भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए चाहिएगैर राजनीतिक-सामाजिक क्रांति
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गैर राजनीतिक–सामाजिक क्रांति
स्वदेश चिन्तन
नरेन्द्र सहगल
'क्लर्क' से मंत्री और पंचायत से प्रधानमंत्री कार्यालय तक
सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला
संभवतया हमारे समाज जीवन का एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा होगा जहां भ्रष्टाचार के दानव ने अपने पंजे न गड़ाए हों। देश की सबसे छोटी सरकारी इकाई पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक भ्रष्टाचारियों का जमावड़ा है। एक भी सरकारी फाइल बिना 'पेट्रोल' के आगे नहीं सरकती। चपरासी, क्लर्क, सचिव, अधिकारी और मंत्री तक ऊपर की कमाई के बिना अपने पद को सार्थक हुआ नहीं मानते। कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं, परंतु भ्रष्टाचार का बोलबाला सर्वत्र अपना वर्चस्व बनाए हुए है। इतना फर्क जरूर है कि जहां एक साधारण 'क्लर्क' पांच सौ अथवा एक हजार रुपये तक की ऊपर की कमाई से गुजारा कर लेता है वहीं एक मंत्री करोड़ों के घोटाले को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चलता है। शिक्षण संस्थाएं, चिकित्सकीय क्षेत्र और कृषि तक प्राय: सभी जगह ईमानदारी तो बस कागजी वस्तु बन चुकी है। इसके चलते किराने की साधारण दुकान से लेकर बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों तक को कानून और नैतिकता की मर्यादा से चलाना संभव नहीं।
आजकल भ्रष्टाचार के आरोपों और प्रत्यारोपों का मौसम चल रहा है। पुलिस स्टेशन के सिपाही से लेकर न्यायपालिका तक इस महामारी का प्रकोप देखा जा सकता हैं। अपवाद तो बस आत्महत्या करने वाला किसान, सड़कों पर कोलतार बिछाने वाला मजदूर, सभ्य लोगों को ढो रहा गरीब रिक्शा चालक और दान राशि न दे सकने की वजह से बड़े शिक्षण संस्थान में प्रवेश से वंचित रह गया गरीब विशार्थी ही हो सकता है। एक प्रसिद्ध कहावत के अनुसार जिसके जो भाग्य में होता है उसे वह जरूर मिलता है। अब तो ऐसा लगता है कि इस भाग्य को भी भ्रष्टाचारियों ने रिश्वत देकर अपने कब्जे में कर लिया है। अन्यथा अपने देश के चालीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे न जी रहे होते। ऐसा लगता है कि भाग्य विधाता ने भी इनका हक अथवा हिस्सा भ्रष्टाचारियों के खाते में जमा करवा दिया है। चिंताजनक बात तो यह है कि भ्रष्टाचारियों को कटघरे में खड़ा करने वाली सरकारी एजेंसियां भी प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों के निशाने पर आ रही हैं।
भ्रष्ट राजनेताओं पर लगाम कसने में विफल रहीं
भ्रष्टाचार विरोधी सरकारी एजेंसियां
किसी भी देश की शासन व्यवस्था की आधुनिक नियमावली अथवा वर्तमान सामाजिक अवधारणा के अनुसार भ्रष्टाचार को समाप्त करके सभी नागरिकों को रोटी, सुरक्षा और सम्मान देने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। और यह सरकार चलाते हैं राजनीतिक दल। अगर अपने देश के संदर्भ में इस अवधारणा को परखा जाए तो तस्वीर काली ही दिखाई देगी। यह आम धारणा है कि किसी दल में चुनाव में टिकट लेने, चुनाव में जीतने, मंत्री पद हासिल करने, सरकार का गठन करने और फिर उसे बचाने की लम्बी प्रक्रिया के प्रत्येक पड़ाव में अथाह और बेहिसाब नोट खर्च होते हैं। अगर घपले घोटाले नहीं करेंगे तो यह जरूरतें कैसे पूरी होंगी? वास्तव में यही जरूरतें भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं। दलगत राजनीति से सरकार गठन तक की पूरी प्रक्रिया को बदलना होगा।
वर्तमान भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था के होते हुए राजनीतिक दलों और उनके नेताओं पर नैतिकता की नकेल कसना पूर्णतया असंभव प्रतीत होता है। भ्रष्टाचार करना और फिर अपने को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए राजनीतिक नेताओं के पास नोटों के अतिरिक्त भी अनेक साधन हैं। राजनीतिक दल अपनी आय व्यय के हिसाब किताब को सार्वजनिक भी नहीं करते। सूचना के अधिकार वाले कानून से भी दूर रहना चाहते हैं। सभी प्रकार के न्यायिक प्रशासनिक, चुनावी सुधारों पर बातें तो बहुत होती हैं परंतु उस दिशा में एक भी ठोस कदम अभी तक नहीं उठाया जा सका। मुख्य सतर्कता आयुक्त के अनुसार एजेंसियां पूर्णतया सक्षम नहीं हैं और इनके आपस में भी कोई तालमेल नहीं है।
