असंख्य कसाबों का खतरा
|
वोट बैंक की राजनीति से देश में बढ़ रहा है
नरेन्द्र सहगल
अपने दलगत स्वार्थों के लिए कांग्रेस कर रही है
आतंकवाद पर संकीर्ण राजनीति
वैसे तो प्राय: सभी राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंक का थोड़ा-बहुत ध्यान तो रखते ही हैं परंतु देश और समाज की सुरक्षा को ही खतरे में डालकर वोट बैंक करने की घटिया और राष्ट्रघातक राजनीति करने में कांग्रेस सबसे आगे निकल गई है। आतंकवाद और आतंकवादियों से संबंधित नीति निर्धारण में कांग्रेस सरकारों ने सदैव ही कानून और नैतिकता की धज्जियां उड़ाकर अपने दलगत स्वार्थों को ही अधिमान दिया है। यदि ऐसा न होता तो 26/11 के मुम्बई नरसंहार के जिंदा पकड़े गए एकमात्र पाकिस्तानी हमलावर अजमल कसाब की फांसी से बहुत पहले उन आतंकवादियों को सूली पर टांग दिया जाता जो न्यायालय द्वारा मौत की सजा पाए जाने के बाद भी कई कई वर्षों से जेलों में रहकर सरकारी सुविधाओं का लुत्फ उठा रहे हैं। आतंकवादी विरोधी मोर्चा के अध्यक्ष एम एस बिट्टा का कहना है कि 'सरकार ने कसाब के मामले में उचित फैसला लिया है वहीं भुल्लर, रजोआना और अफजल को वोट बैंक के चलते बचाया जा रहा है।' वास्तव में वोट बैंक की यह राजनीति तो विभिन्न आतंकियों में भी क्षेत्र और जाति के आधार पर भेद करके चलती है।
सच तो यह है कि यदि कसाब के गृह क्षेत्र पाकिस्तान में कांग्रेस का वोट बैंक होता तो उसे भी शायद फांसी न दी जाती। इस विदेशी आतंकवादी को फांसी पर लटकाने का समय भी कांग्रेसी राजनीति की ही एक कड़ी है। राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार गुजरात में हो रहे विधानसभा के चुनावों में अपने को राष्ट्रवादी और देशभक्त साबित करने के लिए ही कांग्रेसी राजनेताओं ने यह फैसला लिया है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रवादी छवि की काट के लिए में केन्द्र सरकार ने हिन्दुओं के वोट बटोरने के लिए इतनी तत्परता और साहस का नाटक किया है। अफजल और भुल्लर की फांसी इसलिए भी लटकाई जा रही है क्योंकि इन दोनों के समर्थक और संरक्षक कश्मीर और पंजाब में पर्याप्त मात्रा में हैं और इन दोनों समुदायों के थोक वोटों पर कांग्रेस की निगाह जमी हुई है। स्पष्ट है कि कसाब, अफजल, भुल्लर इत्यादि आतंकियों के मामलों का यह सरकार राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। डा.मनमोहन सिंह की सरकार की यही सत्तालोलुप राजनीति सबके सामने आ गई है।
सुविधाओं को हक समझकर जेलों में मौज करते हैं
मौत के हकदार ये देशद्रोही
चिंताजनक बात यह है कि वोट बैंक पर आधारित सरकारी (कांग्रेसी) नीतियां न्यायालयों के समयोचित फैसलों पर हावी होती जा रही हैं। कुछ मामले ऐसे भी हैं जहां अधूरी कानूनी प्रक्रिया अथवा सरकारी पक्षों की उदासीनता के कारण उच्च न्यायालयों ने छोटी अदालतों के फैसले बदलकर आतंकवादियों को मजबूरन दोषमुक्त कर दिया। कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों से इस संकीर्ण राजनीति को समझा जा सकता हे।
l+¡òVɱÉ-¦ÉÉ®úiÉÒªÉ संसद पर 2001 में हुए हमले के जिम्मेदार अफजल को 20 अक्तूबर, 2006 में फांसी की सजा दी गई थी। अफजल की दया याचिका को राष्ट्रपति ने अब गृहमंत्रालय को लौटाया है। इस आतंकी को फांसी पर न चढ़ाकर जेल में खातिरदारी की जा रही है।
