कांग्रेस का हिसाब
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नवंबर, 2008 में मुंबई पर आतंकी हमलों के वक्त गिरफ्तार पाकिस्तानी जिहादी अजमल आमिर कसाब को आखिरकार फांसी दे दिये जाने का तो कोई भी राष्ट्रवादी स्वागत ही करेगा, लेकिन यह मामला जिस तरह आनन-फानन में निपटाया गया, उससे कुछ अनुत्तरित सवाल उठ खड़े हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी साल 29 अगस्त को कसाब को मृत्युदंड की सजा बरकरार रखने का फैसला सुनाया था, जिसके बाद उसने राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर की। इस दया याचिका को 5 नवंबर को ही खारिज कर देने के त्वरित निर्णय के लिए तो नये राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की प्रशंसा की जानी चाहिए, लेकिन अभूतपूर्व गोपनीयता के साथ कसाब को 21 नवंबर को सुबह पुणे की यरवदा जेल में फांसी दिये जाने को कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का राजनीतिक दांव ज्यादा माना जा रहा है। भ्रष्टाचार, काले धन, महंगाई और एफडीआई पर चौतरफा घिरी सरकार को 22 नवंबर से ही संसद के शीतकालीन सत्र का सामना करना था, तो कांग्रेस को अगले महीने गुजरात के विधानसभा चुनाव मैदान में उतरना है। ऐसे में सरकार और कांग्रेस , दोनों ने ज्वलंत मुद्दों से देशवासियों का ध्यान हटाने के लिए यह दांव चल दिया। बेशक देशवासियों की भावनाओं से जुड़े मुद्दे को भुनाने के इस हिसाब में तो कांग्रेस ने चतुराई दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह जो 'पब्लिक' है, वह सब जानती है।
अफजल क्यों नहीं?
कसाब की फांसी से जुड़ा कांग्रेस का राजनीतिक हिसाब कितना सही निकलेगा, यह तो समय बतायेगा, लेकिन उसकी इस फुर्ती से अफजल के मामले में बरती जा रही सुस्ती फिर उजागर हो गयी है। 2008 के मुंबई हमले के लिए कसाब को फांसी की सजा पर सर्वोच्च न्यायालय ने इसी साल 29 अगस्त को अंतिम मुहर लगायी थी और उसे 21 नवंबर को फांसी पर लटका भी दिया गया, लेकिन देश की संसद पर वर्ष 2001 में हुए आतंकी हमले के सूत्रघार अफजल की दया याचिका पर यही कांग्रेसी सरकार आज तक फैसला नहीं कर पायी है, जबकि उसकी फांसी की सजा की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय 4 अगस्त, 2005 को ही कर चुका है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम राष्ट्रवादियों और बुद्धिजीवियों ने यह सवाल पूछा भी है कि अफजल के मामले में यह देरी क्यों? बेशक, यह बेहद स्वाभाविक और महत्वपूर्ण सवाल फिलहाल सरकार के नक्कारखाने में तूती साबित हुआ है, पर जनता की अदालत से इस पर भी जवाब जरूर आयेगा।
किसका समन्वय?
कांग्रेस के प्रायोजित कोरस के बाद 'युवराज' को आगामी लोकसभा चुनाव के लिए समन्वय समिति का अध्यक्ष बना दिया गया, पर यह किसी को समझ नहीं आ रहा कि आखिर वह करेंगे क्या? कहने को तो समन्वय समिति केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग की भी है, पर सरकार ही उसे कोई भाव नहीं देती। ऐसे में सरकार इस चुनावी समन्वय समिति को तरजीह देगी, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। रहा सवाल चुनाव का, तो वे अभी दूर हैं। संगठन जमीन पर बचा नहीं और जनता से कांग्रेस बहुत पहले कट चुकी है। ऐसे में 'युवराज' और उनके दरबारियों को भी समझ में नहीं आ रहा कि आखिर समन्वय किसके साथ करना है? हां, 'युवराज' के लिए एक और दरबार अवश्य सज गया है।
उनकी सरकार
पिछले दिनों एक मीडिया समूह द्वारा कराये गये सम्मेलन में तमाम बड़ी शख्सियतों के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी आए। अपने-अपने क्षेत्र के अग्रणी लोगों ने अपने-अपने विषय पर भाषण दिये। ऐसे में वंशवाद की बेल पर चढ़ कर देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने अखिलेश बोलते भी तो किस विषय पर? सो, उन्होंने सफाई दी कि दरअसल उत्तर प्रदेश में सरकार वह ही चला रहे हैं। पहले तो लोग चौंके कि यह कहने की जरूरत क्यों महसूस हुई, पर जल्दी ही समझ आ गया कि पिता से लेकर चाचाओं तक की दखलंदाजी के बीच खुद के साथ बच्चे जैसा व्यवहार किये जाने से परेशान मुख्यमंत्री और कहते भी तो क्या। पर अब जो सवाल उठे हैं, उनसे खुद अखिलेश भी मुंह चुराये घूम रहे हैं। सवाल हैं कि सात माह के शासन में सात से भी अधिक जिलों में सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं और हत्या- डकैती-बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की तो कोई गिनती ही नहीं है–मुलायम सिंह के लाड़ले यह कैसी सरकार चला रहे हैं? समदर्शी
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