भ्रष्टाचारियों को नैतिक/राजनीतिक समर्थन दे रही है
सोनिया निर्देशित भ्रष्ट सरकार
भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से देश का ध्यान बांटने के लिए हाल ही में दिल्ली में आयोजित कांग्रेस की सरकारी रैली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह और महामंत्री राहुल गांधी ने जिस तरह बौखलाए लहजे में विपक्ष पर हमला बोलते हुए अपनी सरकार की तारीफों के पुल बांधे उससे तो यही संदेश गया कि यह सरकार भ्रष्टाचारियों को सजा देने की बजाए उनको पूरा संरक्षण देती रहेगी। अभी तक इस सरकार ने यही किया है। कामनवेल्थ घपले में फंसे कलमाड़ी और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के जिम्मेदार आरोपी ए.राजा और कनीमोझी को संसद की स्थाई समितियों में जगह दे दी गई। इसी तरह विकलांगों के धन के गबन के आरोपी सलमान खुर्शीद को देश का विदेश मंत्री बनाकर प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की परंपरागत भ्रष्टाचार संरक्षण नीति का ही खंभ ठोका है। आठ वर्ष पूर्व एक ईमानदार छवि वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता संभालने वाले डा.मनमोहन सिंह ने जनता का विश्वास खो दिया है। भारतवासियों की नजर में अब वे ईमानदार प्रशासक न होकर शुतुरमुर्गी राजनीति में माहिर एक राजनेता हैं।
सोनिया के वर्चस्व वाले नेहरू परिवार के वफादार प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ कुछ ठोस कदम उठाएं, जबकि डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने ठोस सबूतों के साथ सोनिया और राहुल दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए हैं। कांग्रेस महासचिव ने यह माना भी है कि उनकी पार्टी ने एसोसिएटिड जर्नल्स को 90 करोड़ रुपये का ऋण दिया है। सोनिया गांधी के दामाद रावर्ट वाड्रा और डीएलएफ के मध्य जमीनी सौदे के विवाद पर भी प्रधानमंत्री ने आंखें मूंद ली हैं। जाहिर है कि प्रधानमंत्री किसी अदृश्य मजबूरी में ऐसा कर रहे हैं। वास्तव में यही मजबूरी किसी सशक्त लोकपाल बिल को पारित नही होने देती और यही बेबसी भ्रष्टाचार विरोधी सरकारी जांच एजेंसियों का उपहास उड़ा रही है। प्रधानमंत्री ने बड़े सुंदर ढंग से कांग्रेस की महारैली में कहा है कि आठ साल से हम सोनिया जी के नेतृत्व में कांग्रेस के आदर्शों के मुताबिक ही काम कर रहे हैं। अर्थात् भ्रष्टाचारियों को बचाना कांग्रेस का आदर्श है और यह काम सोनिया गांधी के नेतृत्व में हो रहा है।
दलगत राजनीति का शिकार हो कर दम तोड़ गई
समाजवादी मुहिम और संपूर्ण क्रांति
सत्ता राजनेताओं को भ्रष्ट कर देती है। राजनीति शास्त्र का यह मुहावरा स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् सत्ताधारियों की पहचान बनने लगा। कांग्रेसी नेताओं के व्यवहार में उतरने वाली भ्रष्ट राजनीति, निरंकुश शासकीय मानसिकता और परिवारवाद को देखकर आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर समाजवादी क्रांति का बिगुल बजाया। विनोबा भावे ने धन और धरती बंट कर रहेंगे का नारा बुलंद करके समाज में न्याय और शुचिता लाने का प्रयास किया। जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का अभियान देशभर में चलाया। यह सब प्रयास राजनीतिक दलों और नेताओं की दलगत राजनीति का शिकार होकर दम तोड़ गए। पिछले 65 वर्षों में हुए ऐसे अनेक प्रयासों के बावजदू आज अपने देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अण्णा हजारे और स्वामी रामदेव जैसे गैर राजनीतिक सामाजिक नेताओं ने देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल तैयार करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की है। परंतु इस अभियान के कुछ भागीदारों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने रास्ते अलग कर लिए हैं। अर्थात् दलों के दलदल में एक और नया राजनीतिक दल खड़ा करने का दिशाहीन प्रयास। सत्ता की राजनीति से समाज में शुचिता लाने की उम्मीद करना पानी में लाठियां मारने जैसा ही होगा। आज जरूरत है एक ऐसी सामाजिक क्रांति की जो सत्ता की राजनीति से बेअसर रहकर देश के कोने-कोने में अपना असर डाल सके।
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