l{Éä®úÒ´ÉɱÉÉxÉ, मुरुगन और मंथन–पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के ये हत्यारे 9 सितम्बर, 2011 को फांसी पर लटकने वाले थे। इनकी दया याचिका तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अगस्त 2011 मेंे लौटा दी थी। मद्रास हाईकोर्ट ने फांसी पर रोक लगा रखी है।
l¤É±É´ÉÆiÉ सिंह रजोआना–पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के इस हत्यारे की फांसी की तिथि 31 मार्च, 2012 निर्धारित हो गई थी। पंजाब में हुए भारी परंतु एकतरफा विरोध के कारण सरकार इसे राजनीतिक कैदी की तरह जेल में रखे हुए है। दया याचिका विचाराधीन हे।
lnäù´Éäxpù पाल सिंह भुल्लर-1993 में दिल्ली में हुए कार बम धमाकों के दोषी भुल्लर को अगस्त 2001 में सजा ए मौत दी गई थी। मई 2001 में ही दया याचिका को राष्ट्रपति ने नामंजूर कर दिया था परंतु सितम्बर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरी अपील की इजाजत दे दी।
l YÉÉxÉ, सियोन, बिलवंद और मीसीकार–कर्नाटक के जंगलों में सक्रिय बहुमूल्य चंदन की लकड़ी के कुख्यात तस्कर वीरप्पन के इन चारों साथियों ने 1993 में एक पुलिस पार्टी पर धमाका करके 23 पुलिस जवानों की जान ले ली थी। ये सभी जिंदा मौज कर रहे हैं।
देश भर में खासतौर पर पंजाब एवं जम्मू-कश्मीर में आतंकी हिंसा में सक्रिय होकर बेकसूर नागरिकों और सुरक्षा जवानों की हत्याओं के जिम्मेदार अनेक दहशतगर्दों अथवा खालिस्तानी और जिहादी सरगनाओं को इनके राजनीतिक माई-बाप के दबाव के कारण या तो छोड़ दिया गया या फिर बहुत थोड़ी सजा का नाटक करके कानूनी प्रक्रिया बंद कर दी गई। राजनीतिक नेताओं का वोट बैंक इनका सहारा बना और ये देशद्रोही अपने 'पापों से मुक्त' कर दिए गए।
जातिवाद भड़काकर सरकार पर दबाव डालते हैं
आतंकियों के माई–बाप सेकुलर राजनेता
आतंकवादियों के राजनीतिक आकाओं और उनके द्वारा भ्रमित की गई जनता के दबाव से यदि न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित होने लगेगी तो आम नागरिक की सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा? इस तरह तो न्यायालय और सरकार दोनों पर ही जनता का भरोसा उठ जाएगा। फिर कौन आतंकियों से निहत्थे और बेगुनाह लोगों की रक्षा करेगा? अभी हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1996 में लाजपतनगर, नई दिल्ली की मार्केट में हुए बम धमाकों के दो आरोपियों को बरी कर दिया है। इन्हें ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा दी थी। किस वजह से हमारे सरकारी वकील अथवा पुलिस अधिकारी आतंकियों के खिलाफ ठोस सबूत एवं गवाह भी नहीं जुटा पाते? कौन है इनके सिर पर? अफजल की फांसी को रुकवाने के लिए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री समेत कश्मीर केन्द्रित सभी राजनीतिक दल दबाव डाल रहे हैं। सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस के महासचिव और केन्द्रीय मंत्री डा.फारुख अब्दुल्ला के भाई मुस्तफा कमाल ने तो अफजल की फांसी के बाद घाटी में गंभीर परिणामों की चेतावनी भी दे डाली है। कश्मीर में सक्रिय सभी अलगाववादी आतंकवादी संगठन इस फांसी से कश्मीर में हिंसक उन्माद की चेतावनी दे रहे हैं। केन्द्र सरकार मुस्लिम वोट बैंक की लालसा में समस्त देश को ठेंगा दिखा रही है।
