन्द्र बरल पर लातें–घूंसे बरसा रहे थे। लाठी और पिस्तौल के हत्थे से मारा जा रहा था। मेरा मोबाइल छीन लिया। जिन बेचारे बिबेक और बिजय की 12 मार्च 2012 को मुस्लिम तत्वों द्वारा जमीन कब्जाई गई थी, उन पर अधीक्षक ने फर्जी बयान पर दस्तखत करने का जोर डाला। रबिन्द्र नाथ को अस्पताल में भर्ती कराने के बाद उसी दिन मैंने तमाम बड़े पुलिस अफसरों, गृह सचिव से बात की, उन्हें पूरी घटना बताई। गृह राज्यमंत्री शमसुल हक से बात की, दोषी पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। इसके बाद मैं स्थानीय प्रेस क्लब गया, पत्रकारों के सामने आपबीती सुनाई। लेकिन अधीक्षक का खौफ ऐसा कि कोई कुछ छापने को तैयार न हुआ।'

यह तो उन रबिन्द्र घोष के साथ हुए अत्याचार की दास्तान है जो वहां के सर्वोच्च न्यायालय में बड़े वकील हैं। एक आम हिन्दू नागरिक के साथ फिर पुलिस और बाकी अफसर कैसा सलूक करते होंगे, इसका हलका सा अहसास भी भीतर तक तिलमिला देता है। लेकिन बाहर की ज्यादातर दुनिया बंगलादेश में रह रहे हिन्दुओं का आर्त्तनाद नहीं सुन पाती। खबरें निकल ही नहीं पातीं। सब ओर 'मजहब की मर्जी' का राज है।

अमरीकी स्तंभकार ली जे वाल्कर ने 'द माडर्न टोक्यो टाइम्स' में 28 अप्रैल 2010 में 'बंगलादेश एंड द डेस्ट्रक्शन ऑफ हिन्दुइज्म एंड बुद्धिज्म' में बंगलादेश में हिन्दू उत्पीड़न की असलियत बताते हुए लिखा था- 'बंगलादेश और पाकिस्तान का इस्लामीकरण जारी है। बंगलादेश में मौजूदा संकट सुर्खियों में आना चाहिए, क्योंकि वहां अल्पसंख्यकों के समर्थन में खड़े होने की जरूरत है।…बंगलादेश और पाकिस्तान से लाखों हिन्दू पलायन कर चुके हैं, वहां सुनियोजित दमन के चलते अन्तरराष्ट्रीय समुदाय इस मुद्दे पर खुलकर बहस करेगा या उससे डरता और उसकी अनदेखी करता रहेगा?'

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