आयरलैण्डकानून के घेरे में चर्च
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कानून के घेरे में चर्च
डा. विशेष गुप्ता
आयरलैण्ड में हाल ही में भारतीय मूल की महिला दंत चिकित्सक सविता हलप्पानवार की भ्रूण में दोष आने से असामयिक मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के बाद वहां के विवादित गर्भपात कानून में बदलाव के लिए नये सिरे से एक बहस छिड़ गयी है। इस दर्दनाक घटना के चलते खुद डबलिन में आयरिश संसद के सामने मौजूदा गर्भपात कानून के विरोध में प्रदर्शनों का क्रम जारी है। वहां के सोशल मीडिया पर भी चर्च की कट्टरता के खिलाफ अब तक लाखों लोग अपने गुस्से का प्रदर्शन कर चुके हैं। आयरलैण्ड के वर्तमान गर्भपात विरोधी कानून में संशोधन की मांग जोर पकड़ रही है। इस समय पूरी दुनिया में आयरलैण्ड के कैथोलिक चर्च से जुड़े इस विवादित कानून के विरोध में बहुत गुस्सा है।
गौरतलब है कि 31 वर्षीय सविता की 28 अक्तूबर को आयरलैण्ड में मृत्यु हो गयी। वह गर्भवती थी और उसका 17 हफ्ते का गर्भ बिगड़ गया था। वहां के डाक्टरों का साफ कहना था कि आयरलैण्ड एक कैथोलिक देश है इसलिए यहां गर्भपात नहीं किया जा सकता। तर्क था कि क्योकि अभी भ्रूण के दिल में धड़कन है इस कारण कैथोलिक देश में, खास तौर पर चर्च के कानून के अनुसार यह गर्भपात किया जाना संभव नहीं है। समय रहते उसका गर्भपात न होने से सविता के शरीर में रक्त विषाक्त (सैप्टीसीमिया) हो गया और उसकी मृत्यु हो गयी। गौर करें कि 1992 में आयरिश सर्वोच्च न्यायालय ने एक महिला की जान को खतरा होने पर गर्भपात कराने की व्यवस्था दी थी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि 'महिला की जान को खतरा' जैसे शब्द का स्पष्टीकरण न होने से वहां की सरकारें कैथोलिक चर्च का हौवा खड़ा कर इस प्रतिबन्ध की आड़ लेती रही हैं। सविता भी इसी कैथोलिक सोच का शिकार हुई। कहना न होगा कि सविता की मौत के बाद आयरलैण्ड से लेकर भारत तक भड़के विरोध को देखते हुये आयरिश प्रशासन ने इस पूरे मामले पर जांच बैठा दी है। अब इस मुद्दे पर खुलकर अभिव्यक्ति देने का समय आ गया है।
चर्च की कट्टरता
दरअसल आयरलैण्ड में गर्भपात से जुड़े कानून साक्षी हैं कि वहां 1861 से ही गर्भपात विरोधी कानून 'दि आफेंसिस अगेन्स्ट द पर्सन एक्ट' लागू है। इस कानून की धारा 58 व 59 में साफ लिखा है कि 'यहां गर्भपात अवैध है जिसके लिए दण्ड निर्धारित है।' चर्च की कट्टरता से जुड़ी एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि आयरलैण्ड में गर्भपात विशेषज्ञ मैमी केडन को गर्भपात से जुड़े उसके एक मरीज की मौत हो जाने पर फांसी पर लटका दिया गया था। यह चर्च का वह चेहरा है जो अक्सर फतवों के रूप में सामने आता रहता है। पिछले दिनों केरल के कैथोलिक चर्च ने अपने अनुयायियों को टेलीविजन चैनलों का बहिष्कार करने का कड़ा निर्देश सुनाया था। जरा गौर करें, अभी तीन-चार माह पहले भी मिजोरम के कैथोलिक चर्च ने अपने युवाओं पर रविवार के दिन फुटबाल न खेलने की बंदिश लगायी थी। चर्च की ऐसी सब पाबंदियों के साथ में भारतीय दन्त चिकित्सक की इस मौत ने आयरलैण्ड के गर्भपात विरोधी कानून और चर्च के इन दोहरे मानदंडों को अन्तरराष्ट्रीय आलोचनाओं के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। वैश्विक स्तर पर इस गर्भपात विरोधी कानून की समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि इस मुद्दे पर सभी कैथोलिक देशों की कथनी और करनी समान नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि आधे से अधिक कैथोलिक देश बलात्कार, विकृत भ्रूण तथा सामाजिक व आर्थिक मामलों तक में गर्भपात की इजाजत नहीं देते। संयुक्त राष्ट्र गर्भपात नीति-2011 के आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि 192 देशों के संघ में से 29 फीसदी देश ही कुछ पुख्ता विधिक तकर्ों के आधार पर गर्भपात की इजाजत देते हैं। इस सम्बन्ध में खास बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक व आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा दुनिया में गर्भपात से जुड़ी सात श्रेणियां बतायी गई हैं जिनमें गर्भपात स्वीकार्य है। उनमें महिला जीवन का संरक्षण, उसके भौतिक व मानसिक स्वास्थ्य का बचाव, बलात्कार अथवा कौटुम्बिक व्यभिचार, भ्रूण विकृति तथा सामाजिक व आर्थिक कारण प्रमुख हैं।
कानूनों में अस्पष्टता
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि गर्भपात को लेकर महिला के भौतिक और मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए केवल 60 फीसदी लोग ही गर्भपात की इजाजत देते हैं। विश्व के कई देशों में कहीं-कहीं तो गर्भपात से जुड़ी परिभाषाएं इतनी संकीर्ण हो गयी हैं कि महिला को ही अकेले इसका आघात झेलना पड़ता है। बीते दो दशकों में आयरलैण्ड में कैथोलिक चर्च के द्वारा ऐसे मामलों में 'दया व करुणा' का प्रदर्शन तो किया जाता रहा, परन्तु वहां की कोई भी सरकार इस कानून में बदलाव करने की तनिक भी हिम्मत नहीं जुटा पायी। चर्च ने भी कभी वहां अपनी मान्यताओं में संशोधन करने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। यही कारण है कि गर्भपात से जुड़े कानूनों में वहां आज भी अस्पष्टता बरकरार है।
सविता की मृत्यु ने यह साबित कर दिया है कि दुनिया में ईसाइयत, जो मानवता के प्रति दया, करुणा और उदारता का दंभ भरती रही है, आज के इस आधुनिक दौर में मध्य युगीन कालखण्ड से बाहर नहीं निकल पायी है। मानवता के विरुद्ध ऐसी संकीर्ण, तर्कहीन और अवैज्ञानिक सोच के साथ चर्च फिर कैसे एक समृद्ध समाज बनाने का दावा कर सकता है? सही बात यह है कि गर्भपात से जुड़ा यह मसला महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन और उनके अधिकारों से सीधे संबंधित है। इसलिए इस बहस का निचोड़ यह है कि जहां खराब भ्रूण से महिला की जान खतरे में हो, वहां उसे मत-पंथ की कट्टर सीमाओं से बाहर जाकर गर्भपात का अधिकार मिलना ही चाहिए। परन्तु आयरलैण्ड की कैथोलिक सोच ने केवल सविता की जान ही नहीं ली है, बल्कि पूरी दुनिया की महिलाओं के जैविक अधिकारों पर चोट की है। इसलिए अब वह समय दूर नहीं हैं जब आयरिश संसद को गर्भपात से जुड़े इस मुद्दे पर विचार करने को मजबूर होना ही पड़ेगा।द
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