केन्द्र सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दोनों हत्यारों सतवंत सिंह और केहर सिंह को न्यायालय के निर्णयानुसार फांसी पर लटकाने की तत्परता जरूर दिखाई थी। उस समय भी कुछ खास राजनेताओं ने राष्ट्रपति से इनकी मौत की सजा को आजीवन कैद में बदलने की गुहार लगाई थी। अब उसी तरह की अपीलें देवेन्द्र सिंह भुल्लर और बलवंत सिंह रजोआना को फांसी से बचाने के लिए की जा रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री श्री सरदार प्रकाश सिंह बादल समेत अधिकांश अकाली और कांग्रेसी नेता सिख समाज में बवाल उठने का तर्क देकर प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह से मिल चुके हैं। इसी तरह की जातिगत और मजहब आधारित राजनीतिक मंशा के चलते उत्तर प्रदेश की सरकार वाराणसी के संकट मोचन हनुमान मन्दिर और कैंट रेलवे स्टेशन पर हुए जानलेवा विस्फोटों के आरोपियों के केस वापस लेने की तैयारियां कर रही है। यद्यपि उच्च न्यायालय ने सरकार को तगड़ी फटकार लगाई है। परंतु इससे आतंकवाद पर भी राजनीति करने वाले दलों की समाज घातक मनोवृत्ति और किसी भी प्रकार से अपना वोट बैंक मजबूत करने के नापाक इरादे तो सामने आने शुरू हो ही गए हैं।
विदेश प्रायोजित आतंकवाद के सफाए हेतु करना होगा
दलगत राजनीति का परित्याग
यद्यपि कसाब को अपना नागरिक न मानने की जिद पर अड़े पाकिस्तान ने उसकी फांसी के बाद भी खामोश रहने की बगुलाभगत नीति अख्तियार की है, परंतु वहां की सरकार और सेना के पूर्ण आशीर्वाद से जिहादी आतंक फैला रहे आतंकी संगठनों और आईएसआई के हमसफर तालिबानों ने भारत सरकार और भारतीयों को धमकियां दे दी हैं। तहरीके पाकिस्तान के एक वरिष्ठ कमांडर एहसानुल्ला ने तीखी धमकी देते हुए कहा है कि 'उनका संगठन कसाब को फांसी देने का बदला लेगा। दुनिया के किसी भी कोने पर भारतीय उसके निशाने पर होंगे।' इसी तरह लश्करे तोएबा के भी एक नेता ने कह दिया है कि कसाब तो इस्लाम और पाकिस्तान का हीरो है और उन्हें और भी ज्यादा आतंकी हमले करने की प्रेरणा देगा। पाकिस्तान में जोर पकड़ रही पार्टी तहरीक ए इंसाफ के अध्यक्ष पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने भी राजनीतिक धक्का मारते हुए मांग की है कि भारत द्वारा अजमल कसाब को फांसी देने के बदले भारतीय नागरिक सरबजीत को फांसी देनी चाहिए। किन कारणों से भारत सरकार पाकिस्तान में हो रही उन भारत विरोधी प्रतिक्रियाओं पर खामोश है? इसके पीछे कौन सा वोट बैंक है?
केन्द्र सरकार ने कसाब को फांसी देकर आतंकवाद पर एक प्रहार अवश्य किया है। परंतु इस कदम से जिहादी आतंक का एक छोटा सा अध्याय ही समाप्त हुआ है, आतंकवाद और इसके पोषक तत्वों का पूरा खतरा मौजूद है। पाकिस्तान की आईएसआई की मदद और इशारे से काम करने वाले अनेक कसाब भारत के भीतरी इलाकों में सक्रिय हैं। जम्मू-कश्मीर की सीमा के रास्ते से भारत में सशस्त्र घुसपैठिए भेजने की पाकिस्तानी कोशिशें पहले से कहीं ज्यादा तेज हुई हैं। इन सशस्त्र घुसपैठियों को संरक्षण देने वालों की भी देश में कमी नहीं है। आने वाले दिनों में आतंकी खतरा बढ़ सकता है। कसाब की फांसी पर तालियां पीट रही सरकार यदि वास्तव में आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर गंभीर है तो उसे जेलों में बंद शेष बचे मौत की सजा पाए सभी आतंकियों को कानून और न्यायालय का सम्मान करते हुए तुरंत फांसी के फंदे पर टांग देना चाहिए। सुरक्षा के साथ सीधे जुड़े इस मुद्दे पर की जा रही दलगत स्वार्थों की राजनीति को तिलांजलि देकर आतंकवाद के पूर्ण सफाए के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है। देश ऐसी ठोस कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रहा है जिससे संविधान एवं न्याय प्रणाली की रक्षा हो और दलगत राजनीति पर लगाम लगे। n
टिप्पणियाँ